वेद के छः अङ्गों में ज्योतिष शास्त्र एक प्रमुख अंग है। यह (ज्योतिष) वेद का प्रधान अंग चक्षु माना जाता है। वेद के छ अंगों के रूप में भिन्न-भिन्न शास्त्रों को अलग-अलग अंगों में स्वीकार किया गया है, जैसे शिक्षा-नासिका, व्याकरण-मुख, छन्दशास्त्र-पाद इत्यादि। इस सम्बन्ध में ज्योतिष शास्त्र के मूर्धन्य विद्वान् भास्कराचार्य जी कहते हैं:-
वेदश्चक्षुः किलेदं ज्योतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते । संयुतोपीतरैः कर्णनासादिभिः चक्षुषाङ्गेन हीनो न किञ्चित्करः ॥
अपरिमित विशाल गगनमण्डल में जितने भी तेजोमय विम्ब दृष्टिगोचर होते हैं वे सभी समष्टि रूप में ज्योति शब्द से जाने जाते हैं। उनमें भी जो सदैव एक रूप में रहते हैं वे नक्षत्र कहलाते हैं। जो प्रतिदिन भिन्न-भिन्न गति से संचरण करते हैं वे ग्रह कहलाते हैं। इस प्रकार ज्योतिः से ज्योतिष शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण के नियम से होती है। ज्योतिः शब्द से अर्श आदि होने से मत्वर्थीय अच् प्रत्यय अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः ज्योतिषः ऐसा सिद्ध होता है। इस प्रकार नक्षत्र-ग्रह-तारा आदि ज्योतिपिण्डों की स्थिति, गति तथा प्रभाव आदि का वर्णन करने वाला शास्त्र ही ज्योतिष शास्त्र के नाम से पुकारा जाता है, जो कि सूर्यसिद्धान्त आदि के रूप में है।
तदधीते तद्वेद इस व्युत्पत्ति में क्रतुत्थादिगणपठित होने से ठक प्रत्यय होकर ज्यौतिषिकः ऐसा शब्द बनता है, अण प्रत्यय करने पर ज्यौतिषी भी बनता है। कुछ लोग ज्योतिंषि अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः इस व्युत्पत्ति के अनुसार ज्योतिष शास्त्र भी मानते हैं। वस्तुतः ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम् अर्थात् सूर्यादि ग्रह और काल के बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है, यही संक्षिप्त परिभाषा है। इसमें प्रधानतः ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि ज्योतिपदार्थों का स्वरूप, संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थितिप्रभृति समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह, नक्षत्रों की गति, स्थिति, संचार के अनुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है।
कुछ विद्वानों का अभिमत है कि गगनमण्डल में स्थित ज्योतिसम्बन्धी विविध विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं। जिस शास्त्र में इस विद्या का सांगोपाङ्ग वर्णन रहता है, वह ज्योतिष शास्त्र कहलाता है। यह शास्त्र सिद्धान्त, संहिता और होरा के भेद से तीन स्कन्धों में विभक्त है, इसीलिए यह त्रिस्कन्ध ज्योतिषशास्त्र के नाम से जाना जाता है। उनमें से पहला सिद्धान्तस्कन्ध गणित ज्योतिष के नाम से प्रसिद्ध है। यह गणित भी ग्रहगणित, पाटी गणित और बीजगणित के भेद से तीन प्रकार का होता है।
ब्रह्मा, वशिष्ठ, सोम और सूर्य नाम के आचार्य गणित ज्योतिष के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनके पश्चात् आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, कमलाकर भट्ट आदि आचार्य आते हैं। आर्यभट्ट का आर्षसूर्यसिद्धान्तः आर्यभट्टीयम्, ब्रह्मगुप्त का ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त, वराहमिहिर की पञ्चसिद्धान्तिका, भास्कराचार्य का सिद्धान्त-शिरोमणि और कमलाकर भट्ट का सिद्धान्ततत्त्वविवेक इस स्कन्ध के प्रामाणिक ग्रन्थ हैं।
संहितास्कन्ध-इस स्कन्ध में कालचक्र एवं मुहूर्त आदि की विवेचना की गई है।
इस स्कन्ध के प्रवर्तक यद्यपि ऋषिगण हैं, तथापि वार्हस्पत्य, काश्यप, नारद आदि संहितायें ही इस समय दृष्टिगत होती हैं। यों तो बहुत से महर्षि संहिताओं के रचयिता के रूप में स्मृति-पटल पर आरूढ़ होते हैं फिर भी आचार्य वराहमिहिर की वृहत्संहिता को ही संहितास्कन्ध का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है।
