भाषा मनुष्य की श्रेष्ठ सम्पदा है। सारी मानवीय सभ्यताएं भाषाओं के माध्यम से ही विकसित एवं पल्लवित हुई हैं। किसी भी समाज के निर्माण व विकास में भाषा एक नियामक एवं निर्णायक तत्व है। भाषा का राष्ट्र, राष्ट्रभाव तथा राष्ट्र निर्माण से घनिष्ठ सम्बन्ध है और भाषाचिन्तन के क्षेत्र में इस सम्बन्ध को पहचानने तथा इससे जूझने का महत्वपूर्ण कार्य भाषाचिन्तक डॉ. रामविलास शर्मा ने किया। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में डॉ. रामविलास शर्मा विश्व ख्याति के भाषाविद् एवं मनीषी विद्वान हैं। इनके भाषा-चिन्तन का मूलसूत्र ही सामाजिक विकास का सन्दर्भ और सामाजिक गठन की प्रक्रिया है। इन्हीं मूलसूत्रों के प्रकाश में शर्मा जी ने भाषा सम्बन्धी समस्याओं पर गम्भीर विचार किया और कई महत्वपूर्ण मौलिक स्थापनाएं दीं, जो भाषा के क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी प्रयास है। रामविलास की भाषा-सम्बन्धी स्वस्थ अवधारणाओं को सामने लाना ही मेरे इस पुस्तक का मख्य उद्देश्य है।
रामविलास जी विश्व के उन विशिष्ट भाषा-चिन्तकों में हैं, जिन्होंने भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अपनी नवीन स्थापनाओं द्वारा भाषाविज्ञान को नई दिशा प्रदान की है। उनका मानना है कि भारतीय संस्कृति के विकास में हिंदी भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। इसीलिए वे हिंदी भाषा, हिंदी जाति और इसकी सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के गहन अध्ययन की ओर प्रवृत्त होते हैं। उन्होंने भाषा और समाज का घनिष्ठ संबंध स्वीकार करते हुए भारत की भाषा समस्याओं पर गहन विचार किया है। रामविलास शर्मा आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास को सामन्ती व्यवस्था के पतन के साथ जोड़ते हैं। इसी सन्दर्भ में वे खड़ी बोली के विकास का उल्लेख करते हुए उसे हिन्दी जातीयता के साथ जोड़ते हैं। हिन्दी जातीयता की चर्चा करते हुए वे हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों और हिन्दी-उर्दू सम्बन्धों पर भी विचार करते हैं। वे भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का समर्थन करते हुए हिन्दी को विभिन्न राज्यों में बांटे जाने के विचार का विरोध करते हैं। वे इस बात का भी समर्थन नहीं करते कि शासन की सुविधा के लिए छोटे राज्य बनाए जाने चाहिए। भारत का विकास उसकी विभिन्न जातियों के विकास से ही संभव है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि डॉ. शर्मा का भाषा-चिन्तन परंपरागत भाषा वैज्ञानिकों से भिन्न हैं। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में डॉ. शर्मा का भाषाशास्त्रीय चिन्तन क्रान्तिकारी होने के साथ ही विशेष महत्व का है। लेकिन विदेशी भाषावैज्ञानिकों की लीक से हट कर लिखे जाने के कारण भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उन्हें वह महत्व प्राप्त न हो सका, जिसके वे अधिकारी हैं। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में रामविलास जी द्वारा दिए गए मौलिक अवधारणाओं पर प्रकाश डालना तथा उनके महत्व को प्रतिपादित करना इस पुस्तक का उद्देश्य है। इस दिशा में प्रस्तुत पुस्तक सफल सिद्ध होगी, मेरा ऐसा विश्वास है।
प्रथम अध्याय के अन्तर्गत भाषा-चिंतन की समूची भारतीय परम्परा पर विचार किया गया है। इसमें मुख्य रूप से इस तथ्य को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया गया है कि हमारी भारतीय भाषा की चिन्तन धारा कितनी समृद्ध है और जिसकी पाश्चात्य और भारतीय भाषा चिन्तकों द्वारा घोर उपेक्षा की गई। डॉ. शर्मा ने किस प्रकार अपने गम्भीर अध्ययन और सूक्ष्म अन्वेषण से भारतीय भाषा-चिन्तन की परम्परा के महत्व को न केवल उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है बल्कि सामाजिक विकास के परिप्रेक्ष्य में उसका अध्ययन करते हुए कई मौलिक स्थापानाएं भी दीं हैं, इसकी सुचिन्तित विवेचना की गई है।
दूसरे अध्याय के अन्तर्गत हिन्दी भाषा के विकास के सम्बन्ध में भाषा वैज्ञानिकों के विभिन्न मतों की चर्चा करते हुए रामविलास शर्मा की मान्यताओं का विवेचन विश्लेषण किया गया है। सामाजिक विकास और जातीय गठन के आधार पर हिन्दी भाषा का अध्ययन करते हुए उन्होंने भाषा सम्बन्धी सभी तरह की समस्याओं का अध्ययन किया तथा उससे सम्बन्धित कई मौलिक निष्कर्ष दिए। हिन्दी और उर्दू की समस्या, बोली और भाषा की समस्या, राज्यभाषा और राष्ट्रभाषा की समस्या आदि विषयों पर रामविलास जी द्वारा दिए गए सप्रमाण निष्कर्षों पर प्रकाश डाला गया है।
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