प्रस्तुत पुस्तक में भारत के वृहद क्षेत्र, यथा पूर्वी मध्यप्रदेश (5वीं शता. ई-13वीं शता. ई.) को उपयुक्त मानकर तत्कालीन परिवेश में समाहित निदृष्ट क्षेत्र की राजनैतिक पृष्ठभूमि, कला स्थापत्य (Art & Architecture) परम्पराओं में क्रमशः बौद्ध, जैन व हिन्दू स्थापत्य से सम्बन्धित 'मूर्तिशिल्प (Sculpture), यथा स्तूप, विहार, चैत्य, मढ़ व मंदिरों के अतिरिक्त शैव प्रतिमाओं में सौम्प, शान्त रौद्र, नटराज, त्रिमूर्ति, अर्द्ध-नारीश्वर एवं कल्याण सुन्दर। "वैष्णव प्रतिमाओं" में दशावतार एवं अन्य विशिष्ट रूप, सूर्य, रेवन्त, अष्ट दिकपाल, नवग्रह तथा 'शाक्तप्रतिमाओं" में महिषासुर मर्दिनी, पार्वती, सरस्वती व सप्त मातृकाओं आदि का वैज्ञानिक ढंग से साहित्यिक प्रस्तुतिकरण किया गया है. जो अतीत का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत करती हैं। विषय वस्तु के सन्तुलित समायोजन को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश के मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य को सैद्धान्तिक पूर्वाग्रहों से दूर रखकर वैज्ञानिक ढंग से तथ्यात्मक शैली में प्रस्तुतिकरण किया गया है। पुस्तक के संरचनात्मक पक्ष को क्रमशः सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक आयामों में सुनियोजित ढंग से लिपिबद्ध किया गया है, जिससे प्राचीन भारतीय संस्कृति की निरन्तर पहचान बनी रहे। सम्भवतः बृहद क्षेत्र पर आधारित उपरोक्त लेखन कार्य ग्रन्थ की समग्रता को प्रमाणित करती है। पुस्तक की भाषा सरल, बोधगम्य व प्रभाव पूर्ण है। मंदिर, मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य का वैज्ञानिक विश्लेषण रुचिकर है। सर्वेक्षण, पुरावशेषों, मानचित्रों, छायाचित्रों व सन्दर्भ ग्रन्थों की सूचियाँ आदि इस समग्र कृति को विशिष्ट उपादेयता प्रदान करती है।
डॉ० सतीश चन्द यादव (जन्म-1976) ने एम०ए० (इतिहास) की उपाधि दी०८०उपा०वि०वि० गोरखपुर से 1998 में प्राप्त कर पुनः एम०ए० (प्रा.भा.इ.स. एवं पुरातत्व) व एम० फिल० की उपाधि विक्रम वि०वि० उज्जैन से प्रथम श्रेणी में (स्वर्ण पदक) उतीर्ण की। डॉ. यादव का कालान्तर में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (संस्कृति मंत्रालय) नई दिल्ली से कनिष्ठ एवं वरिष्ठ शोध वृत्ति प्राप्त हुयी और विक्रम वि०वि० से 2005 में डाक्टर आफ फिलासफी की उपाधि से सम्मानित किया गया।
पुनः कुछ वर्षों के लिए डॉ० यादव पं० दी०८०उपा०वि०वि० गोरखपुर में प्राचार्य पद पर कार्यरत रहे। कालान्तर में अन्तर्राष्ट्रीय सम्प्रति संग्रहालय श्री महावीर जैन केन्द्र गाँधीनगर (गुजरात) में संग्रहालयाध्यक्ष रहे। तत्पश्चात वी०एस०वाकड़कर, प्रा० भा०ड०सं० एवं पुरातत्व अध्ययनशाला विक्रम वि०वि० उज्जैन में असि० प्राफेसर पद पर कार्य करते हुए 'वरिष्ठ शोध अध्येता' (महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ, स्वराज संस्थान, संचालनालय, संस्कृति मन्त्रालय, मध्यप्रदेश शासन, उज्जैन के रूप में शोध कार्य में रत है। डॉ० यादव के तीन दर्जन से अधिक शोध-लेख राष्ट्रीय एवं अन्र्तराष्ट्रीय स्तर के विभिन पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं साथ ही आप विभिन्न राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में संचालन के दायित्व का निर्वहन भी किया है।
