भारतीय स्थापत्य और कला को जानने के लिये मन्दिर सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर हैं। इनमें ज्ञान, अध्यात्म के साथ कला, लेख और उच्च आदर्श सोच का मिश्रण होता है। भारत देश में अभी भी कई ऐसे मन्दिर हैं जिनका स्थापत्य और गूढ़ विज्ञान जानना शेष है।
राजस्थान में 8वीं से 16वीं सदी के अनेक ऐसे मन्दिर हैं जिन पर अनुसंधान हो रहे है। इसी राजस्थान के दक्षिण-पूर्व का भू-भाग हाड़ौती प्रदेश कहलाता है। इस प्रदेश में गुप्तकाल से लेकर प्रतिहार और परमारकाल तथा राजपूत युग तक के अनेक ऐसे मन्दिर हैं जिन पर अभी तक ना तो गम्भीर विमर्श हुआ है और ना ही शोधकार्य। यद्यपि कुछ देशी विदेशी शोधकर्ता इस ओर आकर्षित हुए हैं परन्तु हाड़ौती के इन मन्दिरों पर उतना कार्य नहीं हो पाया जो आमजन और विद्वानों, पुराविदों तक पहुँच पाया हो। हाड़ौती के कोटा, बूँदी, बाराँ और झालावाड़ में अनेक ऐसे मन्दिर है जो भारतीय और राजस्थान की मन्दिर श्रृंखला में अपने उत्कृष्ट स्थापत्य और कला शिल्प के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं, परन्तु उपेक्षा के कारण ये अपना प्रभाव स्वयं में समेटे रह गये हैं।
आज की सदी में इन धरोहरों को बचाने और उनके बारे में जानने तथा उनके पर्यटनिक महत्व को उजागर करने का समय है। यदि यह सम्भव हो जाये तो हाड़ौती के मन्दिरों का स्थापत्य और शिल्प कला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होकर ना केवल सुरक्षित हो सकती है वरन वहाँ शोधार्थी और पर्यटक भी आ सकते हैं। दीर्घावधि से हाड़ौती की राज्यकालीन स्थितियों, राजा, सामन्तों और चित्रकलाओं पर अनेक शोध हुए और उन पर ग्रन्थों का भी प्रकाशन हुआ, परन्तु हाड़ौती के मन्दिरों पर अभी तक गम्भीर शोधकार्य ना होना एक चिन्तनीय पक्ष है।
हाड़ौती के इन मन्दिरों पर एक शोधकार्य अवश्य हुआ है और उसका प्रकाशन भी "हाड़ौती मन्दिर स्थापत्य और शिल्प कला" की समृद्ध विरासत के रूप में कोटा की पुराविद् डॉ. सुषमा आहूजा ने किया है। परन्तु यह प्रकाशन काफी महँगा होने से आमजन व शोधार्थी की पहुँच से दूर का रहा है और इसमें अनेक मन्दिरों पर तो काफी गम्भीर विमर्श है, परन्तु अनेक मन्दिरों, उर्णा, कोलाना, गड़गच, कंवलेश्वर, भीमगढ़, काकूनी, सूरश्याम, चाँदखेड़ी, जिछालस, बाँसधूनी, छिनहारी, पिनहारी, नागदा, खोखागढ़, बनियानी, हरिपुरा, बोडी के मन्दिरों पर अत्यल्प सामग्री है। उक्त स्थलों के मन्दिरों पर मात्र कुछ ही पंक्तियाँ लिखी गई हैं, जिस कारण इनका सम्यक् स्थापत्य व शिल्पकला का परिचय उभर कर समक्ष नहीं आ पाया है। अतः इनकी जानकारी हाड़ौती में अपेक्षित होने से उक्त पुस्तक में यह कार्य अधूरा रहा लेकिन यह अवश्य है कि डॉ. सुषमा आहूजा ने हाड़ौती के जिन मन्दिरों भीमचौरी, आँवा, आँ मानसगाँव, झालरापाटन, केशवराय, चारचौमा, कंसुवा, भण्डदेवरा आदि का जो वर्णन रेखांकित किया है उनमें उन्होंने कालक्रम तथा अन्य मन्दिरों से उनका तुलनात्मक अध्ययन किया है।
