Easy Returns
Easy Returns
Return within 7 days of
order delivery.See T&Cs
1M+ Customers
1M+ Customers
Serving more than a
million customers worldwide.
25+ Years in Business
25+ Years in Business
A trustworthy name in Indian
art, fashion and literature.

तत्त्वार्थवार्तिक: Tattvartha-Vartika (Rajavartika) of Sri Akalankadeva (Part- 1)

$20.25
$30
10% + 25% off
Includes any tariffs and taxes
Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Edited And Translated By Mahendra Kumar Jain
Language: Sanskrit Only
Pages: 449
Cover: HARDCOVER
10.5x7.5 inch
Weight 970 gm
Edition: 2016
ISBN: 978812634040
HBX521
Delivery and Return Policies
Usually ships in 3 days
Returns and Exchanges accepted within 7 days
Free Delivery
Easy Returns
Easy Returns
Return within 7 days of
order delivery.See T&Cs
1M+ Customers
1M+ Customers
Serving more than a
million customers worldwide.
25+ Years in Business
25+ Years in Business
A trustworthy name in Indian
art, fashion and literature.
Book Description

सम्पादकीय

आचार्य भट्टः अकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थवार्तिक का प्रथम संस्करण दो जिल्दों में भारतीय ज्ञानपीठ से १६५३-५७ में प्रकाशित हुआ था। (स्व.) पं. महेन्द्रकुमार जैन ने इसका सम्पादन किया था।

भट्ट अकलंक एक प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् थे। उनके सम्बन्ध में हमने 'न्यायकुमुदचन्द्र' के प्रथम भाग की प्रस्तावना में विस्तार से प्रकाश डाला है। स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन के पश्चात् उन्हीं की प्रभावक कृतियों ने जैन वाड्मय को समृद्ध बनाया था। उन्हें जैन न्याय के सर्जक कहे जाने का सौभाग्य प्राप्त है। उनके नाम के आधार पर जैन न्याय को अकलंक न्याय भी कहा गया है।

प्रभाचन्द्र के गद्य 'कथाकोश', ब्रह्मचारी नेमिदत्त के 'कचाकोश' और कन्नड़ भाषा के 'राजबलिकये' ग्रन्थों में अकलंक की कथाएँ मिलती हैं। 'कथाकोश' के अनुसार, अकलंक की जन्मभूमि मान्यखेट थी और वहाँ के राजा प्रभुतुंग के मन्त्री पुरुषोत्तम के वे पुत्र थे। अकलंक के 'तत्त्वयार्थवार्तिक' के प्रथम अध्याय के अन्त में एक श्लोक पाया जाता है। उसमें उन्हें लघुहव्य नृपति का पुत्र कहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे दक्षिण भारत के निवासी थे। कथाओं में दिये गये नगरों के नामों से भी इसका समर्थन होता है।

'राजबलिकये' आदि के आधार पर राइस सा. ने अकलंक देव का जीवन-वृत्तान्त लिखा था।' उन्होंने लिखा है कि जिस समय कांची में बौद्धों ने जैनधर्म की प्रगति को रोक दिया था, उस समय अकलंक, निकलंक ने गुप्तरीति से बौद्धगुरु से पढ़ना शुरू किया था। गुरु को उन पर सन्देह हो गया और उन्हें मारने का निश्चय किया तो दोनों भाग निकले। निकलंक मारे गये और अकलंक बच गये। उन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुर के देशीयगण का आचार्य पद सुशोभित किया। उस समय अनेक मतों के आचार्य बौद्धों से बाद-विवाद में हारकर दुःखी हो रहे थे। उनमें से वीरशैव सम्प्रदाय के लोग आचार्य अकलंक देव के पास आये और उनसे सब हाल कहा। इस पर अकलंक देव ने शास्त्रार्थ में बौद्धों पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया।