वर्तमान भारतीय परिवेश में समाज विज्ञान के क्षेत्र में सूक्ष्म वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता अपेक्षित है। विस्तृत भू-भाग कृत भारत के विभिन्न अंचलों में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक विविधताओं का समावेश है। इन विविधताओं में समयानुसार, विभिन्न परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन होना स्वभाविक है। तद्नुसार मूर्तिशिल्प, स्थापत्य (Secture, Architecture) के क्षेत्र में ये परिवर्तन विशेष रूप से अवलोकित होते हैं। इन क्षेत्रीय-विविधताओं एवं विशिष्ठताओं का सूक्ष्म-वैज्ञानिक व प्रतिमा-शास्त्रीय (Iconography) अध्ययन करना व इनका मौलिक कड़ी के रूप में मूल्यांकन करना, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अपेक्षित रहा है। इसमें भारतीय मंदिरों व मूर्तिशिल्प तथा स्थापत्य के आदान-प्रदान की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
इतिहास के सूक्ष्म अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वी-मध्य प्रदेश (मालवा अर्थात दशार्ण क्षेत्र) की तत्कालीन राजधानी विदिशा थी। इसके निकटस्थ क्षेत्रों की मंदिरों 'मूर्तिशिल्प' 'कला एवं स्थापत्य की विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसकी पुष्टि प्राचीन साहित्य व पुरातात्विक भग्नावशेषों से होती है। अतः इनके अध्ययन हेतु वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता का चिन्तन कर लेखक ने पूर्वी मध्य प्रदेश (प्राचीन धसान, दशार्ण) क्षेत्र में विकसित मंदिर मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य विषय पर वृहत् कार्य करना डॉ. सतीश चन्द यादव का ऐतिहासिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण, दुर्लभ एवं गौण प्रयास है।
तद्नुसार 5वीं शदी ई0 से 13वीं शदी ई० को उपयुक्त मानकर अध्ययन का एक प्रमाणिक प्रयास किया गया है, जिसके अन्तर्गत भारतवर्ष के विस्तृत क्षेत्र, यथा-भौगोलिक रूप से सम्पन्न मध्य प्रदेश से उपलब्ध प्रमाणों का दुलर्भ मंदिरों 'मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य के सन्दर्भ में सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत की गयी है, तदर्थ सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक स्थितियाँ, भौगोलिक व्यापकता, राजनैतिक पृष्ठभूमि व तत्कालीन बौद्ध-स्थापत्य के परम्पराओं में क्रमशः स्तूप, विहार व चैत्य तथा जैन स्थापत्य में स्तूप एवं मन्दिरों के वर्णन के साथ ही साथ हिन्दू स्थापत्य में शैलीत्कीर्ण गुहा मन्दिर, यथा-उदयगिरि, तुमेन, बढ़ोह-पठारी, ग्यारसपुर व गुप्त कालीन मन्दिरों में, साँची तथा उदयगिरि, व गुप्तोत्तर कालीन मंदिर, यथा-उदयेश्यवर मन्दिर (उदयपुर), आशापुरी के मन्दिर अवशेष एवं भोजपुर के शिव मंदिर आदि का उक्त ग्रन्थ में सूक्ष्म साहित्यिक प्रस्तुतिकरण किया गया है।
मूर्तिशिल्प (प्रतिमा-विज्ञान) के सन्दर्भ में विहंगम क्षेत्रों से प्राप्त दुर्लभ बौद्ध एवं जैन प्रतिमाएँ, यथा-सौम्य, शान्त व रौद्र, व विशिष्ट प्रतिमाओं में नटराज, त्रिमूर्ति, अर्द्धनारीश्वर और कल्याण-सुन्दर के साथ ही उनके पुत्र गणेश, कार्तिकेय की प्रतिमाओं का प्रतिमा शास्त्रीय अध्ययन समाहित है। वैष्णव प्रतिमाओं को भी लेखक ने स्थान दिया है, जिसमें विष्णु, यथा-दशावतार एवं अन्य विशिष्ट रूप, सूर्य, रेवन्त तथा अष्ट-दिक्पाल के साथ ही नवदशार्ण) क्षेत्र में विकसित मंदिर मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य विषय पर वृहत् कार्य करना डॉ. सतीश चन्द यादव का ऐतिहासिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण, दुर्लभ एवं गौण प्रयास है।
मूर्तिशिल्प (प्रतिमा-विज्ञान) के सन्दर्भ में विहंगम क्षेत्रों से प्राप्त दुर्लभ बौद्ध एवं जैन प्रतिमाएँ, यथा-सौम्य, शान्त व रौद्र, व विशिष्ट प्रतिमाओं में नटराज, त्रिमूर्ति, अर्द्धनारीश्वर और कल्याण-सुन्दर के साथ ही उनके पुत्र गणेश, कार्तिकेय की प्रतिमाओं का प्रतिमा शास्त्रीय अध्ययन समाहित है।
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