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आदिवासी संगीत विचार (सन्दर्भः राठवा-भील समाज) - Tribal Music Thought (Sandharva-Rathwa Bhil Society)

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Specifications
Publisher: Indian Institute Of Advanced Study, Shimla
Author Prachi Vaidya Duble
Language: Hindi
Pages: 126
Cover: HARDCOVER
9.0X5.5 inch
Weight 272 gm
Edition: 2023
ISBN: 9789382396901
HBH627
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Book Description
पुस्तक के बारे में

प्राची का मोनोग्राफ 'आदिवासी संगीत विचार' एक ऐसे समय में भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के बीच संबंध बनाने के बारे में है, जब संचार की तकनीक में बड़ी क्रांति के बावजूद हमारे संवाद बिखर रहे हैं और दुनिया तेज़ी से विभाजित हो रही है। ऐसे में यह छोटी सी किताब विभिन्न समाजों के बीच संवाद स्थापित करने हेतु एक दार्शनिक स्तर पर हस्तक्षेप करती है। पाठक सबसे पहले एक बेहद गंभीर प्रयास से परिचित होते हैं जिसमें एक संगीतज्ञ ने आदिवासियों के संगीत के विभिन्न अनछुए पहलुओं को समझने में मदद की है। प्राची के शोध में आदिवासी संगीत को लेकर चर्चित रहे लेकिन अनसुलझे रहे कई प्रश्न सामने आते हैं, आदिवासी संगीत का आरम्भ और उसकी विकास यात्रा, सन्दर्भ और लय, इतिहास से सरोकार, और परिवर्तन और निरंतरता के कई मुद्दे यहाँ मौजूद हैं। इन सबके अलावा यहाँ कई और मूलभूत संकल्पनाएँ जैसे ध्वनि, संगीत, कला और आदिवासी, और इन मुद्दों के भीतर बनने बिगड़ने वाले विवादों को नज़दीक से परखा गया है। साथ ही एक चिंतनशील नृवंशविज्ञानी की तरह प्राची अपनी स्वयं की समस्याओं से भी संवाद जारी रखती हैं। वह चाहे लेखक के तौर पर उनकी अपनी आवाज़ हो, या विषय में उनके हस्तक्षेप का प्रश्न हो या स्व और भिन्न, अथवा प्रतिनिधित्व और अनुवाद से संबंधित चिंताओं का प्रस्तुतीकरण हो, लेखक ने इस प्रक्रिया में निर्माण होने वाली विविधता और इसकी अपरिवर्तनीयता दोनों का प्रदर्शन किया है। प्राची आदिवासी संगीत से जुड़ी कई चर्चाओं की शुरुआत कर रही हैं, शायद इन चर्चाओं में एक नई जान फूंक रही हैं। ताकि आदिवासी समुदायों और संबंधित क्षेत्रों के संगीत में रुचि रखने वाले विद्वान इस विषय का एक अधिक जटिल और सूक्ष्म चित्र बनाना शुरू कर सकें। प्राची की कथा मूल रूप से एक डायरी भी है. एक संस्मरण भी और एक साक्षात्कार भी।

नृवंशविज्ञान लेखन के इन सारे पहलुओं को अपने मोनोग्राफ में मिश्रित करते हुए वह एक ओर विषय की ऊर्जा को उजागर करती हैं और साथ ही इस विषय के तल में बैठे हुए गहरे प्रश्नों की ओर भी ध्यान आकृष्ट करती है।