शास्त्रार्थ में हारने पर बीद्ध बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने अपने राजा हिमशीतल को इस बात के लिए उत्तेजित किया कि अकलंक को इस शर्त के साथ उनसे वाद करने को बुलाया जाये किं जो कोई वाद में हारे उसके सम्प्रदाय के सारे लोग कोल्हु में पिलवा दिये जायें। उस वाद में जैनों की विजय हुई। राजा ने बौद्धों को कोल्ड में पिलवा देने की आज्ञा दे दी, परन्तु अकलंक की प्रार्थना पर वे सब बौद्ध सीलोन के एक नगर कैंडी को निर्वासित कर दिये गये।

हिमशीतल की सभा में अकलंक के शास्त्रार्थ और बौद्धों की देवी तारा की पराजय का उल्लेख श्रवणबेलगोल की मल्लिषेण प्रशस्ति में भी है। उसमें राजा साहसतुंग की सभा में अकलंक के जाने का और वहाँ आत्मश्लाघा करने का भी वर्णन है। प्रशस्ति के श्लोक इस प्रकार हैं-

तारा येन विनिर्जिता घटकुटी-गूढ़ावतारा समं

बौद्धेर्यो धृत-पीठ-पीडित-कुदृग्देवार्थ-सेवाञ्जलिः ।

प्रायश्चित्तमिवाङ्घ्रिङ्वारिज-रजःस्नानं च यस्याचरद्

दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलङ्कः कृती ॥

चूर्णिः- यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्यनिरवद्यविद्याविभवोपवर्णनमाकण्र्ण्यते-

राजन् साहसतुंग सन्ति बहवः श्वेतातपत्राः नृपाः किन्तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः। तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ॥१॥

राजन् । सर्वारिदर्पप्रविदलनपटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्ध-स्तद्वत्ख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिलमदोत्पाटने पण्डितानाम् । नोचेदेषोऽहमेते तव सदति सदा सन्ति सन्तो महान्तो वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् ॥२॥

नाह‌ङ्कारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा कैवर्ल नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धयया मया। राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो बीडीघान् सकलान् विजित्य सुगतः (स घटः) पादेन विस्फोटितः ॥३॥ अर्थात् जिसने गुप्तरूप से घट में अवतारित तारादेवी को बोद्धों सहित परास्त किया, सिहासन के भाग से पीडित मिव्यादृष्टि देवों ने भी जिसकी सेवा की, और मानो अपने दोषों का प्रायश्चित्त करने के लिए ही बौद्धों ने जिसके चरण-कमल की रज में स्नान किया, उस कृति अकलंक की प्रशंसा कौन नहीं कर सकता है ?'

सुना जाता है कि उन्होंने अपने असाधारण निरवद्य पाण्डित्य का वर्णन इस प्रकार किया था-

'राजन् साहसतुंग। श्वेतछत्र के धारण करनेवाले राजा बहुत से हैं, किन्तु आपके समान रणविजयी और दानी राजा दुर्लभ हैं। इसी तरह पण्डित तो बहुत से हैं, किन्तु मेरे समान नानाशास्त्रों के जाननेवाले कवि, वादी और वाग्मी इस काल में नहीं हैं। राजन्, जिस प्रकार समस्त शत्रुओं के अभिमान को नष्ट करने में आपका चातुर्य प्रसिद्ध है, उसी प्रकार विद्वानों के मद को जड़मूल से उखाड़ फेकने में में पृथ्वी पर ख्यात हूँ। यदि ऐसा नहीं है तो आपकी सभा में बहुत से विद्वान् मौजूद हैं; उनमें से यदि किसी की शक्ति हो और वह समस्त शास्त्रों का पारगामी हो तो मुझसे शास्त्रार्थ करे।

राजा हिमशीतल की सभा में समस्त विद्वानों को जीतकर मैंने तारादेवी के घड़े को पैर से फोड़ दिया। सो किसी अहंकार या द्वेष की भावना से मैंने ऐसा नहीं किया, किन्तु नैरात्म्यवाद के प्रचार से जनता को नष्ट होते देखकर करुणा-बुद्धि से ही मुझे वैसा करना पड़ा।'