इसी क्रम में मैंने भी हाड़ौती के इन देव मन्दिरों की शोधयात्रा अपने उन स्थलों के मित्रों के साथ की तथा प्रत्येक मन्दिर के स्थापत्य को गहराई से देखा, परखा और जाना तथा यह भी पता लगाने का प्रयास किया कि उन मन्दिरों में से ले जाई गई मूर्तियाँ अब कहाँ हैं? और उन्हें कैसे देखें जाकर, मन्दिर का पूर्ण स्थापत्य और प्राचीनकला को जानकर समझा जा सके, क्योंकि मन्दिर से निकाली गई या ले जाई गई मूर्तियों का अध्ययन भी करना ही उस मन्दिर के समग्र स्थापत्य को जानना है।
मैंने इसी क्रम में अनेक उन मन्दिरों को भी देखा जिनके बारे में उक्त विद्वान लेखिका ने अत्यल्प लिखा था और उनका अधिकांश विवरण देने का प्रयास किया है। इस प्रकार हाड़ौती में अनेक उन मन्दिरों को भी इस पुस्तक में सचित्र समाहित करने का प्रयास किया है जो अभी तक पुरातत्वविदों और शोधार्थियों की नजरों से दूर थे।
हाड़ौती में गुप्तकाल से प्रतिहार, परमार और राजपूत काल के मन्दिर हैं जो आज समय के साथ उपेक्षित हो गये, परन्तु इनमें से कुछ ऐसे मन्दिर हैं जिनमें सतत् पूजा अर्चना होने से उनका स्थापत्य, शिल्प अभी भी बचा है, परन्तु जो पूजाविहीन हैं वे विभागीय संरक्षण उचित तरीके से ना होने के कारण आमजन और शोधार्थी तथा पर्यटकों से दूर है। बस इन सभी का गम्भीर कला अध्ययन इस पुस्तक में किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन का उद्देश्य क्षेत्रीय मन्दिरों के सर्वेक्षण व उनके स्थापत्य तथा कला-मूर्तियों के वैशिष्टय से परिचित कराना है, जिससे इनके महत्व को आमजन तक पहचाना जाये। पुस्तक में मन्दिरों के स्थापत्य के साथ उनकी मूर्तियों का भी यथास्थान परिचय रेखांकित किया गया है। पुस्तक में मन्दिरों का पुरातत्व सम्मत इतिहास के साथ मन्दिर के पारिभाषिक शब्द तथा उनके अर्थ, मूर्तियों की स्थितियाँ भी दी हुई हैं।
जिन्हें पढ़कर मन्दिर के स्थापत्य व मूर्तियों के बारे में सामान्य जानकारियाँ आसानी से समझ में आ सकें और शोधार्थी, पर्यटक और पाठक उन मन्दिरों की निर्माण शैली तथा उनके विभिन्न कला स्तर को जान सकें। पुस्तक में, बूँदी, कोटा, बाराँ और झालावाड़ जिले के उन विद्वान मित्रों का मैं हृदय से अनुग्रहित हूँ जिन्होंने स्थान विशेष पर मेरे साथ जाकर मुझे अध्ययन कराया और अनेक अज्ञात सूत्रों से परिचित कराया। इस कारण यह पुस्तक बन पायी।
पुस्तक लेखन व हाड़ौती के स्थलों, मन्दिरों की यात्रा में पूरी व्यवस्था मेरी पत्नी गांयत्री शर्मा ने सुव्यवस्थित तरीके से संभाली तथा पुत्री तितिक्षा शर्मा ने पुस्तक की योजना को अकादमिक रूप में लेखन हेतु आवश्यक विचार-विमर्श किया, उसके लिए वे हार्दिक आभार के पात्र हैं।
पुस्तक को टंकित करने का तथा उसे व्यवस्थित रूप से सजाने का कार्य मित्र लक्ष्मीकान्त पहाड़िया (पहाड़िया कम्प्यूटर, झालावाड़) ने किया तदर्थ वे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं।
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