भूमिका

प्राची और मैं साल २०१६ से २०१८ के दरमियाँ भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के विद्वानों और कर्मचारियों के एक मिले-जुले परिवार का हिस्सा थे। वहाँ 'फेलो' के रूप में हम अपनी अपनी पसंद के क्षेत्रों में अनुसंधान कर रहे थे। हम सब अपने अपने शोध में उत्कटता और गहराई से डूबे हुए थे। प्राची का काम राठवा भील आदिवासियों के संगीत पर था। कई सामाजिक और अकादमिक अवसरों पर जब भी मिलना-जुलना होता और माहौल चाहे औपचारिक होता या अनौपचारिक, उनमें एक बात अवश्य होती थी; प्राची हौले से एक धुन या कोई गीत गुनगुनाती, जिसे सुनकर हम सभी तुरंत प्रफुल्लित हो जाते थे। संगीत के एक कुशल कलाकार के रूप में उनकी शैलियों का प्रदर्शन बड़ा ही प्रभावशाली था। गंभीर शास्त्रीय संगीत से लेकर ठुमरी और ग़ज़ल तक, लोकगीत से लेकर विभिन्न प्रकार के पश्चिमी गीतों तक सभी को वह प्रवीणता और सहजता से गाया करती थीं। इन सभी विधाओं में से हम आदिवासी संगीत से सबसे कम परिचित थे, लेकिन प्राची इस संगीत में भी इस कदर डूबी रहती कि हम सभी भी आदिवासी संगीत के प्रति गहरा लगाव महसूस करते। मेरा मानना है. कि यह इस बात का प्रमाण है कि हम सभी के अन्दर अपनी भिन्नताओं के बावजूद एक-दूसरे को समझने की एक अंतर्निहित क्षमता होती है, बस समझने की चाह होनी चाहिए।

प्राची का मोनोग्राफ एक ऐसे समय में भिन्न भिन्न संस्कृतियों के बीच संबंध बनाने के बारे में है, जब संचार की तकनीक में बड़ी क्राति के बावजूद हमारे संवाद बिखर रहे हैं और दुनिया तेजी से विभाजित हो रही है। विशेष रूप से अगर हम आदिवासी संगीत में निहित अर्थों को समझना चाहते हैं और इसे एक गंभीर कलात्मक अभिव्यक्ति से संलग्न करना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए? ध्यान रहे कि यह एक चुनौती है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से मुख्यधारा की संस्कृति द्वारा इस संगीत और संस्कृति का अवमूल्यन किया गया है। ऐसे में प्राची का काम विभिन्न समाजों के बीच संवाद स्थापित करने हेतु दार्शनिक स्तर पर हस्तक्षेप करता है।

आगे के पृष्ठों में पाठक सबसे पहले एक बेहद गंभीर प्रयास से परिचित होंगे जिसमें एक संगीतज्ञ ने आदिवासियों के संगीत के विभिन्न अनछुए पहलुओं को समझने में मदद की है। प्राची के शोध में आदिवासी संगीत को लेकर चर्चित रहे लेकिन अनसुलझे हुए कई प्रश्न सामने आते हैं, आदिवासी संगीत का आरम्भ और उसकी विकास यात्रा, सन्दर्भ और लय, इतिहास से सरोकार, और परिवर्तन और निरंतरता के कई मुद्दे यहाँ मौजूद हैं। इन सबके अलावा यहाँ कई और मूलभूत संकल्पनाएँ जैसे ध्वनि, संगीत, कला और आदिवासी, और इन मुद्दों के भीतर बनने बिगड़ने वाले विवादों को नज़दीक से परखा गया है। साथ ही एक चिंतनशील नृवंशविज्ञानी की तरह प्राची अपनी स्वयं की समस्याओं से संवाद जारी रखती हैं। वह चाहे लेखक के तौर पर उनकी अपनी आवाज या विषय में उनके हस्तक्षेप का प्रश्न हो या स्व और भिन्न, अथवा प्रतिनिधित्व और अनुवाद से संबंधित चिंताओं का प्रस्तुतीकरण हो, लेखक ने इस प्रक्रिया में निर्माण होने वाली विविधता और इसकी अपरिवर्तनीयता दोनों का प्रदर्शन किया है।

परन्तु प्राची किसी भी तरह से सभी मुद्दों के व्यापक समावेशन का दावा नहीं करती हैं, न ही उन मुद्दों से जूझते हुए वह किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँच कर इन सारे प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करती है।

