'तार सप्तक' में सात युबक कवियों (अथवा कवि-युवकों) की रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ कैसे एक जगह संगृहीत हुई, इसका एक इतिहास है। कविता या संग्रह के विषय में कुछ कहने से पहले उस इतिहास के विषय में जान लेना उपयोगी होगा।
दो वर्ष हुए, जब दिल्ली में 'अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन' की आयोजना की गयी थी। उस समय कुछ उत्साही बन्धुओं ने विचार किया कि छोटे-छोटे फुटकर संग्रह छापने की बजाय एक संयुक्त संग्रह छापा जाये, क्योंकि छोटे-छोटे संग्रहों की पहले तो छपाई एक समस्या होती है, फिर छप कर भी वे सागर में एक बूँद से खो जाते हैं। इन पंक्तियों का लेखक 'योजना-विश्वासी' के नाम से पहले ही बदनाम था, अतः यह नयी योजना तत्काल उसके पास पहुँची, और उसने अपने नाम ('बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा!) के अनुसार उसे स्वीकार कर लिया।
आरम्भ में योजना का क्या रूप था, और किन-किन कवियों की बात उस समय सोची गयी थी, यह अब प्रसंग की बात नहीं रही। किन्तु यह सिद्धान्त रूप से मान लिया गया था कि योजना का मूल आधार सहयोग होगा, अर्थात् उसमें भाग लेने वाला प्रत्येक कवि पुस्तक का साक्षी होगा। चन्दा करके इतना धन उगाहा जायेगा कि काग़ज़ का मूल्य चुकाया जा सके, छपाई के लिए किसी प्रेस का सहयोग माँगा जायेगा जो बिक्री की प्रतीक्षा करे या चुकाई में छपी हुई प्रतियाँ ले ले! दूसरा मूल सिद्धान्त यह था कि संगृहीत कवि सभी ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं-जो यह दावा नहीं करते कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है, केवल अन्वेषी ही अपने को मानते हैं।
इस आधार पर संग्रह को व्यावहारिक रूप देने का दायित्व मेरे सिर पर डाला गया।
'तार सप्तक' का वास्तविक इतिहास यहीं से आरम्भ होता है; किन्तु ज़ब कह चुका हूँ कि इसकी बुनियाद सहयोग पर खड़ी हुई, तब उसकी कमी की शिकायत करना उचित नहीं होगा। वह हम लोगों की आपस की बात है-पाठक के लिए सहयोग का इतना प्रमाण काफी है कि पुस्तक छप कर उसके सामने है !
अनेक परिवर्तनों के बाद जिन सात कवियों की रचनाएँ देने का निश्चय हुआ, उनसे हस्त-लिपियाँ प्राप्त करते-करते साल भर बीत गया; फिर पुस्तक के प्रेस में दिये जाने पर प्रेस में गड़बड़ हुई और मुद्रक महोदय काग़ज़ हजम कर गये। साथ ही आधी पाण्डुलिपि रेलगाड़ी में खो गयी और संकोचवश इसकी सूचना भी किसी को नहीं दी जा सकी।
कुछ महीनों बाद जब काग़ज़ खरीदने के साधन फिर जुटने की आशा हुई तब फिर हस्त-लिपियों का संग्रह करने के प्रयत्न आरम्भ हुए और छह महीनों की दौड़-धूप के बाद पुस्तक फिर प्रेस में गयी। अब छप कर वह पाठक के सामने आ रही है। इसकी बिक्री से जो आमदनी होगी, वह पुनः इसी प्रकार के किसी प्रकाशन में लगायी जायेगी, यही सहयोग-योजना का उद्देश्य था वह प्रकाशन चाहे काव्य हो, चाहे और कुछ। पुस्तक का दाम भी इतना रखा गया है कि विक्री से लगभग उतनी ही आय हो जितनी कि पूँजी उसमें लगी है, ताकि दूसरे ग्रन्थ की व्यवस्था हो सके।
यह तो हुआ प्रकाशन का इतिहास। अब कुछ उसके अन्तरंग के विषय में भी कहूँ।
'तार सप्तक' में सात कवि संगृहीत हैं। सातों एक-दूसरे के परिचित हैं-बिना इसके इस ढंग का सहयोग कैसे होता है? किन्तु इससे यह परिणाम न निकाला जाये कि ये कविता के किसी एक 'स्कूल' के कवि हैं, या कि साहित्य-जगत् के किसी गुट अथवा दल के सदस्य या समर्थक हैं। बल्कि उनके तो एकत्र होने का कारण ही यही है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं, किसी मंज़िल पर पहुँचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं-राही नहीं, राहों के