कुछ समय पहले मेरी मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हुई थी, जो सुरेन्द्र वर्मा को मिलने वालों में एक थे। मूलतः वे नाट्य समीक्षक हैं और नाटक को देखकर उसके मंचीय प्रभाव की समीक्षा करते हैं। उस दिन उन्होंने मुझे बताया था कि सुरेन्द्र वर्मा एक ऐसे रचनाकार हैं जो भारतीयता को अपने साहित्य के माध्यम से जीवंत करते हैं। वे परिवेश निर्माण की दृष्टि से अद्वितीय हैं। उनके नाटकों में इतिहास मात्र आधार के लिए प्रयुक्त होता है। उन्हें भारतीय इतिहास की स्वर्णिम छवियों में घूमना अच्छा लगता है। वे अपने नाटकों की वस्तु इतिहास से ग्रहण करते हैं, किन्तु बात समकालीन करते हैं। दूसरी बात उन्होंने यह बतायी कि सुरेन्द्र वर्मा के साहित्य का आप सही हार्द खोजना चाहते हैं तो संदर्भ पाश्चात्य साहित्य से खोजने पड़ेंगे। क्योंकि वे कथा भारतीय इतिहास से लेते हैं, बात समकालीन करते हैं और संदर्भपाश्चात्य साहित्य से जोड़ते हैं।
सुरेन्द्र वर्मा ने 'आठवाँ सर्ग' में निदेशकीय वक्तव्य के अंतर्गत लिखा है कि-"इसका जवाब मिला कुछ महीनों पहले, जब शनिवार की एक सुबह 'टाइम' में सोल्झेनित्सीन पर एक लेख पढ़ रहा था...... यकायक रोशनी-सी कौंध उठी...... हाँ, एक रचनाकार रचना की उत्कृष्टता से जनसामान्य में जड़ जमाकर सत्ता के सामने विराट हो जाता है।" (निदेशकीय वक्तव्य, सुरेन्द्र वर्मा एवं राजेन्द्र गुप्त)
आलोच्य नाटक में कालिदास लेखकीय स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाता है, व्यंग्य कसता है और अन्त में विजयी होता है। उसके सामने राज्यसत्ता छोटी महसूस होती है। सोल्झेनित्सीन के जीवन में ऐसी ही घटनाएँ घटी और अंत में शासन एवं विरोधियों ने उनकी महत्ता को स्वीकार किया।
सन् 1975 से 1977 के बीच कई साहित्यकार एवं कलाकार मीसा के तहत कारावास में बंद हुए थे। उस बंधन एवं मुक्ति के वर्षों में सोल्झेनित्सीन कई विचारकों में स्थापित हुए थे। जोसेफ स्तालिन के क्रूर साम्यवाद से लेकर पुतिन के राष्ट्रवाद तक के रक्तरंजित सफर में कई नाम आये उनमें से एक हैं- एलेक्जन्डर सोल्झेनित्सीन ! यू० एस० एस० आर० विभाजित हो गया है और रशिया में साम्यवाद धराशायी हो गया है। फिर भी मिखाइल गॉर्बाचेव और उनकी 'पेरिस्ट्रोइका' नीति और सोल्झेनित्सीन का उपन्यास 'गुलाग आर्कीपिलेगो' विश्व के इतिहास में यादगार सीमास्तंभ है। अभी ऑगस्ट 2008 के आरंभ में सोल्झेनित्सीन का निधन हुआ।
1918 में उनका जन्म हुआ था। 1974 में उनको उनके लेखन की वजह से हदपारी मिली थी। उससे पहले 1970 में उनको उनके उपन्यासों के आधार पर नोबेल मिला था। ये सारी घटनाएँ उनके जीवन के लिए ही नहीं, अपितु पूरे विश्व में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले हर व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
1994 में रशियन सरकार और प्रजा ने उनको वापस रशिया आने का निमंत्रण दिया। उस समय तक धूर्त एवं अमानवीय साम्यवाद की तरह भौतिकवादी स्पर्धा में जीवन मूल्यों को गुमा देने वाली पश्चिमी सभ्यता के भी गहरे विरोधी हो गये थे। उनका महा उपन्यास 'गुलाग आर्कोपिलेगो' या बाद के उपन्यास 'फर्स्ट सर्कल', 'वन डे इन द लाइफ.....', 'केन्सर वॉर्ड', 'द राइट हेन्ड', 'वर्ड फोर द डेड....' ये सारी कथाएँ पूर्ण रूप से काल्पनिक नहीं हैं। सोवियत रशिया में सामान्य और असामान्य लोगों को जो सजा भुगतनी पड़ी, कर्मचारियों को नौकरियों में से निकाला गया, कइयों की हत्याएँ हुई और कारावास की हाहाकार मचाने वाली दस्तावेजी दास्तान ज्यादा है। उन्होंने लुम्ब्याका जेल का जो वर्णन किया है वह हृदय को हिला देने वाला है। यह वर्णन भारतीयों को भी छू लेता है, क्योंकि 1975 से 1977 तक आपात् कालीन समय में कई लोगों को मीसा के तहत कारावास मिला था। जिनकी खुद की मुक्ति का कोई उपाय नहीं था। कोई न्यायतंत्र भी उनको छुड़ा सकने में असमर्थ था।
