प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार का स्याद्वादरत्नाकर व्याख्या के साथ प्रथम प्रकाशन आर्हतमतप्रभाकर कार्यालय, पुण्यपत्तन (पूना) से वीरसंवत् 2453 में हुआ था। इसका वैदुष्यपूर्ण सम्पादन मोतीलाल लाधाजी ने किया था। उसी का पुनर्मुद्रितसंस्करण 1988 ई० में भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ। जैनदर्शन का यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भारतीय दर्शन विशेषकर जैन-दर्शन के अध्येताओं के लिए लम्बे समय से अनुपलब्ध था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली के अध्यक्ष श्री सुभाष चन्द्र जैन एवं उनके सुयोग्य पुत्र चि० दीपक जैन ने इस ग्रन्थरत्न का नवीन कलेवर में पुनर्मुद्रण करा कर भारतीय विद्या को समर्पित किया है। निश्चय ही यह ग्रन्थ न केवल जैनदर्शन के प्रमाणनय और स्याद्वाद को भलीभाँति समझने में अध्येताओं का उपकारक होगा अपितु उक्त विषयों पर समग्र भारतीय दर्शन को भी हृदयङ्गम करने और तुलनात्मक एवं आलोचनात्मक दृष्टि को विकसित करने में अतीव उपयोगी होगा।
प्रथम एवं पुनर्मुद्रित संस्करणों में प्रिंटिंग की अनेक अशुद्धियाँ रह गयी थीं जिनके लिए एक लम्बा शुद्धिपत्र उनके अन्त में संलग्न किया गया था। प्रस्तुत संस्करण में उस कमी को दूर कर यथा-सम्भव शुद्धतम पाठ प्रस्तुत करने का सत्प्रयास किया गया है। फिर भी सम्पादक की अनवधानता किंवा अज्ञानता के कारण त्रुटियों का रह जाना स्वाभाविक है। मानव का स्वभाव ही गलती करना है। अतः सुधी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि छूटी हुई त्रुटियों के सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव देकर अनुगृहीत करेंगे जिससे आगामी संस्करण को और अधिक उपयोगी एवं शुद्धतर बनाया जा सके।
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