उक्त प्रशस्ति का 'तारा येन विनिर्जिता' आदि श्लोक तो प्रशस्तिकार का ही रचा हुआ प्रतीत होता है। किन्तु शेष तीन पद्य पुरातन हैं और प्रशस्तिकार ने उन्हें जनश्रुति के आधार पर प्रशस्ति में सम्मिलित किया है। इससे कथाओं में वर्णित अकलंक के शास्त्रार्थ की कथा-प्रशस्ति-लेखन का समय शक सं. १०५० से भी प्राचीन प्रमाणित होता है।

श्रवणबेलगोल के एक अन्य शिलालेख में भी अकलंक का स्मरण इस प्रकार किया गया है-

भट्टाकल‌ङ्कगोऽकृत सौगतादिदुर्वाक्यपङ्कः सकलङ्कभूतम् । जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ समन्तादकल‌ङ्कमेव ॥२१॥

- विन्ध्यगिरि पर्वत का शिलालेख नं. १०५

अर्थात् बौद्ध आदि दार्शनिकों के मिथ्या उपदेशरूपी पंक से सकलंक हुए जगत् को मानो, अपने नाम को सार्थक बनाने के लिए ही, भट्टाकलंक ने अकलंक कर दिया।

कुछ ग्रन्थकारों ने भी अकलंक को बौद्ध-विजेता के रूप में स्मरण किया है। बादिराज सूरि अपने 'पार्श्वनाथचरित' (शक सं. ६४८) में लिखते हैं-

'तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधीः ।

जगद् द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः ॥

अर्थात्-वे तार्किक अकलंक जयवन्त हों, जिन्होंने जगत् की वस्तुओं के अपहर्ता अर्थात् शून्यवादी बौद्ध दस्युओं को दण्ड दिया।

'पाण्डवपुराण' में तारादेवी के घड़े को पैर से ठुकराने का उल्लेख इस प्रकार है-

'अकल‌ङ्कोऽकलङ्ङ्कः स कली कलयतु श्रुतम् ।

पादेन ताडिता येन मायादेवी घटस्थिता ॥'

अर्थात्-कलिकाल में वे कलंक रहित अकलंक श्रुत को भूषित करें, जिन्होंने घट में बैठी हुई माया-रूपधारिणी देवी को पैर से ठुकराया। 'हनुमच्चरित' में कहा है-

'अकलङ्ङ्कगुरुर्जीयादकलङ्कपदेश्वरः ।

बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षागुरुरुदाहतः ॥'

अर्थात् अकलंक पद के स्वामी वे अकलंक गुरु जयवन्त हों, जो बौद्धों की बुद्धि को वैधव्य की दीक्षा देनेवाले गुरु कहे जाते हैं।

अकलंकदेव रचित 'न्यायविनिश्चय' के टीकाकार वादिराज ने उन्हें 'तार्किकलोकमस्तकमणि' लिखा है। अकलंकदेव के 'लघीयस्त्रय' पर 'न्यायकुमुदचन्द्र' के रचयिता प्रभाचन्द्र ने उन्हें इतर मतावलम्बी वादीरूपी गजेन्द्रों का दर्प नष्ट करनेवाला सिंह बतलाया है। 'अष्टसहस्री' के टिप्पणकार लघु समन्तभद्र ने उन्हें 'सकलतार्किक-चूडामणिमरीचिमेचकितचरणनखकिरणो भगवान् भट्टाकलंकदेवः' लिखकर उनके प्रति अपनी गहरी श्रद्धा प्रकट की है।

Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at help@exoticindia.com
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through help@exoticindia.com.
Add a review
Have A Question
By continuing, I agree to the Terms of Use and Privacy Policy
Book Categories