होरास्कन्ध-होरास्कन्ध, जातक शास्त्र और ताजिक शास्त्र के भेद से दो प्रकार का होता है। इसी को फलित ज्योतिष के नाम से व्यवहार में लाया जाता है। आचार्य वराहमिहिर का बृहज्जातक और आचार्य नीलकण्ठ की ताजिकनीलकण्ठी इस विषय के प्रामाणिक ग्रन्थ हैं। तस्मात् यह होराशास्त्र व्यवहार शास्त्र के रूप में जनता द्वारा अत्यधिक सम्मानित है, क्योंकि यह शास्त्र प्रत्यक्ष रूप से जनता का उपकार करता है। इस प्रकार शास्त्रदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से सर्वाधिक उपयोगी होने के कारण यह शास्त्र वेदाङ्गों में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होता है। जैसा की लगध मुनि ने कहा भी है-
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्नि संस्थितम् ॥
इसी प्रकार मुहूर्तज्ञान, दिशा का ज्ञान, तिथि, वार, नक्षत्र आदि का ज्ञान भी ज्योतिष शास्त्र से ही होता है, जिस ज्ञान के विना व्यवहार ही सिद्ध नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि इस शास्त्र का ज्ञान व्यवहार जगत में अपरिहार्य है। तभी तो लगध मुनि स्वयं कहते हैं-
प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राकौं यस्य साक्षिणौ।
वेद द्वारा प्राप्त होने पर भी यह ज्योतिष शास्त्र सर्वत्र अपना अधिकार कायम किये है, जिससे इसकी अक्षुण्णता सिद्ध होती है। ग्रहण के विषय में, ग्रहस्थिति के विषय में, पृथिवी के स्वरूप-गति के विषय में भी इस शास्त्र में मौलिक सिद्धान्त सर्वसिद्ध हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि सकल शास्त्रों के उपकारक और जगद्व्यवहारप्रवर्तक भी जो है, वही ज्योतिष शास्त्र है। ग्रह आदि की स्थिति, गति आदि का शासन करने वाला होने से इसका शास्त्र होना अक्षुण्ण है।
ज्योतिष शास्त्र का विकास
अन्य शास्त्रों की भाँति ज्योतिष शास्त्र भी अनेकों अवस्थाओं को पार कर कालक्रम से इस अवस्था को प्राप्त हुआ है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की इच्छा मानव की मौलिक प्रवृत्तियों में से एक है। जैसे खाना चाहता हूँ, पीना चाहता हूँ, खेलना चाहता हूँ, अपने को प्रकट करना चाहता हूँ-ऐसा चाहता हुआ मानव अपने और दूसरों को भी समझना चाहता है। जिज्ञासा ही ज्ञान का आविष्कार करती है। इस तरह ग्रह-नक्षत्रविषयक जिज्ञासा ही ज्योतिष शास्त्र के आविष्कार का कारण है।
अन्य व्यवहारों में तो पशु के समान मानव भी अनादिकाल से दिन-रात अयन के सम्बन्ध में कुछ न कुछ जानता ही था। मानव सूर्य, चन्द्रमा, तारा, ग्रह नक्षत्र आदि को देख कर भले ही उनकी विशेषता न जानता रहा हो, फिर भी उनकी स्थिति को लेकर कुछ न कुछ चिन्तन अवश्य ही किया करता था। वही चिन्तन वैदिक संहिताओं में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। बाद में नवीन नवीन अनुभव की समायोजना लौकिक ग्रन्थों में भी की गई है। इसलिए ज्योतिष शास्त्र का विकास पाँच अवस्थाओं में विभक्त दिखाई पड़ता है। जैसे प्राग्वैदिक काल, वैदिक संहिता काल, वेदाङ्ग काल, सिद्धान्त काल और आधुनिक काल अथवा शब्दान्तर में अज्ञातकाल, आदिकाल, पूर्वमध्य काल, उत्तरमध्य काल और आधुनिक काल। वैदिक संहिताओं में जैसा ज्योतिष का स्वरूप देखने में आता है उसके आधार पर हम अनुमान कर सकते हैं कि उसके पूर्व भी ज्योतिष का कोई स्वरूप सुनिश्चित था। ऋग्वेद के समय से लेकर लगध मुनि के समय तक के काल को वैदिक काल माना जाता है।
यद्यपि वेदों का अपौरुषेयत्व और अनादिनिधनत्व सभी स्वीकार करते हैं तथापि हमारा तात्पर्य उन मन्त्रों के संग्रह मात्र से है, न कि प्रणयन या प्रवचन से। इसलिए ऋग्वेद का काल वही है। जब-जब जो ऋचायें इस समय उपलब्ध हैं उन ऋचाओं का संग्रह काल ही है न कि रचना काल। लगध मुनि के वेदाङ्ग ज्योतिष के आरम्भ से ही पूर्व मध्यकाल का उदय होता है। साथ ही आर्यभट्ट का आर्यभट्टीय आविर्भाव भी होता है।
इसी काल में सिद्धान्तों को स्थिर करने के लिए ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभाजित कर दिया गया। इस काल की विशेषता यह है कि इसी काल में पञ्चाङ्ग का आविर्भाव हुआ। यह समय आर्यभट्ट से लेकर कमलाकरभट्टपर्यन्त चलता है। इस काल के विशिष्ट विद्वान् हैं-आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, कमलाकरभट्ट आदि।
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