वास्तव में वे कई चर्चाओं की शुरुआत कर रही हैं, शायद इन चर्चाओं में एक नयी नई जान फूंक रही हैं। ताकि आदिवासी समुदायों और संबंधित क्षेत्रों के संगीत में रुचि रखने वाले विद्वान इस विषय का एक अधिक जटिल और सूक्ष्म चित्र बनाना शुरू कर सकें। प्राची की कथा मूल रूप से एक डायरी भी है. एक संस्मरण भी और एक साक्षात्कार भी। नृवंशविज्ञान लेखन के इन सारे पहलुओं को अपने मोनोग्राफ में मिश्रित करते हुए वह एक ओर विषय की ऊर्जा को उजागर करतो हैं और साथ ही इस विषय के तल में बैठे हुए गहरे प्रश्नों को ओर भी ध्यान आकृष्ट करती हैं। प्राची ने संस्थान में हमारे साथ जिस प्रकार संगीत साझा किया था. उसी प्रकार से यहाँ पर वे हमें उनके संगीत-विचार से जुड़ने का निमंत्रण देती है। यह निमंत्रण है उनके जैसे कई अन्य विद्वानों की एक सहयात्रा से जुड़ने का। वह यात्रा जो हम सभी को भी अपनी अलग अलग लेकिन फिर भी एकदूसरे से जुड़ों हुई दुनिया को थोड़ा और सहानुभूतिपूर्वक समझने के लिए शुरू करनी चाहिए: फिर भले ही उस दुनिया से हम थोड़े अपरिचित ही क्यूँ न हो. वो दुनिया जो हमें अपनी विस्मयकारी विविधता से अभिभूत कर देती है!

प्रस्तावना

संगीत हमेशा अपने उद्गम से निकलकर अपनी नियति की ओर बहते हुए किसी व्यक्ति के क्षणभंगुर अनुभव में जाकर समा जाता है।

- एलेक्स रॉस, 'द रेस्ट इज नॉइज' की भूमिका में

क्या आपको लगता है कि आप आदिवासी संगीत के सिद्धांत लिख पाएंगी?

यह आखिरी प्रश्न था इंटरव्यू का, और इसे पूछते समय भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर चेतन सिंह के चेहरे पर एक मार्मिक मुस्कान थी। मैंने कहा: "सर, आज तक आदिवासी संगीत के सारे सिद्धांत मौखिक परम्परा में समाहित रहे हैं। आदिवासी स्वयं भी इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप में ही बताते रहे हैं, पर अब समय है कि इस मौखिकता में जो शास्त्र निहित है, उसे भी हम देखें एवं उसे लिखने का प्रयास करें! मेरे आदिवासी मित्रों की भी यही मंशा है। मैं जानती हूँ कि मेरे पास पीएचडी जैसी कोई डिग्री अथवा शिक्षाविदों जैसा कोई दीर्घ अनुभव नहीं है किन्तु पिछले कई वर्षों से लगातार आदिवासी संगीत के दस्तावेजीकरण हेतु मैं अपने आदिवासी मित्रों के साथ भारत के दुर्गम इलाकों में घूम रही हूँ। इस संगीत की बुनावट (टेक्श्चर) और बनावट (स्ट्रक्चर) कैसे हैं, इसका आशय क्या है और इसका आकार कैसा है? इन सभी का एकदम समीप से अनुभव कर रही हूँ। केवल यही नहीं, इस संगीत यात्रा के दौरान मैंने बार-बार यह भी महसूस किया है कि न ही मेरे आदिवासी मित्र उतने 'आदिवासी' हैं, न ही मैं उतनी 'गैर-आदिवासी'; मनुष्यता एवं संगीत का धागा हमें अद्भुत तरीके से जोड़े हुए है। मैं चाहती हूँ कभी न कभी, कहीं न कहीं इस अनुभव को, इस अहसास को शब्दों में ढालूँ और प्रस्तुत करूँ 'आदिवासी संगीत-विचार' के रूप में।

प्रोफेसर चेतन सिंह ने कहा 'ठीक है, आपका शुक्रिया'।

कुछ समय बाद जब मुझे अध्येता के तौर पर भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में आमंत्रित किया गया तब कुछ पल के लिए मैं अचंभित हुई, पर साथ ही साथ निदेशक महोदय एवं उनकी टीम ने मुझ पर भरोसा किया इस अहसास से आनंदित भी हुई।

