कई दृष्टियों से हम यह कह सकते हैं कि त्यागराज के रूप में कर्नाटक संगीत ने अपना सर्वोच्च शिखर प्राप्त किया है। अन्य वाग्मेवकारों की तुलना में त्यागराज को रवनाथों में मौलिकता और कल्पनागीतता अधिक प्रकट है। चाहे प्रसिद्ध रागों में या नवे रागों में अभिव्यंजक क्यों की विविवता के समावेश की बात हो, चाहे कृति नामक संगीत-विषा को पूर्णता पर पहुंचाने की बात हो या नये-नये तत्त्वों से उसे समृद्ध करने की, चाहे गीतों की शब्दावली में काव्य के समावेश की हर दृष्टि से त्यागराज ही प्रमुख गायक-कवि ठहरते हैं। कर्णाटक संगीत की सर्वोत्तम और सर्वोच्च प्रतिमा के वे अद्वितीय उदाहरण है।
देश-भर के संगीतकारों धौर संगीत-प्रेमियों को कर्णाटक संगीत के इस महान् वाग्गेयकार के भवदान का घनिष्ठ परिचय देने के उद्देश्य से संगीत नाटक अकादेमी ने अखिल भारतीय स्तर पर उनके जन्म की द्विशतवार्षिकी का आयोजन किया था। अकादेमी की समारोह समिति की यह इच्दा यी कि हिन्दुस्तानी संगीत के अनुशीलकों में त्यागराज और उनकी कप्ता के सम्बन्ध में अवबोध बढ़े। इस उद्देश्य की पूति के लिए एक मार्ग यह निश्चित किया गया कि त्यागराज की चुनी हुई कृतियों को देवनागरी लिपि में, और (कर्णाटक संगीत के अनुरोध से किंचित् संशोधित) भातखण्डे पद्धति की स्वरलिपि में प्रकाशित किया जाय।
त्यागराज का जन्म सन् 1767 में तंजावूर (तंजौर) जिले के तिरुवारूर नामक स्थान में हुम्रा । उनके जन्मस्थान के अधिष्ठातू-देवता के नाम पर ही उनका नामकरण किंया गया। बाद में वे तंजाबूर से 7 मील दूर तिरुखैयारु नामक स्थान पर रहने लगे। वहाँ उन दिनों मराठा वंश का राज था। त्यागराज के पिता के राम ब्रह्म और उनका वंश काकर्ल कहलाता था। उसी तरह घौर भी बहुत से तेलुगु परिवार कावेरी नदी के मुहाने पर बसे हुए थे। तिरुवय्यारु, जहाँ उनके पिता रहते थे, और जो तीर्थ-स्थान है, उसके सम्बन्ध में और उसको पत्वारने वालो कावेरी नदों और उसके पवित्र पोषक जल के सम्बन्ध में त्यागराज ने कई उत्कृष्ट गीत रचे हैं।
जिस युग में त्यागराज हुए वह संगीत-कला की अनेक महान् प्रतिभाओं का युग या एक से एक बढ़कर संगीतकार, संगीतशास्त्री, गायक, वाम्गेयकार, नृत्य-कला-विशारद, नृत्य-नाट्य-लेखक, लक्षण-गीतों, ठाय-वर्षों श्रादि लक्षण-सामग्री के रचयिता इस युग में आविर्भूत हुए। उनके अपने वंश में ही उनके नाना 'श्री गिरिराज कवि' काव्य धौर संगोत के रचयिता थे। उनके गुरु, सोण्ठी सुब्वय्या के पुत्र सोष्ठी वेंकटरमणय्या धनने समय के महान् पण्डितों में थे। उन दिनों तंजावूर ऐसा केन्द्र बा, जहाँ दूर-दूर से संगीतकार प्राकर बस गये थे पोर शास्त्रों के मंचन, व्याकरण के निरूपण और सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के नाना रूपों के निर्धारण द्वारा कर्नाटक संगोत विकसित बौर समृद्ध हो