हमारे प्राचीन वाङ्मय में जगत्स्थितिपानक श्रीपरमेश्वर के जो अनेक अवतार वर्णित हैं, उनमें मत्स्यादि दस अवतारों को ही प्रमुख स्थान दिया गया है। ये दस अवतार, उनके आविर्भाव के समय तत्कालीन जनता की दयनीय अवस्था, उनका जीवन कार्य, उनके श्रेष्ठ पराक्रम, उनके द्वारा किया हुआ दुष्टनियमन व साधु-सज्जनों का संरक्षण इत्यादि अनेक बातें अखिल भारत के आबालवृद्धों की जिह्वा पर हैं। और यह बात भी सर्वविदित है कि भारतीय जनता, जिसे आज 'हिन्दू' कहते हैं, उक्त दशावतारों में प्रमुख गिने जाने वाले श्रीरामचन्द्र एवं श्रीकृष्ण की उपासक है। प्रश्न उठ सकता है कि इन दस अवतारों के प्रति ही जनता में इतने एकमत से आदर की भावना क्यों है ? अखिल विश्व और विशेषकर इस पुण्यपावन भरतभूमि में, समय-समय पर ऐसे असंख्य महा-पुरुषों के उत्पन्न होने पर भी, जिनमें कि अवतारों के विभूतिमत्व, श्रीमत्व एवं ऊर्जितत्व के लक्षण लागू हो सकते हैं, जनता ने केवल इन्हीं दस को ही चुनकर अपने हृदयों में क्यों बसाया ? इसका व ऐसे अन्य प्रश्नों का उत्तर, अवतार के जीवन के सर्वमान्य उद्देश्य "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।" से प्राप्त हो सकता है।
'धर्म' शब्द का यह प्रमुख अर्थ कि जिसके द्वारा अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति होती है और समाज सुव्यवस्थित, सुखी एवं एकसूत्र में गुंफित रहता है, सबको विदित है ही। अर्थात् ऐहिक जीवन को सुख-साधनों आदि से अत्यन्त समृद्ध कर, जिससे व्यक्ति को पशुत्व की ओर से मानवत्व की ओर तथा मानवत्व से दैवी-सम्पत्तिरूप गुण-समुच्चय प्राप्त कर मोक्ष की ओर बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त होती है तथा अनुकूल परिस्थिति का लाभ होता है, वही धर्म है। मानव स्वभावतः ही समाज-प्रिय प्राणी (Social animal) है। प्रत्येक भू-भाग के मानव एकाकी न रहते हुए, आपस में मिलजुल कर रहते हैं। अर्थात् अपना एक समाज बनाकर, उसमें प्रत्येक व्यक्ति को एक दूसरे पर अवलम्बित रहना पड़ता है। उसी प्रकार प्रत्येक को अपना जीवन निर्भयता एवं सुख से व्यतीत कर सकने के लिये, इन सभी व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को मित्रता, सहकार्य तथा आत्मीयता से युक्त रखना आवश्यक होता है। दूसरे शब्दों में, समाज का सुव्यवस्थित होना आवश्यक है। अन्यथा अव्यवस्था निर्माण होकर, व्यक्ति को अपने विकास के निमित्त अपेक्षित शान्ति का लाभ कभी भी नहीं हो सकेगा। इसके साथ ही ऐहिक जीवन में व्यक्ति के सर्वथा समाजाधीन होने के कारण, जिस परिमाण में समूचे समाज की उन्नति होगी, उसी परिमाण में प्रत्येक व्यक्ति का अभ्युदय साध्य हो सकेगा। समाज की उन्नति का अर्थ उसके कुछ एक व्यक्तियों का भाग्यपूर्ण जीवन नहीं, अपितु प्रत्येक व्यक्ति को उसकी शक्ति-बुद्धि के अनुसार जीवन के सुत्तों की अधिक से अधिक प्राप्ति होना तथा प्रत्येक को अपनी उन्नति के हेतु अधिक से अधिक अवसर एवं तदनुरूप सुख की प्राप्ति हो सकता है। सभी व्यक्तियों को इस प्रकार सुख प्राप्त हो सकने की व्यवस्था होने पर ही समाज सुव्यवस्थित रह सकता है। अतः यह स्वाभाविक है कि जिन्होंने इस सुव्यवस्था का निर्माण और उसकी रक्षा करने में अपनी अलौकिक श्रेष्ठता प्रकट की, उन्हीं की स्मृति समाज के हृदय-पटल पर अमिट अक्षरों में अंकित हुई और आनुवंशिक संस्कार के रूप में पीढ़ी प्रति पीढ़ी, समाज उन श्रेष्ठ व्यक्तियों का पुजारी बन बैठा ।
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