मेरा मनना है कि मनुष्य ने जब एक-दूसरे से संवाद प्रारंभ किया होगा उसके साथ ही संस्मरण का जन्म हुआ होगा। अपने अनुभवों, घटित घटनाओं और अपनों के बारे में दूसरे को बताने से वाचिक रूप में इसका प्रारंभ हुआ होगा। अंग्रेजी का 'Memoir' शब्द फ्रेंच के mémoire से बना है जिसका अर्थ 'reminiscence' अथवा 'memory' होता है। संस्मरण लेखन का इतिहास बता पाना संभव नहीं है, लेकिन चौथी शताब्दी के दौरान प्राप्त कुछ संस्मरणों में प्राचीन ग्रीस और रोम के वर्णन प्राप्त होते हैं।
संस्मरण का अर्थ होता है सम्यक स्मरण। पूर्व धारणा थी कि इसमें विशेष गुणों से युक्त किसी व्यक्ति को उसके गुणों के साथ स्मरण किया जाता है। लेकिन संस्मरण विधा के विकास के साथ संस्मरण में केवल उस व्यक्ति के विशेष गुणों को ही नहीं बल्कि उसकी कमियों को भी उद्घाटित किया जाने लगा है। इस दृष्टि से कांतिकुमार जैन के संस्मरणों का उल्लेख अपेक्षित है। मैंने भी ऐसा ही किया है। व्यक्ति में अच्छाइयों और कमजोरियों का होना स्वाभाविक है। लेखक केवल उसकी अच्छाइयों की चर्चा करे और उसकी कमियों को नजरदांज कर दे तब वह भावी पीढ़ी को उसके बारे में आधी जानकारी ही देगा। फिर भी एक लेखकीय तटस्थता आवश्यक है।
रेखाचित्र और संस्मरण में बहुत सूक्ष्म अंतर है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि रेखाचित्र की भांति संस्मरण लेखक वर्ण्य विषय के प्रति तटस्थ नहीं रहता। आत्मकथात्मक विधा होते हुए भी संस्मरण आत्मकथा से पर्याप्त भिन्न है। ईमानदारी दोनों के लिए आवश्यक है। जिसके के विषय में लिखा जा रहा है उसके विषय में सब सच ही लिखा जाना चाहिए।
प्रतापनारायण मिश्र पर 1907 में बालमुकुंद गुप्त द्वारा लिखा गया संस्मरण हिन्दी का पहला संस्मरण माना गया। बाद में 'हरिऔध' पर केंद्रित गुप्त जी द्वारा लिखित 'हरिऔध के संस्मरण' के नाम से उसी दौर में पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसमें हरिऔध पर 15 संस्मरण थे। इसे हिन्दी संस्मरण की प्रथम पुस्तक माना गया।
आज संस्मरण हिन्दी की एक सशक्त विधा के रूप में स्थापित है। इसका बड़ा श्रेय यदि कांतिकुमार जैन को दिया जाए तो अत्युक्ति न होगी जिनकी एक दर्जन से अधिक संस्मरण पुस्तकें प्रकाशित हैं। मैंने अब तक 84 संस्मरण लिखे हैं। मेरी चार संस्मरण पुस्तकें- 'यादों की लकीरें' (2012), 'भूले बिसरे पल' (2017), 'यादों के सफर' (2018) और 'यादों के आईनें में' (2021) प्रकाशित हो चुकी हैं। मैंने मानवेतर विषयों पर भी लिखा। यथा अपने दो श्वान, अपनी मेज, जिसपर बैठकर मैंने कितनी ही कहानियां, उपन्यास तथा अन्य विधाओं का लेखन किया, उस कमरे पर लिखा जो शक्तिनगर, दिल्ली के मेरे किराए के मकान में मेरी स्टडी हुआ करता था। अपने परिजनों, साहित्यकारों, महान विदेशी लेखकों को याद करते हुए लिखा तो तांगे वाले पर भी लिखा। 'उन्हें याद करते हुए' में संकलित सभी संस्मरण विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। व्यक्ति और लेखक के रूप में लेव तोलस्तोय ने मुझे बहुत प्रभावित किया इसलिए मैंने विस्तार से उनके जीवन पर लिखा है। उसी प्रकार बहादुरशाह जफ़र पर लिखा गया। इसके परिशिष्ट में प्रतापनारायण श्रीवास्तव का पंडित विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक' पर लिखा गया संस्मरण संकलित है। उसे यहां देने का कारण संस्मरण से पहले मैंने स्पष्ट कर दिया है। पंडित विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' और श्रीवास्तव जी कानपुर की विभूति थे।
आशा है मेरी पूर्व प्रकाशित संस्मरण पुस्तकों की भांति इस पुस्तक का भी पाठक स्वागत करेंगे।
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