महाभारत एक ऐसा मिथक है जो सुदीर्घ अतीत से संबंधित होने पर भी वर्तमान की जटिल परिस्थितियों को समझने एवं अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम है। यह भारतीय संस्कृति का एक ऐसा महा आख्यान है जो शताब्दियों के मध्य पुनर्वर्णित, पुनर्लिखित और पुनर्व्याख्यायित हुआ है। 18 पर्वो में विभाजित इस महाग्रंथ में लगभग एक लाख श्लोक हैं। इतिहास, धर्म, दर्शन, नीति, भूगोल, राजनीति और पुराण तत्त्व के समन्वित रूप का यह एक अद्भुत ग्रंथ है। मनुष्य चरित्रों की वैविधता, मानव स्वभाव के विभिन्न स्वरूप, द्वन्द्वात्मक स्थितियों की विभिन्न जटिलताएँ जितनी इस महा आख्यान में हैं उतनी संभवतः किसी और शास्त्र में नहीं हैं। यही कारण है कि महाभारत हर युग के रचनाकार को अपनी युगीन परिस्थितियों और वैचारिकी की संकल्पना को मूर्त आकार देने में सहयोग प्रदान करता है।
मिथक से तात्पर्य हिन्दी साहित्य में प्रचलित धर्मगाथा से है, लेकिन सिर्फ धर्मगाथा ही नहीं यह शब्द मानस की अवचेतन प्रक्रियाओं और धारणाओं को व्याख्यायित करता है। मिथक के स्वरूप, उसकी सर्जना को लेकर अनेक मत हैं। मानव विज्ञान, समाज विज्ञान एवं मनोविज्ञान के विद्वान अपने मतों के आधार पर इसकी व्याख्या करते हैं लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि मिथक का अटूट सम्बन्ध जातीय संस्कृति एवं सभ्यता के विकास के साथ होता है तथा इसका प्रभाव अवचेतन में बहुत गहराई में रहता है। यही कारण है कि सुदूर अतीत का मिथक बिल्कुल बदली हुई परिस्थितियों में भी रचनाकार की रचना प्रक्रिया में चुपचाप चला आता है और एक नये अर्थ और कलेवर में संचरण कर जाता है। यही कारण है कि आधुनिक रचनाकार बदली हुई परिस्थितियों, बदली हुई वैचारिकी के बीच भी जब अपने समय को पहचानने की कोशिश करता है तो मिथक अवचेतन से बाहर आकर उसे उसके समय से साक्षात्कार करा देता है।
महाभारत एक ऐसा मिथक है जो सुदीर्घ अतीत से संबंधित होने पर भी वर्तमान की जटिल परिस्थितियों को समझने एवं अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम है। यह भारतीय संस्कृति का एक ऐसा महाआख्यान है जो शताब्दियों के मध्य पुनर्वर्णित, पुनर्लिखित और पुनर्व्याख्यायित हुआ है। 18 पर्वो में विभाजित इस महाग्रंथ में लगभग एक लाख श्लोक हैं। इतिहास, धर्म, दर्शन, नीति, भूगोल, राजनीति और पुराण तत्त्व के समन्वित रूप का यह एक अद्भुत ग्रंथ है। मनुष्य चरित्रों की वैविधता, मानव स्वभाव के विभिन्न स्वरूप, द्वन्द्वात्मक स्थितियों की विभिन्न जटिलताएँ जितनी इस महाआख्यान में हैं उतनी संभवतः किसी और शास्त्र में नहीं हैं। यही कारण है कि महाभारत हर युग के रचनाकार को अपनी युगीन परिस्थितियों और वैचारिकी की संकल्पना को मूर्त आकार देने में सहयोग प्रदान करता है।
मिथक और साहित्य का अन्तर्सम्बन्ध, साहित्य सृजन में मिथक की भूमिका, आधुनिक हिन्दी गुजराती, मराठी साहित्य में महाभारत के मिथक की अभिव्यंजना को जानने के लिए दिनांक 12, 13 जनवरी 2013 को महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के हिन्दी विभाग ने उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के संयुक्त तत्वावधान में दो-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया।
