भारत में वस्त्र-निर्माण के अपेक्षाकृत विकसित शिल्प की प्राचीनता कई हजार वर्ष पहले सैंधव संस्कृति के काल तक जाती है। इस शिल्प का महत्त्व वस्त्रों की उपयोगिता के कारण तो था ही, पर इसी के साथ-साथ इसका महत्त्व इस दृष्टि से भी था कि सुन्दर वस्त्र सौन्दर्य एवं सुरुचि की अभिव्यक्ति के एक प्रमुख माध्यम के रूप में माने जाते थे। इस दृष्टि से प्रस्तुत शोध-कृति का विषय-प्राचीन भारत में वस्त्र उद्योग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
इस कृति में लेखिका ने साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक स्रोतों के गहन अनुशीलन से प्राप्त प्रासंगिक साक्ष्यों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विवेचन कर प्राचीन भारत में वस्त्र उद्योग के प्रमुख चरणों एवं पक्षों पर चुनिंदा छाया चित्रों/रेखा चित्रों को संलग्न करते हुए काफी कुछ नया प्रकाश डाला है।
साक्ष्यों के सम्यक् विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट किया गया है कि हड़प्पा तथा वैदिक संस्कृतियों के काल में वस्त्र निर्माण का शिल्प महत्त्वपूर्ण तो था, पर उसे उद्योग का दर्जा बाद में चलकर, जैसा कि ईसा पूर्व पांचवीं-चौथी शताब्दी के बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है, ऐतिहासिक काल में प्राप्त हुआ। इस वस्त्रोद्योग के क्रमिक विकास तथा मौर्योत्तर काल में इसके विशेष विकास एवं विशिष्टीकरण का विवेचन युक्तियुक्त एवं सुसंगत ढंग से किया गया है।
विभिन्न प्रकार के वस्त्रों-सूती, रेशमी, ऊनी एवं क्षौम तथा वस्त्र निर्माण में प्रयुक्त की जाने वाली विभिन्न तकनीकों-कताई, बुनाई, सिलाई, रंगाई, छपाई, कसीदाकारी आदि पर भी अभिनन्दनीय प्रकाश डाला गया है।
वस्त्रोद्योग से संबंधित बुनकरों के श्रेणी संगठनों की स्थिति एवं उनकी भूमिका का साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर सुसम्बद्ध एवं प्रत्यायक ऐतिहासिक विवेचन किया गया है।
डॉ० ममता मिश्रा की प्रस्तुत शोध-कृति प्राचीन भारत के सामाजार्थिक इतिहास के अध्ययन के क्षेत्र में एक अभिनन्दनीय योगदान है। इसके लिए वे साधुवाद की पात्र हैं।
प्राचीन काल से अब तक वस्त्र-उद्योग भारत के सर्वप्रमुख उद्योगों में से एक रहा है। इसलिए इसने अनेक विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया है। जोगेस चंद्र राय, मोतीचंद्र, जी० एच० घुर्ये, वासुदेव शरण अग्रवाल, एम० ए० बुच, जी० एल० आद्या, एस० के० मैती, हरिपाद चक्रवर्ती, लल्लन जी गोपाल, परमेश्वरीलाल गुप्ता, जगदीशचंद्र जैन, के० डी० सेठना, एस० एन० सहाय, जे० एन० ठाकुर, देवकी अहिवासी, किरन सिंह तथा अन्य अनेक विद्वानों ने प्राचीन भारतीय वस्त्र-उद्योग के विभिन्न पक्षों पर स्वतंत्र ग्रंथ शोध लेख लिखे हैं; अथवा/और आर्थिक जीवन पर लिखे अपने ग्रंथों में इस पर प्रकाश डाला है। विगत लगभग दो दशकों में वस्त्र-उद्योग पर जो ग्रंथ शोध-लेख लिखे गए हैं, उनमें से अधिकांश में, जहाँ तक मेरी जानकारी है, नए साक्ष्यों का उपयोग यथेष्ठ रूप में नहीं हुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक सात अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में सूती, ऊनी, रेशमी एवं क्षौम वस्त्रों के प्रचलन की विश्व तथा भारत में प्राचीनता का उल्लेख करने के अतिरिक्त भारत में प्रारंभसे पूर्वमध्यकाल तक इन वस्त्रों के निर्माण की तकनीक तथा गुणवत्ता में विभिन्न कालों में हुए विकास का विवरण प्रस्तुत किया गया है। आरंभ से वस्त्र निर्माण का भारत की अर्थ-व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ऋग्वैदिक काल में ही इसका संबंध पूषन् देवता से जोड़ दिया गया था और विवाह, समन तथा अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर विशिष्ट वस्त्र पहनने की परंपरा प्रारंभ हो गई थी। साथ ही लोगों में यह भावना भी उत्पन्न हो गई थी कि वस्त्रों का दान एक पुनीत कार्य है जिसे सम्पन्न करने वाला दीर्घायु प्राप्त करता है। कताई, बुनाई, धुलाई, रंगरेजी एवं कसीदाकारी में स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी के साक्ष्य हमें वैदिक काल से ही प्राप्त होते हैं।
