लेखक को दो चीज़ों से बचना चाहिए: एक तो भूमिकाएँ लिखने से, दूसरे अपने समवर्ती लेखकों के बारे में अपना मत प्रकट करने से। यहाँ मैं ये दोनों भूलें करने जा रहा हूँ; पर इसमें मुझे ज़रा भी झिझक नहीं है, खेद की तो बात ही क्या। मैं मानता हूँ; कि धर्मवीर भारती हिन्दी की उन उठती हुई प्रतिभाओं में से हैं जिन पर हिन्दी का भविष्य निर्भर करता है और जिन्हें देखकर हम कह सकते हैं कि हिन्दी उस अँधियारे अन्तराल को पार कर चुकी है जो इतने दिनों से मानो अन्तहीन दीख पड़ता था।
प्रतिभाएँ और भी हैं, कृतित्व औरों का भी उल्लेख्य है। पर उनसे धर्मवीर जी में एक विशेषता है। केवल एक अच्छे, परिश्रमी, रोचक लेखक ही नहीं हैं; वे नयी पौध के सबसे मौलिक लेखक भी हैं। मेरे निकट यह बहुत बड़ी विशेषता है, और इसी की दाद देने के लिए मैंने यहाँ वे दोनों भूलें करना स्वीकार किया है जिनमें से एक से तो मैं सदा बचता आया हूँ; हाँ, दूसरी से बचने की कोशिश नहीं की क्योंकि अपने बहुत-से समकालीनों के अभ्यास के प्रतिकूल मैं अपने समकालीनों की रचनाएँ पढ़ता हूँ तो उनके बारे में कुछ मत प्रकट करना बुद्धिमानी न हो तो अस्वाभाविक तो नहीं है।
भारती जीनियस नहीं हैं किसी को जीनियस कह देना उसकी प्रतिभा को बहुत भारी विशेषण देकर उड़ा देना ही है। जीनियस क्या है, यह हम जानते ही नहीं। लक्षणों को ही जानते हैं : अथक श्रम-सामर्थ्य और अध्यवसाय, बहुमुखी क्रियाशीलता, प्राचुर्य, चिरजाग्रत चिर-निर्माणशील कल्पना, सतत जिज्ञासा और पर्यवेक्षण, देश-काल या युग-सत्य के प्रति सतर्कता, परम्पराज्ञान, मौलिकता, आत्मविश्वास और हाँ, एक गहरी विनय। भारती में ये सभी विद्यमान हैं; अनुपात इनका जीनियसों में भी समान नहीं होता। और भारती में एक चीज़ और भी है जो प्रतिभा के साथ ज़रूरी तौर पर नहीं आती- हास्य।
ये सब बातें जो मैं रहा हूँ, इन्हें वही पाठक समझेगा जिसने भारती की अन्य रचनाएँ भी पढ़ी हैं, जैसे कि मैंने पढ़ी हैं। जिसने वे नहीं पढ़ीं, वह सोच सकता है कि इस तरह की साधारण बातें कहने से क्या लाभ जिनकी कसौटी प्रस्तुत सामग्री से न हो सके ? और उसका सोचना ठीक होगा : स्थाली पुलाक न्याय कहीं लगता है तो मौलिक प्रतिभा की परख में, उसकी छाप छोटी-सी अलग कृति पर भी स्पष्ट होती है; और 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' पर भी धर्मवीर की विशिष्ट प्रतिभा की छाप है।
सबसे पहली बात है उसका गठन। बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की- बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं- अलफ़लैला वाला ढंग, पंचतन्त्र वाला ढंग, बोकैच्छियो वाला ढंग, जिसमें रोज़ किस्सागोई की मजलिस जुटती है, फिर कहानी में से कहानी निकलती है। ऊपरी तौर पर देखिए तो यह ढंग उस ज़माने का है जब सब काम फुरसत और इत्मीनान से होते थे; और कहानी भी आराम से और मज़े लेकर कही जाती थी। पर क्या भारती को वैसी कहानी वैसे कहना अभीष्ट है? नहीं, यह सीधापन और पुरानापन इसीलिए है कि आपमें भारती की बात के प्रति एक खुलापन पैदा हो जाए; बात वह फुरसत का वक़्त काटने या दिल बहलाने वाली नहीं है, हृदय को कचोटने, बुद्धि को झंझोड़कर रख देनेवाली है। मौलिकता अभूतपूर्व, पूर्ण श्रृंखला-विहीन नयेपन में नहीं, पुराने में नयी जान डालने में भी है (और कभी पुरानी जान को नयी काया देने में भी); और भारती ने इस ऊपर से पुराने जान पड़नेवाले ढंग का भी बिलकुल नया और हिन्दी में अनूठा उपयोग किया है। और वह केवल प्रयोग-कौतुक के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि वह जो कहना चाहते हैं उसके लिए यह उपयुक्त ढंग है।
'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर सम्भूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी। प्राचीन चित्रों में जैसे एक ही फलक पर परस्पर कई घटनाओं का चित्रण करके उसकी वर्णनात्मकता को सम्पूर्ण बनाया जाता है, उसमें एक घटना-चित्र की स्थिरता के बदले एक घटनाक्रम की प्रवाहमयता लायी जाती है, उसी प्रकार इस समाज-चित्र में एक ही वस्तु को कई स्तरों पर, कई लोगों से और कई कालों में देखने और दर्शाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे उसमें देश और काल दोनों का प्रसार प्रतिबिम्बित हो सके। लम्बाई और चौड़ाई के दो आयामों के फलक में गहराई का तीसरा आयाम छाँही द्वारा दिखाया जाता है; समाज-चित्र में देश के तीन आयामों के अतिरिक्त काल के भी आयाम आवश्यक होते हैं और उन्हें दर्शाने के लिए चित्रकार को अन्य उपाय ढूँढ़ना आवश्यक होता है।
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