भारतीय साहित्य में मिथक की भूमिका, महाभारत के मिथक की ऐतिहासिकता, महाभारत की अद्भुत अन्तः शक्ति, कथ्य और पात्रों का प्रतीकत्व, आधुनिक भाव बोध में महाभारत, भाषा शिल्प में मिथकीय अभिव्यंजना के नवीन अभिगम, मिथकीय कलेवर में रंगमंच का स्वरूप आदि विविध विषयों पर प्रकाश डालने के लिए देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से प्रबुद्ध विद्वान पधारे।
कलकत्ता से पधारे डॉ० शम्भूनाथ ने बीज वक्तव्य में कहा- 'पहले मिथक धर्म की प्रक्रिया से गुजरे, फिर मिथक विज्ञान की प्रक्रिया से गुजरे और अब मिथक बाज़ार से गुजर रहे हैं। धर्म, विज्ञान और बाज़ार इन तीनों ने अलग-अलग तरह से मिथकों की पुनर्रचना की प्रक्रिया को प्रभावित किया है। मिथकों का बाज़ारीकरण हो रहा है, राजनीतिकरण भी हो रहा है। इस वातावरण में यदि हम मिथक का संबंध साहित्य से जोड़ते हैं तो यह एक बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। 'शमशेर सम्मान' एवं 'देवी शंकर अवस्थी' पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के प्रतिष्ठित समालोचक श्री विजय कुमार ने कहा- 'आधुनिक युग में कहा गया कि मध्य युग तक जो बौद्धिक था, यहाँ तक कि 20वीं सदी के आरंभ तक बौद्धिक संस्थानों में बैठे हैं, वेतन भोगी हैं, उनका काम राजा की मर्जी के हिसाब से काम करना है, अपना वेतन लेना है और अपनी मेधा को बेचना है। आधुनिक समय में बौद्धिक का जो पतन हुआ है जिसकी एडवर्ड सईद से लेकर देरिदा तक तमाम लोग बात कह रहे हैं, ये बौद्धिक अपने आप में प्रतिरोध की संस्कृति क्यों नहीं पैदा कर पाता ? उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि बौद्धिक की अपनी कोई जमीन नहीं, वह संस्थान का क्रीत दास बन गया है। नरेश मेहता का 'महाप्रस्थान' पलायन का काव्य नहीं है। वे एक खास तरह का मेटाफर रच रहे हैं।'
कश्मीर से कश्मीरी पंडितों के सामूहिक विस्थापन के बाद 'पनुन कश्मीर' के संस्थापक एवं संयोजक, कश्मीरी पंडितों के अग्रणी नेता प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ० अग्निशेखर ने कहा- 'बहुत सावधानी चाहिए। कवि को हाथ में अंकुश लिये मिथक रूपी हाथी को संचालित करने के लिए महावत बनना पड़ता है... एक ज़रा सी चूक से हाथी उसे पटक कर मसल सकता है। 'महाभारत' इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए कि कैसे महर्षि व्यास ने इस महाग्रंथ को, जो कि जीवन और मृत्यु के विराट आख्यान का एक अद्वितीय महाकाव्य है, रचते हुए अपने को यथा संभव छिपाये रखा। अपने को 'सेलिब्रिटी' नहीं बनने दिया। यह महाकवि एक सही इतिहासकार की तरह खुद को ओझल रखते हुए अपने समय के युगांतरकारी बहु-संस्तरीय घटनाक्रम को, एक से एक महान पात्रों के संघर्ष, विरोध, उनकी जय-पराजय और परिणति, विषाद और त्रासद नियति को ऐसा रच गया कि संसार का शीर्ष कालजयी महाकाव्य संभव हुआ।
प्रो० सितांशु यशस्चन्द्र (गुजरात), प्रो० मिथिला प्रसाद तिवारी (उज्जैन), डॉ० हेतु भारद्वाज (जयपुर), डॉ० रामस्नेही लाल शर्मा (फिरोजाबाद), सुश्री अरुणा ढेरे (वर्धा), डॉ० प्रज्ञा जोशी (अहमदाबाद), श्री रवीन्द्र गोड़बोले (पूना), प्रो० नवनीत चौहान (सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर) प्रो० महेश चंपक लाल (महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा), प्रो० दया शंकर त्रिपाठी (सरदार पटेल विश्वविद्यालय, गुजरात) आदि विद्वानों ने विविध दृष्टियों से साहित्य में मिथक, महाभारत और नयी अभिव्यंजना पर व्याख्यान दिये।
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