प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में वस्त्र-निर्माण की कला ने एक उद्योग का स्वरूप प्राप्त कर लिया था। इस काल में सूती, ऊनी, रेशमी एवं क्षौम- इन सभी प्रकार के वस्त्रों के निर्माण में पर्याप्त उन्नति हुई थी। सूती तथा रेशमी वस्त्रों के स्पष्ट उल्लेख सबसे पहले इसी काल के साक्ष्यों में मिलते हैं। उद्यान (अफगानिस्तान में) और कोडुम्बर (पठानकोट) ऊनी वस्त्रों- विशेषरूप से कंबलों के लिए; शिवि जनपद (पंजाब का एक भाग) दुशालों के लिए; शाक्य गणराज्य का खोमदुस्सनगर क्षौम वस्त्रों के लिए और काशी रेशमी एवं सूती वस्त्रों के अतिरिक्त रंगरेजी की कला के लिए प्रसिद्ध हो गए थे। बड़े राज्यों, नगरों, श्रेष्ठियों, गहपतियों और गणिकाओं आदि के प्रादुर्भाव के कारण रेशम तथा क्षौम के कीमती वस्त्रों की मांग बढ़ी थी। उत्तम ऊन/ऊनी वस्त्रों के लिए अफगानिस्तान, पंजाब, कश्मीर एवं वर्तमान उत्तराखण्ड प्राचीन काल से आज तक प्रसिद्ध रहे हैं। इसीलिए बौधायन (ईसा पूर्व चतुर्थ सदी) ने कहा कि ऊनी वस्त्रों का व्यापार उत्तरी भारत के लोग करते हैं।
प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में ही सबसे पहले वस्त्र-निर्माण में लगे शिल्पियों तथा कई अन्य व्यवसायियों के श्रेणी-संगठन बने थे। कतिपय जातक कथाओं में उल्लिखित 18 श्रेणियों में जिन चार श्रेणियों के नाम वर्णित हैं, उनमें बुनकरों तथा रंगरेजों के श्रेणी संगठन नहीं शामिल हैं। रीस डेविड्स एवं रमेशचन्द्र मजुमदार ने इस काल के श्रेणी संगठनों की तालिकाएं तैयार की हैं। उनमें बुनकरों तथा रंगरेजों को भी शामिल किया है, जो सर्वथा उचित है। रजक शब्द सबसे पहले इसी काल के साक्ष्यों में आया है। यह धोबी तथा रंगरेज-दोनों के लिए प्रयुक्त होता था।
मौयों ने वस्त्र-निर्माण में अभिरुचि तो दिखाई किन्तु इसे संभवतः प्रत्यक्ष राज्य के नियंत्रण में नहीं लिया था। उन्होंने सूत्राध्यक्ष के अधीन वस्त्र निर्माण का कारखाना (सूत्रशाला) स्थापित करके इसे एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित किया और सूत्रशाला में बनाए जाने वाले वस्त्रों के विपणन की समुचित व्यवस्था की। इस उद्योग में लगे कारीगरों के हितों की रक्षा के लिए भी कुछ नियम/कानून बनाए गए थे। प्राचीन भारत में सबसे पहले कौटिल्य ने कताई, बुनाई, धुलाई करने वाले कारीगरों के पारिश्रमिक की दरें निर्धारित कीं तथा उन्हें प्रोत्साहन के रूप में कुछ वस्तुएं भेंट करने की परंपरा भी चलाई। अर्थशास्त्र में मथुरा (मधुरा), वत्स (इलाहाबाद-कौशाम्बी क्षेत्र), काशी, वंग (पूर्वी बंगाल), कलिंग, उत्तरी कोंकण तथा माहिषक (जबलपुर जिले का क्षेत्र) को उत्तम कपास तथा सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध बताया गया है, और क्षौम वस्त्रों के लिए काशी तथा पुण्ड्र (उत्तरी बंगाल) को। विवेच्य कालावधि के स्रोतों में कौटिल्य ने ऊनी वस्त्रों के सर्वाधिक प्रकारों का विवरण दिया है।
मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई और देश के विभिन्न भागों में कई भारतीय एवं विदेशी राजवंशों का शासन स्थापित हुआ। इनमें से किसी भी राजवंश अथवा राजा ने वस्त्र उद्योग की उन्नति में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। तथापि इस काल में वस्त्र उद्योग सहित अनेक शिल्पों, व्यवसायों में पर्याप्त विकास हुआ और विशिष्टीकरण में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। मौर्योत्तर काल में ही धोबियों, रंगरेजों के अतिरिक्त पहली बार रंग-निर्माताओं तथा सूती, ऊनी एवं रेशमी वस्त्र-निर्माताओं की पृथक श्रेणियां बनीं और सूती वस्त्रों- विशेषकर मलमलों की गुणवत्ता की ख्याति का देश में तथा विदेशों में प्रचार-प्रसार हुआ। इन मलमलों को रोमन साम्राज्य तथा अन्य पश्चिमी देशों में काफी पसन्द किया जाता था और वहाँ वे ऊंची कीमतों पर बिकते थे। इसी काल में भारत के चीन के साथ व्यापारिक संबंधों के निश्चित प्रमाण मिलते हैं। चीन के रेशम के भारत में आने से यहाँ बनने वाले रेशम की गुणवत्ता में वृद्धि हुई और मलमलों के साथ भारतीय रेशम का भी रोमन साम्राज्य को निर्यात किया जाने लगा था।
वस्त्र-उद्योग में विकास एवं विशिष्टीकरण की प्रक्रिया गुप्त तथा गुप्तोत्तर कालों में भी जारी रही। गुप्तयुगीन स्मृतिकारों ने वस्त्रों को रत्नों, हाथियों और सोने-चांदी के समान मूल्यवान बताया और वस्त्रों से संबंधित विवादों के लिए भी नियम बनाए। इस काल में वस्त्र धारण करने की विधि को 72 कलाओं में शामिल किया गया था। पारदर्शी, छपे तथा धारीदार वस्त्रों का प्रयोग गुप्तकाल से काफी पहले प्रारंभ हो गया था, परंतु उनके आम प्रचलन के साक्ष्य गुप्तकाल से ही मिलते हैं।
द्वितीय अध्याय में सूती तथा ऊनी वस्त्र-उद्योगों के विकास का विवरण है और तृतीय अध्याय में रेशमी एवं क्षौम वस्त्रों का। इन वस्त्रों से संबंधित महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। भारत में रेशमी वस्त्रों का प्रयोग कब प्रारंभ हुआ और भारतीय रेशम उद्योग की उत्पत्ति एवं विकास में विदेशी (चीन का) प्रभाव था या नहीं, इस पर विद्वान एकमत नहीं हैं। उपलब्ध साक्ष्यों की समवेत रूप में विवेचना करने पर इस उद्योग की उत्पत्ति में विदेशी प्रभाव मानना आवश्यक नहीं प्रतीत होता। रेशम के प्रकारों पर भी प्रकाश डाला गया है। नेत्र नामक रेशम के विवरण सबसे पहले गुप्तयुगीन साक्ष्यों में आए हैं। जैन हरिवंशपुराण (आठवीं सदी का अंतिम चरण) में महानेत्र का उल्लेख महत्वपूर्ण है। यह शायद अच्छे किस्म के नेत्र रेशम का द्योतक है।
क्षुमा वस्त्रों के निर्माण के प्रमुख केन्द्रों में शाक्य गणराज्य का खोमदुस्सनगर, कोडुम्बर (उदुम्बर), वाराणसी, पुण्ड्र (उत्तरी बंगाल), उत्तरकुरु (हिमालय क्षेत्र का एक छोटा राज्य) और कामरूप (असम) के उल्लेख आए हैं। रेशमी वस्त्रों के लिए वाराणसी और मगध (दक्षिणी बिहार), पुण्ड्र तथा सुवर्णकुड्य या असम प्रसिद्ध थे। क्षौम तथा चीन के रेशम के साथ सूती और ऊनी धागे मिलाकर भी वस्त्र बुने जाते थे। इस प्रकार के वस्त्रों को क्रमशः अर्द्ध-क्षौम तथा अर्द्ध-चीनांशुक कहा गया है।
गुप्तकाल में यद्यपि भारत के रेशमी वस्त्रों की गुणवत्ता बढ़ी थी, देश में कुल मिलाकर खुशहाली थी और समाज में सम्पन्न लोगों की कमी नहीं थी। तथापि इस काल में रेशमी वस्त्रों की मांग में शायद गिरावट आने लगी थी। इस गिरावट का एक प्रमुख कारण रोमन साम्राज्य को भारत में बने रेशम, रेशमी वस्त्रों का निर्यात बंद हो जाना माना जाता है।
चतुर्थ अध्याय में कताई-बुनाई एवं सिलाई की कलाओं के विकासक्रम का विवरण है। सिले वस्त्रों के प्रचलन के स्पष्ट प्रमाण वेदोत्तर काल से प्राप्त होते हैं। पतंजलि के महाभाष्य, महावग्ग तथा चुल्लवग्ग के विवरणों से प्रमाणित है कि ईसापूर्व द्वितीय प्रथम सदी तक सिलाई की कला काफी विकसित हो गई थी। ईसवी सन् की प्रारंभिक सदियों में शकों तथा कुषाणों ने भारत में कोट एवं शलवार आदि का प्रयोग प्रारंभ किया जो कम से कम प्रारंभिक गुप्त काल तक प्रचलन में रहे। ललितविस्तर में सिलाई को शिक्षा के विषयों में शामिल किया गया है। मौर्योत्तर काल में दर्जियों के श्रेणी संगठन बन गए थे और इसी काल के साक्ष्यों में सबसे पहले रफूगीरी के उल्लेख मिलते हैं।
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