'गुलाग आर्कोपिलेगो' का कोई नायक नहीं है। उपन्यास के सभी पात्र दुःख के समुंदर में टूटी हुई नौका लेकर निकले मुसाफिर हैं। समानता के आदर्श के साथ जन्मा वाद - साम्यवाद देखते ही देखते क्रान्ति की जगह जिस प्रकार दमनकारी वाद बन गया, उसकी दास्तान 'आर्कीपिलेगो' में वर्णित है। उपन्यास के शीर्षक का अर्थ ही भयानक कारावासों का द्वीप होता है। रचनाकार ने 225 साक्षियों, सरकारी रिपोर्टी, मुकमों, केजीबी की फाइलों, संस्मरणों, पत्रों और खुद ने भोगी हुई यातनाओं का आलेखन किया है।
वैभवी लेनिन ग्राद से दूर उत्तर में 'गुलाग' द्वीप समूह आये हुए हैं। लेखक, कवि, चित्रकार, इन्जीनियर, वैज्ञानिक आदि को यहाँ जेल की सजा मिलती। एक या दो व्यक्तियों को नहीं, हजारों व्यक्तियों को। वे लोग यहाँ आकर पागल बन जाते या उनकी मृत्यु हो जाती, अगर मुक्ति मिले तो उनका शरीर कंकालवत बन गया होता।
सोल्झेनित्सीन को 1970 में नोबेल मिला। रीझान नगर का घर छूट गया। जहाँ पत्नी नाताल्या के साथ रहते थे। अब वापस आने की मनाई थी। वोर्मेट राज्य के एक फार्महाऊस में रहे। अमरीका को तराशा और बीस साल बाद रशिया वापस आये। अपने प्रिय निवासस्थान त्सोइसे लिकोवो में। मास्को से यह गाँव बहुत दूर नहीं है।
समाज में ओतप्रोत हो जाने की उनकी प्रकृति नहीं थी, किन्तु समस्त रशियावासियों ने उनका भव्य स्वागत किया। प्रथम गॉर्बाचेव और बाद में पुतिन उनको मिलने उनके निवासस्थान पर गये। जिस साहित्यिक पत्रिका 'नॉ वि मीर' ने उनकी आलोचना की थी, उसके ही संपादक ने स्वीकार किया कि "सोल्झेनित्सीन रशियन आत्मा की आवाज हैं।" उन्होंने रशिया में आने के बाद भी स्वाधीन आवाज का एहसास कराया। आधे-अधूरे आर्थिक सुधारों एवं पुंसक नेताओं की अपुंसक नेतागीरी की आलोचना की।
अंत तक उनकी महत्त्वाकांक्षा वोल्गा के तीर रशियन समाज की सुखी एवं खुशनुमा जिंदगी का स्वप्न सच हो रहा था। इसके साथ ही सोल्झेनित्सीन ने 'इझम' के संघर्षों एवं समाप्ति की दुनिया के बाद की दुनिया के बारे में क्या बात कही थी, वह याद करने जैसी है। उनको अमरीका छोड़कर रशिया वापस आना पड़ा, तब 'इन्डिपेन्डेन्ट' के संवाददाता ने कहा कि "अमानवीय साम्यवाद का विकल्प अमरीका का पश्चिमी भौतिकवाद नहीं है। समाज को कोई तीसरा ही रास्ता खोजना पड़ेगा जो मनुष्य को उसके आंतरिक अध्यात्म की ओर ले जाता हो।
प्रस्तुत पुस्तक के अंतर्गत मैंने स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाट्य साहित्य में सुरेन्द्र वर्मा का स्थान और उनके नाटक 'आठवाँ सर्ग' को समीक्षा का विषय बनाया है। प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम प्रकरण में बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार सुरेन्द्र वर्मा के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व का परिचय दिया गया है। साहित्यकार के रूप में उन्होंने हिन्दी साहित्य को जो प्रदान किया है, वह महत्त्वपूर्ण है। वे कहानीकार, उपन्यासकार, एकांकीकार, व्यंग्यकार एवं नाटककार हैं। किन्तु उनका नाटककार उनके साहित्यकार पर हावी है। इसको यहाँ व्यक्त किया गया है।
द्वितीय प्रकरण के अंतर्गत कथ्यगत एवं शिल्पगत दृष्टिकोण से सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों की बात की है। यहाँ प्रमुख स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटकों का परिचय देने का भी प्रयत्न किया है।
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