यह उस विदुषी महिला की जीवनी है, जो औपनिवेशिक भारत के उदास तथा अनिश्चित माहौल में भी लेखन और सामाजिक कार्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के माध्यम से परिवर्तन की बयार बहाने के लिए उभर कर सामने आई प्रतिष्ठित परिवार की सम्मानित, सुसंस्कृत और रचनात्मक विधाओं में निपुण महिला थी।
उनका एक परिचय यह भी है कि स्वर्णकुमारी देवी सुप्रसिद्ध कवि-लेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन थीं। माल 12 वर्ष की अल्प आयु में ही उनका विवाह सम्पन्न हो गया था। ऐसे में समझा जा सकता है कि उन्होंने सामाजिक मुख्यधारा में अपना स्थान किन चुनौतियों का सामना करते हुए बनाया होगा। जब उन्होंने टैगोर परिवार की पत्निका "भारती" का सम्पादन कार्य अपने हाथ में लिया तो वह भारत की पहली महिला सम्पादिका तथा पत्त्रकार के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में सफल हुईं।
पहले बांग्ला और फिर अंग्रेज़ी भाषा के साहित्य की विभिन्न विधाओं और वैज्ञानिक लेखन को समृद्ध करने वाली वह उस काल की पहली महिला थीं जो अपने जीवन के बड़े भाग में औपनिवेशिक काल की चर्चित समाज सुधारक के रूप में भी जानी गईं। स्वर्णकुमारी देवी बंगाल की पहली उपन्यासकार भी थीं। उन्होंने कहानियाँ, नाटक, निबन्ध, व्यंग्य और यात्ता वृत्तान्त भी लिखे। उनके विषय में जितना जानिए, उतना ही विस्मय होता जाता है। वह ब्रिटिश सरकार के दमनात्मक कार्यकलापों का विरोध करती थीं, पर किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध थीं। स्वर्णकुमारी जन जागृति और तार्किकता में विश्वास रखती थीं।
उन्होंने आरम्भिक रूप से ब्रह्मोसमाज, फिर "सखी समिति" तथा महिला शिल्प कला और मेलों के आयोजन से बंगाल की उन महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के प्रयास किए जो उस काल में घर की चारदीवारियों को लाँघने के विषय में सोच भी नहीं सकती थीं। स्वर्णकुमारी को भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना के समय दल की सदस्या बनने का गौरव मिला था। इतिहास में दर्ज है कि स्वर्णाकुमारी घोषाल और डॉ कादंबिनी गंगोपाध्याय को 1889 में बम्बई में आयोजित होने वाले अखिल भारतीय काँग्रेस समिति के सम्मेलन में डेलीगेट चुना गया था। अगले वर्ष कलकत्ता में होने वाले काँग्रेस के राष्ट्रीय सम्मेलन में भी स्वर्णकुमारी देवी ने भाग लिया था। इस सम्मेलन के लिए स्वर्णकुमारी ने कई राष्ट्रवादी गीतों का सृजन किया था जिन्होंने तत्कालीन बंगाली समाज को बहुत प्रेरणा दी। उन्होंने देश के इस पहले राष्ट्रीय दल के राजनीतिक सलों में समय-समय पर आवश्यकतानुसार सक्रिय भाग लिया।
जन्म-जन्मान्तर से चली आ रही यौन उच्चता की भावना ने स्वर्णकुमारी का कम नुकसान नहीं किया। एक बेहतर, प्रगतिशील, शिक्षित तथा समृद्ध परिवार में लेखन का अनुकूल वातावरण मिलने के बावजूद स्वर्णकुमारी की साहित्यिक उपलब्धियों को पितृसत्तात्मक समाज ने उनके घर में ही प्रोत्साहन नहीं दिया, या कहें कि अनदेखा कर दिया। परन्तु स्वर्णकुमारी ने अपने स्वभाव के अनुरूप इसे कोई मुद्दा नहीं बनाया बल्कि अपनी साहित्यिक और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के प्रति लगातार समर्पित बनी रहीं। इन परिस्थितियों और उनसे जूझती स्वर्णकुमारी की प्रतिबद्धताओं का विवरण इस पुस्तक के पन्नों पर अंकित है!
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