भूमिका
तालशःच अप्रयानरोन मोक्ष मार्गम् च गच्छति। ताल के अभ्यस्त, आराधक और वादक मोक्ष मार्ग से जीवन व्यतित करते है, यह निर्देश 'याज्ञवल्क स्मृति' बांध में है। सच तो समूचा विश्व एक ही लय तत्त्व पर आधारित है। पृथ्वी एक ही रफ्तार से स्वयं और सूर्य के आवर्तन में घुमती रहती है। इसी रफ्तार के ही हम अटूट अंग है। पृथ्वी की परिक्रमा से दिन-रात, रोशनी-अंधेरा, ग्रीष्म, वर्षा ऋतू आदि बातें घटित होती है। यह ब्रह्मांड की किया हर मनुष्य शरीर में होती है। उसी का नादरूप यानी ताल है। सूर्य, चंद्र, पृथ्वी के आवर्तनात्मक रूप और रफ्तार से भारतीय ताल संकल्पना आवर्तनात्मक स्वीकार की गयी है। भारतीय ताल संकल्पना के खूबी पर ध्यान दे तो अध्यात्म, तत्त्वज्ञान और व्यवहार का सुंदर संयोग भारतीय ताल संकल्पना में कैसे है, इसे समझ सकेंगे। 'ताल' यानी स्थायी बुनियाद। भारतीय ताल सांगीतिक विचारों को स्थिरता प्राप्त करने का माध्यम है। हम सवारी में बैठे और सवारी रफ्तार से जा रही हो फिर भी हम स्थिर होते है। यही बात 'ताल' की है। 'ताल' गायन, वादन और नृत्य को सफलताकारक स्थिरता देता है और उसे चेतना प्रदान होती है। उसी कारण ताल चेतना का निचोड है। स्वाती ऋषी को वर्षा की बूँदै कमल (पुष्प) के पत्तों पर गिरती हुई दिखाई दी। उसी से उन्हें लय और मन को एकाग्र करनेवाली गति ज्ञात हुई। उस गति को थामने के लिए पुष्कर वाद्य का निर्माण उन्होंने किया, यह दंतकथा है। 'ताल' का जिन्होंने सूक्ष्मता से अभ्यास किया है, पैसे तपस्वीयों को जीवन के अनुराग से मुक्ति मिल गयी। इसी के आधार पर 'तालज्ञों' को 'मोक्षमार्गी साधक' कहां जाता है। गायन और नृत्य की अपेक्षा तालवाय की महानता उसकी सूक्ष्मता तथा भावर्तन प्रक्रिया के बाद कल्पक रूप से निर्माण होनेवाले परिवार के कारण है। गायन-वादन में साथसंगत करते समय तबला वादक के बीच में ही एखाद सुंदर बोल बजाने पर रसिक श्रोता उत्कंठित होकर तालियाँ बजाते हैं। कई सुरों के या हस्तमुद्राओं की सहायता से निर्माण होनेवाले रसों की उत्पत्ति की अपेक्षा एक ही सूर से और भिन्न-भिन्न अक्षरों के संबोधन से अलग-अलग अर्थपूर्ण आकृतिबंध निर्माण कर उससे रस की अनुभूति देना बडा अद्भुत है। भ्रमूर्तकार्य विभिन्न आकृतिबंध तथा नादमधूर निकास यह ताल वादन के तीन प्राण है। किसी भी कला की प्रमुख तीन बातें होती है। 1) content (साहित्य), 2) form (रूप), 3) [removed]अभिव्यक्ति)। इन तीन बातों का बडे विस्तृत तौर पर विचार हुआ हैं। कायदा, पेशकार, चक्रदार, गत, परन, रेला आदि रचनाएँ तबला वादन के बलस्थान हैं। तबला वादन का साहित्य समृद्ध करने का बड़ा काम विगत डेढ सो सालों में उ. हाजी विलायत, उ. मोदू खाँ, उ, बक्षु खाँ, उ. चुडियाँवाले इमामबक्श, उ. मुनीर खाँ, पं. भैरव सहाय, उ. अमीर हुसेन खाँ, उ. अहमद जान थिरकवा आदि पूज्य वादकों ने किया है। इसी विरासत को शुरु रखने का काम पं. अरविंद मुळगांवकर ने किया है। तबले की उत्पत्ति और नादसौंदर्य का बड़ा रोचक विचार उन्होंने तबला वादन में किया है। कई ख्यातनाम शिष्य उन्होंने तैयार किए है। श्री. आमोद दंडगे उनकी शिष्यपरंपरा में से एक अभ्यासक और समीक्षक शिष्य है। उन्हें पं. अरविंद मुळगांवकर जी ने तालीम तो दी है, किंतु तबला वादन में स्थित सौंदर्य, वादन में निकास का महत्त्व तथा रचनाकौशल्य को भी स्पष्ट कर दिया। आमोद जी कई सालों से निस्वार्थ भाव से विद्यादान कर रहे है। कोल्हापुर, णे, मुंबई में उनके कई अनुयायी तो है ही, मगर विदेशों में भी उन्होंने अपने राष्यों के माध्यम से भारतीय तबला मशहूर किया
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