रहा था। उन्हें एक शताब्दी पहले के वेंकटमखो घौर उनको मेल-पद्धति को परम्परा प्राप्त नो, जिते मराठा चावक तुलज ने घपने संगीत-सारामृत में संशोधित रूप प्रदान किया था। एक अपनी निजी पद्धति भौर अपना निजी शास्त्र था, दूसरी घोर महाराष्ट्र के पहुंचे थे। ये सब के सब त्यागराज की विजद रचनाओं में प्रतिफलित घोर तो तेलुगु संगीतज्ञों के पास संगीतज्ञ कई नए राग लेकर था मिलते हैं। उनकी रचनायों में रूपों की विविधता दर्शनीय है। जनक-जन्य रागों का उनका सिद्धान्त वेंकटमणी के सिद्धान्त से ही नहीं धपितु उनके विख्यात समसामयिक, मुसुस्वामी दीक्षित की रचनायों के सिद्धान्त से भी भिन्न है। माय ही उनकी रचनायों में कई नये राग भी हैं जो त्यागराज की मौलिक प्रतिना की सृष्टि है। मेल-जन्य का जो सिद्धान्त उनके समय से चला आ रहा है वह त्यागराज के ही प्रयोग का फल है। उनका सबसे बड़ा सम्मान तो यह है कि उनके बाद से धाज तक के सभी संगीतकारों ने उन्हीं के मार्ग का यनुमरण किया है और उनकी रचनाधों को अपना आदर्श माना है।
त्यागराज के गीतों से प्रकट है कि मौलिक प्रतिभा के पनी होते हुए भी उनकी जड़ें अपनी परम्परा में बड़े गहरे तक जमी हुई थीं। पुरन्दरदास के पद, भद्राचल रामदास के राम-सम्बन्धी गीत, धादि अपने पूर्ववतियों की कृतियों का उन्होंने गहरा अध्ययन किया था। उनकी रचनाधों की बहुमुली प्रभा से यह स्पष्ट होता है कि उनकी सर्जनात्मकता का विद्वत्तापूर्ण और वौद्धिक पक्ष भी था।
त्यागराज भक्तों को उस परम्परा में पाते हैं जिनकी नाम-जप में आस्था थी। उन्होंने घपनी ग्राध्यात्मिक दीक्षा तत्कालीन उपदेशकों से प्राप्त की थी। इनमें रामकृष्णानन्द प्रमुख हैं जिनकी उन्होंने अपने नौका-चरित्र में बन्दना की है। ऐसा माना जाता है कि राम नाम जप के नियम और परम्परा के अनुसार त्यागराज ने राम-नाम का कोटि-जप-प्रत पूरा करके सिद्धि प्राप्त की थी। उनकी रचनाओं में राम-नाम के तारकत्व-सिद्धान्त से सम्बन्धित गीतों और नाम-माहात्म्य के गीतों के अलावा ऐसे गीत भी शामिल हैं जिनमें राम-नाम के स्मरण और जप की विधि बताई गई है। त्यागराज ने गीतों में स्पष्ट रूप से अपना यह मत व्यक्त किया है कि यंत्रवत् प्रभु का नाम रटने की बजाय भक्ति और ज्ञान से परिपूर्ण हृदय में सदाचरण करते हुए प्रभु के नाम को महत्ता को पूरी तरह घ्यान में रखकर नामोच्चार करना चाहिए। (द्रष्टव्यः तेलिसि राम चिन्तनतों नाम में राग 'पूर्ण चन्द्रिका')। अपने दैनिक जीवन में त्यागराज ने स्वेच्छा से निर्धनता का व्रत ग्रहण कर लिया था, संरक्षण को तिलांजलि देकर ( दृष्टव्य 'निषि चाल मुलमा राग कल्याणी) उन्छ-वृत्ति अपना ली थी। वे प्रतिदिन प्रभु का गुण-गन करने हुए भिक्षा करते थे और प्रभु के गीत रचने में लगे रहते थे।
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