अन्वेषी। उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है-जीवन के विषय में, समाज और धर्म और राजनीति के विषय में, काव्यवस्तु और शैली के, छन्द और तुक के, कवि के दायित्वों के प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है। यहाँ तक कि हमारे जगत् के ऐसे सर्वमान्य और स्वयंसिद्ध मौलिक सत्यों को भी वे समान रूप से स्वीकार नहीं करते जैसे लोकतन्त्र की आवश्यकता, उद्योगों का समाजीकरण, यान्त्रिक युद्ध की उपयोगिता, वनस्पति घी की बुराई अथवा काननबाला और सहगल के गानों की उत्कृष्टता इत्यादि। वे सब परस्पर एक दूसरे पर, एक दूसरे की रुचियों-कृतियों और आशाओं-विश्वासों पर, एक-दूसरे की जीवन-परिपाटी पर और यहाँ तक कि एक-दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हँसते हैं! 'तार सप्तक का यह संस्करण बहुत बड़ा नहीं है, अतः आशा की जा सकती है कि उस के पाठक सभी न्यूनाधिक मात्रा में एकाधिक कवि से परिचित होंगे; तब वे जानेंगे कि 'तार सप्तक' किसी गुट का प्रकाशन नहीं है क्योंकि संगृहीत सात कवियों के साढ़े-सात अलग-अलग गुट हैं, उनके साढ़े सात व्यक्तित्व-साढ़े सात यों कि एक को अपने कवि-व्यक्तित्व के ऊपर संकलनकर्ता का आधा छद्म-व्यक्तित्व और लादना पड़ा है !
ऐसा होते हुए भी वे एकत्र संगृहीत हैं, इसका कारण पहले बताया जा चुका है। काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बाँधता है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि प्रस्तुत संग्रह की सब रचनाएँ प्रयोगशीलता के नूमने हैं, या कि इन कवियों की रचनाएँ रूढ़ि से अछूती हैं या कि केवल यही कवि प्रयोगशील हैं और बाकी सब घास छीलने वाले, वैसा दावा यहाँ कदापि नहीं; दावा केवल इतना है कि ये सातों अन्वेषी हैं। ठीक यह सप्तक क्यों एकत्र हुआ, इसका उत्तर यह है कि परिचित और सहकार-योजना ने इसे ही सम्भव बनाया। इस नाते तीन-चार और नाम भी सामने आये थे, पर उनमें वह प्रयोगशीलता नहीं थी जिसे कसौटी मान लिया गया था, यद्यपि संग्रह पर उनका भी नाम होने से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती ही, घटती नहीं। संगृहीत कवियों में से ऐसा कोई भी नहीं है जिसकी कविता केवल उसके नाम के सहारे खड़ी हो सके। सभी इसके लिए तैयार हैं कि कभी कसौटी हो, क्योंकि सभी अभी उस परमतत्त्व की शोध में ही लगे हैं जिसे पा लेने पर कसौटी की ज़रूरत नहीं रहती, बल्कि जो कसौटी की ही कसौटी हो जाती है।
संग्रह के बहिरंग के बारे में भी कुछ कहना आवश्यक है। इधर कविता प्रायः चारों ओर बड़े-बड़े हाशिये दे कर सुन्दर सजावट के साथ छपती रही है। अगर कविता को शब्दों की मीनाकारी ही मान लिया जाये तब यह संगत भी है। 'तार सप्तक' की कविता वैसी जड़ाऊ कविता नहीं है; वह वैसी हो भी नहीं सकती। ज़माना था जब तलवारें और तोपें भी जड़ाऊ होती थीं; पर अब गहने भी धातु को साँचों में ढाल कर बनाये जाते हैं और हीरे भी तप्त धातु की सिकुड़न के दबाव से बंधे हुए कणों से । 'तार सप्तक' में रूप-सज्जा को गौण मान कर अधिक से अधिक सामग्री देने का उद्योग किया गया। इसे पाठक के प्रति ही नहीं, लेखक के प्रति भी कर्तव्य समझा गया है, क्योंकि जो कोई भी जनता के सामने आता है वह अन्ततः दावेदार है, और जब दावेदार है तो अपने पक्ष के लिए उसे पर्याप्त सामग्री ले कर आना चाहिए। योजना थी कि प्रत्येक कवि साधारण छापे का एक फार्म दे अथवा लेगा; इस बड़े आकार में जितनी सामग्री प्रत्येक की है, वह एक फार्म से कम नहीं है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए मानना पड़ेगा कि 'तार सप्तक' में उतने ही दामों की तीन पुस्तकों की सामग्री सस्ते और सुलभ रूप में दी जा रही है।
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