डॉ० नज़मा अन्सारी का शोध-प्रबन्ध "उपन्यासकार शिवानी संवेदना और शिल्प" प्रकाशित हो रहा है जो अपने आप में बड़े परितोष का विषय है। नज़मा जी अध्ययन काल से ही एक मेधावी छात्रा के रूप में अपने आप को प्रस्थापित करने में संलग्न रहीं जिसकी अभूतपूर्व फलश्रुति शोध प्रबन्ध का प्रकाशन है। आज सौराष्ट्र विश्वविद्यालय राजकोट की एक वरिष्ठ प्राध्यापिका के रूप में जानी जाती हैं जो स्नातक एवं अनुस्नातक कक्षाओं के अध्ययन-अध्यापन से जुड़ी हुई हैं। यह उनके निरंतर अध्यवसाय का प्रतिफल है।
स्वातंत्र्योत्तर काल में उद्योगीकरण, यांत्रिकीकरण, राजनैतिक उथल-पुथल और अस्तित्ववादी, भौतिकोन्मुख चिन्तन परंपरा ने सबको झकझोर कर रख दिया। फलस्वरूप नारी-शिक्षा एवं नारी जागरण का व्यापक प्रचार-प्रसार संभव हो पाया। अतः हिन्दी साहित्य जगत में कुछ सशक्त नारी लेखिकाओं का उदय हुआ। अमृता प्रीतम, शिवानी जी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियम्वदा जैसी महिला सर्जकों में शिवानी जी का नाम बड़े गौरव से याद किया जाता है। उनके साहित्य का इस शोध प्रबन्ध में डॉ० अन्सारी ने बड़ी तटस्थता और संजीदगी के साथ विवेचन किया है। शिवानी जी के कथा-साहित्य पर लिखित यह समीक्षा ग्रन्थ अत्यन्त सराहनीय है। इसमें लेखिका ने शिवानी जी की जीवन दृष्टि, साहित्य-दृष्टि, कथा-चेतना और उनके साहित्यिक अवदानों को पूरी समग्रता और सूक्ष्मता से विश्लेषित किया है।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र कहा था, शिवानी जी ने इस कथन को अपने उपन्यासों में साकार कर दिखाया है। एक वैभवपूर्ण वातावरण में संवर्धित नारी का हृदय सामान्य एवं मध्यमवर्ग के पात्रों के प्रति कितना संवेदित है, मुख्यतः नारियों के प्रति। इसका जीता-जागता उदाहरण इनके उपन्यासों की पात्र-सृष्टि है। प्रेमचन्द जी के उपन्यासों में जिस प्रकार उत्तर भारत का ग्राम्य-जीवन साकार हो उठा है उसी प्रकार शिवानी जी के उपन्यासों में पर्वतीय प्रदेशों की जिन्दगी मुखरित हो उठी है। भाषावाद, प्रदेशवाद, जातिवाद, ऊँच-नीच के भेदभाव के युग में शिवानी जी इन सब वादों से मुक्त थीं। उनका तो एक ही वाद था- मानववाद। वे मंदिरों में जाती थीं, मस्जिदों में जाती थीं तथा ईद के मेले में भी जाती थीं तो कभी गिरिजाघर में भी अपना मस्तक झुकाती र्थी। ऐसी सांप्रदायिक सदभावना-संपन्न शिवानी को पढ़ना अपने आप में त्रिवेणी के मंद-मंद प्रवाह में स्नान करने जैसा है। जिस हामिद भाई की कलाइयों में वे राखी बाँधती थीं, उसके ये शब्द "न तुम हिन्दू न हम मुसलमान, न तुम्हारे मंदिर न हमारी मस्जिद। बस यह याद रखना बच्ची तुम हमारी बहन और हम तुम्हारे भाई" - हिन्दू-मुस्लिम, भाई-बहन की एकता के संदेशवाहक हैं।
शिवानी जी की परिगणना संस्कृति की बहुरंगी प्रतिमा के रूप में की जाती है। 'शान्ति निकेतन' के अध्ययन, विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के उदात्त मानवीय संस्पर्श एवं डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समर्थ साहित्यकार की प्रेरणा ने उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को धनी बना दिया। उन्होंने अपने अनुभूत यथार्थ को ही संवेदित स्वरों में उद्घाटित करने का सार्थक और ईमानदार प्रयत्न किया। वे कहती थीं- "लेखनी वही सार्थक है जो जीवन की जटिलताओं को स्वचक्षुओं से देख, स्तुति-निंदा के भय से मुक्त हो, सत्य को लिपिबद्ध कर सके, उसका यह प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जा सकता।
मुंशी प्रेमचन्द के 'गोदान' जैसी कोई कालजयी महाकाय रचना भले ही शिवानी जी न दे पाई हो पर छोटे-बड़े जितने भी उपन्यासों की रचना उन्होंने की है, संवेदना के स्तर पर वे सभी रचनाएँ श्लाघ्य एवं स्तुत्य हैं। 'मायापुरी', 'चौदह फेरे', 'भैरवी', 'कृष्णकली', 'श्मशानचंपा', 'सुरंगमा', 'अतिथि' और 'कालिन्दी' जैसे कुछ दीर्घकायी उपन्यास हैं तो 'विषकन्या', 'कैंजा', 'रतिविलाप', 'स्वयंसिद्धा', 'रथ्या', 'गैंडा', 'माणिक', 'कृष्णवेली' तथा 'कस्तूरीमृग' जैसे अनेक लघुकायी उपन्यासों की भी सर्जना करके उन्होंने एक बहुत बड़े पाठक वृन्द को अपने साथ आत्मसात कर रखा है। इस युग के उपन्यासकारों में शिवानी जी ने जितने पाठक वृन्द तैयार किए, शायद ही किसी अन्य लेखिका के द्वारा संभव हो पाया है। यह उनकी लोकप्रियता की अलभ्यतम देन है।
विद्वत मनीषियों की अवधारणा है कि 'शिवानी' उस व्यक्तित्व का नाम है जिसने अपने रचना-धर्म में संवेदना विचार, अनुभव और रचनाशिल्प हर आयाम में लीक से हटकर जोखिम उठाते हुए बराबर नई जमीनों और नई दिशाओं की तलाश की है तथा उन जमीनों और दिशाओं में निष्ठापूर्वक चलते हुए अपनी रचना-धर्मिता को एक अलग पहचान दी है। बँधी-बँधाई परंपराओं से हटकर अनुभूति और नई जमीन पर चलना मानो शिवानी जी का अपना स्वभाव बन गया है। भारतीय संस्कृति की गरिमा, विरासत और परंपरा के महत्त्व को स्वीकार करते हुए उनके सार्थक और प्राणवान पहलुओं को अपनी रचनाधर्मिता का हिस्सा बनाते हुए भी शिवानी जी कभी अन्धानुगामी नहीं रहीं। अपने बदलते समय संदर्भों में संवेदना और सोच के नए रूपों और तकाजों के साथ अपने समय के पाठक समाज में मुखातिब होती रही हैं। इसी रचना धर्मिता के वैशिष्ट्य के कारण उनकी रचनाएँ एक बहुत बड़े पाठक समाज को स्वीकार्य भी हुई हैं।
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