यह आश्चर्य का विषय है कि किसी संस्था, प्रकाशन संस्थान अथवा किसी उत्साही व्यक्ति ने अब तक 'तुलसी रचना संचयन' नहीं बनाया। महान् विचारक, संत हृदय, मानवमात्र के कल्याणकामी, नानापुराणनिगमागम निष्णात, समन्वयशील, प्रज्ञावान विश्वकवि के प्रति यह उदासीनता अकल्पनीय है। विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति, तुलसी साहित्य के अध्येता और तत्त्वाभिनिवेशी विश्लेषक, आचार्य हनुमानप्रसाद शुक्ल ने वर्ष 2007 में यह कार्य आरंभ किया था, किंतु किन्हीं कारणों से यह कार्य अधूरा पड़ा रह गया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के तत्त्वनिष्ठ चिंतक और विद्यानुरागी कुलपति आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल को इस अभाव ने संक्षुब्ध किया। भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता के निष्ठावान उपासक होने के कारण आप परंपरा पोषित भारतीय मनीषा और व्यापक मानवीय संवेदनशीलता से मंडित गोस्वामी जी प्रणीत साहित्य के गहन अध्येता और प्रशंसक हैं। आपने गोस्वामी जी के सभी ग्रंथ रत्नों से कुछ अंश चुनकर संचयन बनाने का संकल्प किया।
अब माननीय कुलपति महोदय ने तुलसी रचनावली के साथ ही यह पुनीत कार्य मुझे सौंप दिया। इसके लिए मेरी क्षमता नहीं, उनका उदार स्नेह ही कारणीभूत है। इस पुनीत अवसर के लिए मैं माननीय कुलपतिजी और उनके सहयोगियों के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ। प्रतिकुलपति आचार्य हनुमानप्रसाद शुक्ल आरंभ से लेकर 'संचयन' संपूर्ति तक रुचिपूर्वक सहयोग, सुझाव और सुव्यवस्था देते रहे हैं। उनके प्रति भी हृदय से आभार। संचयन को तैयार करने में विश्वविद्यालय के जिन अधिकारियों, प्राध्यापकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सहयोग मिला है, उन सभी के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ।
'संचयन' की प्रासंगिकता इस अर्थ में है कि जो लोग अन्यान्य कारणों से गोस्वामी जी के समग्र साहित्य का विधिवत् अध्ययन नहीं कर पाते, उन्हें चयनित अंशों से संपूर्ण कृतित्व का परिचयात्मक बोध संभव हो सकेगा। यदि ये अंश पाठक को रसात्मक अनुभूति दे सकें तो कृति को आद्योपांत पढ़ने की प्रेरणा मिलेगी। अनेक विदेशी अध्येता अथवा भारत के इतर भाषा-भाषी गोस्वामी जी के अमर साहित्य के प्रति तीव्र जिज्ञासा रखते हैं, किंतु उनकी जिज्ञासा प्रायः 'रामचरितमानस' तक ही सीमित रहती है। इससे उनकी आकलन दृष्टि खंडित ही रह जाती है। 'संचयन' उन्हें सभी कृतियों का सांकेतिक परिचय प्रदान करेगा। विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करने के लिए संचयन समग्र अथवा आंशिक रूप में उपयोगी होगा। यह संचयन सामान्य पाठक से लेकर शोधकर्ताओं तक के लिए प्रेरक और उपकारक सिद्ध होगा।
कविकर्म का क्रमिक विकास और कवि के जीवन-विकास में घनिष्ठतम संबंध होता है। युगबोधी पारिवेशिक प्रभाव रचनाकार की संवेदना को आकार देता है। जीवनानुभूतियाँ ही तीव्रतम होकर काव्याभिव्यक्ति बनती हैं। इसी दृष्टि से गोस्वामी जी के संक्षिप्त जीवन-वृत्त के साथ युगीन परिस्थितियों का संक्षिप्त परिचय, गोस्वामी जी की दार्शनिक दृष्टि, समाज संपृक्ति, भक्तिभावना, भाषासमृद्धि, कलासिद्धि आदि का उल्लेख भूमिका में कर दिया गया है। इसी प्रकार कृतियों का यथोचित परिचय भी दे दिया गया है। इससे सभी कृतियों का सामान्य परिचय पाठक को मिल जाएगा। पाठकों की सुविधा के लिए रामचरितमानस को छोड़कर शेष कृतियों में संचयन के छंदों के क्रम के साथ मूल कृति के छंद-क्रम को भी दे दिया गया है। पाठकों की सुविधा के लिए परिशिष्ट में कठिन शब्दों के अर्थ भी दे दिए गए हैं।
'संचयन' की सफलता और सार्थकता का निर्णय तो सुधी पाठक ही कर सकेंगे। किंतु यदि यह संचयन किसी रूप में और किसी भी सीमा में रचनात्मक चरितार्थता को प्राप्त कर सका तो हम सभी अनुप्रीत होंगे।
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