आदिवासी संगीतयात्रा शुरू हुई तब मैं बस एक गायक-कलाकार थी। तदुपरांत इस यात्रा के दौरान अनेक आदिवासी कार्यकर्ताओं के साथ स्वयं भी एक कार्यकर्ता बन कर काम करते हुए भिन्न-भिन्न आदिवासी भावभूमियों से गुज्री और अब तो मैं विद्वानों के संसार भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में प्रवेश करने जा रही थी! लगा कि जैसे बड़ा गजब ढाने जा रही थी! पर यहाँ आकर देखा कि जिन तीन अवस्थाओं से मैं गुज़र रही हूँ (आर्टिस्ट, ऐक्टिविस्ट, अकादमीशियन)। यह सारी अवस्थाएं केवल ऊपर ऊपर से अलग-थलग दिखती हैं, किन्तु वास्तव में एक दूसरे से जुडी हुई हैं, संश्लिष्ट हैं। आदिवासी इलाकों में एक कार्यकर्ता का अनुभव किसी विद्वान की लेखनी से सिद्धांत बनकर उभरता है तो दूसरी ओर, एक कलाकार इसी अनुभव को गीत में ढालने की कोशिश में लग जाता है। यही कारण है, इस संगीतयात्रा का हर मकाम मेरे लिए बड़ा ही दिलचस्प रहा।

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में आकर अभ्यास शुरू करते ही अगला प्रश्न उपस्थित हुआ कि मेरे मोनोग्राफ (विनिबंध) का स्वरूप कैसा हो? यह बात तो स्पष्ट है कि इस मोनोग्राफ का मुख्य उद्देश्य है; आदिवासी संगीत के कला सिद्धांतों को प्रस्तुत करना परन्तु कोई भी कला अभ्यासक स्वाध्याय, स्वानुभव एवं स्वानुभूति के बिना कला-सिद्धांतों की चर्चा नहीं कर सकती। यही कारण था, मैंने संस्थान से बिनती की कि मैं अपना मोनोग्राफ एक 'मोनोलॉग' अर्थात स्वगत भाषण के रूप में लिखना चाहती हूँ। जैसे ही मैंने यह बात सामने रखी, एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना प्रोफेसर चेतन सिंह ने कहा : 'आपका आशय एक पर्सनल नैरेटिव को प्रस्तुत करना है? यह शानदार बात है।' इतना ही नहीं, इस विषय के तानेबाने को ठीक से परख कर उन्होंने मुझे कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए। साथ ही संस्थान के कई अन्य अध्येताओं ने, जो आगे चलकर मेरे बहुत अच्छे मित्र बने, उन सभी ने असीमित सहयोग किया। उसी के चलते यह विनिबंध आज साकार हो पाया है।

प्रस्तावना के उपरांत यह विनिबंध चार प्रमुख अध्याय प्रस्तुत करता है।

आदिवासी संगीत : कला एवं शास्त्र विचार

यह अध्याय मेरी संगीतयात्रा के आरंभ को विस्तृत करने का प्रयास करता है, साथ ही संबोधित करता है इस विषय से जुड़े कुछ मूलभूत प्रश्नों को जैसे कि आदिवासी कौन है? 'आदिवासी' इस संज्ञा को कब, क्यों और किस प्रकार गढ़ा गया? क्या आदिवासी समूहों की आवाज़ एवं ध्वनि से जुड़ी सौंदर्य अभिव्यक्ति को संगीत कहा जा सकता है? यदि हाँ, तो 'संगीत' क्या है? जो ध्वनि संगीत बनकर उजागर होती है, उस ध्वनि के गुणधर्म क्या हैं, कोई भी संगीत परम्परा किस प्रकार जन्म लेती है? 'कला एवं शास्त्र' इन परिभाषाओं की व्युत्पत्ति क्या है? विश्व के भिन्न-भिन्न संगीताचार्य एवं विद्वान् इन सारी संकल्पनाओं को किस प्रकार देखते हैं? आदिवासी संगीत की, आदिवासी संगीत कहलाये जाने तक की यह यात्रा कैसी है? आदिवासी संगीत के विशेष क्या हैं? एक मनुष्य, एक कलाकार एवं एक शोधक के तौर पर आदिवासी संगीत को अभ्यासना मेरे लिए क्यों आवश्यक है?

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