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उर्दू मसनवियाँ- Urdu Masnavis Based on Indian Folklore

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Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Gopi Chand Narang
Language: Hindi
Pages: 263
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 390 gm
Edition: 2018
ISBN: 9789326354516
HBS459
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Book Description
पुस्तक परिचय
गजल के बाद हमारे शायरों ने जिस विधा पर सबसे ज़्यादा अभ्यास किया, वह मसनवी ही है। उर्दू की दूसरी विधाओं की तरह हमारी मसनवियाँ भी उस ग्रहण व स्वीकार, मेल-जोल और साझेदारी का पता देती हैं जो हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी मेल-जोल के बाद यहाँ सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर भी सक्रिय रहीं।

संयोग की बात है कि उस जमाने में जब उर्दू शायरी अभी अपने विकास की मंज़िलें, मजहब व तसव्वुफ़ के सहारे तय कर रही थी, उर्दू की सर्वप्रथम मसनवी में एक भारतीय क़िस्से को विषयवस्तु बनाया गया। यह मसनवी बह्मनी दौर के एक शायर निज़ामी से सम्बद्ध की जाती है और उसमें कदमराव पदमराव का स्थानीय क़िस्से का वर्णन है। यह मसनवी सम्भवतः अहमद शाह सालिस बह्मनी (865-867 हि.) के ज़माने में लिखी गयी।

प्राचीन मसनवियों में साधारणतः क़िस्से कहानियाँ बयान की जाती थीं, जिनका गहरा सम्बन्ध राष्ट्रीय परम्पराओं, धर्म और सामाजिक जीवन से होता था। हमारी मसनवियाँ चूँकि साझा संस्कृति और मिले-जुले सामाजिक जीवन के प्रभाव में लिखी गयीं, इसलिए उनमें इस्लामी क़िस्से कहानियों के अलावा भारतीय लोक कथाओं और लोक परम्पराओं से प्रभावित होने का रुझान भी पाया जाता है। इसी रुझान का वस्तुपरक और शोधपरक दृष्टि से जाँच परख करना प्रस्तुत पुस्तक का विषय है।

लेखक परिचय
गोपीचन्द नारंग जन्म : 11 फ़रवरी, 1931 को दुक्की, बलूचिस्तान में। शिक्षा : 1958 में दिल्ली विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट तथा इंडियाना यूनिवर्सिटी से भाषा-विज्ञान में उच्च शिक्षा । 80 पुस्तकों के लेखक आलोचक, शोध, भाषा-विज्ञान में निष्णात प्रो. नारंग ने सेंट स्टीफेन्स कॉलेज, दिल्ली में अध्यापन की शुरुआत तदुपरान्त दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में स्थानान्तरित हो गये। 1974 से 1985 तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफ़ेसर और कार्यवाहक उपकुलपति रहे। विसकॉन्सिन यूनिवर्सिटी (1963-65, 1968-70) में और कुछ समय मिनीसोटा यूनिवर्सिटी और ओसलो यूनिवर्सिटी, नॉर्वे में विजिटिंग प्रोफ़ेसर रहे। साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष और नेशनल काउंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ उर्दू एवं उर्दू अकादमी, दिल्ली के वाइस चेयरमैन भी रहे हैं।

भूमिका
उर्दू में शोध की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, यह बात अफ़सोसनाक है कि उर्दू मसनवी पर अभी तक कोई समूचित काम नहीं हुआ। ग़ज़ल के बाद हमारे शायरों ने जिस विधा पर सबसे ज़्यादा अभ्यास किया, वह मसनवी ही है। ग़ज़ल पर तो इन कुछ वर्षों में दफ़्तर सियाह कर दिये गये हैं, लेकिन मसनवी का कोई पुरसाने हाल भी नहीं। अमीर अहमद अलवी ने 'मसनवियात' पर एक आलेख 1935 ई. में निगार के लिए लिखा था, यही बाद में पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर दिया गया। अब्दुल क़ादिर सरवरी की किताब 'उर्दू मसनवी का इर्तिक़ा' भी लगभग बीस वर्ष पूर्व लिखी गयी थी। जलालुद्दीन जाफ़री कि किताब 'तारीखे मसनवियाते उर्दू' के नाम से दो बार प्रकाशित हो चुकी है। लेकिन इसकी ऐतिहासिक और शोधपरक विशेषता नहीं। इसमें ज़्यादा ध्यान मशहूर उर्दू मसनवियों का चयन प्रस्तुत करने पर दिया गया है। इस मध्य उर्दू में शोध ने विकास की जो मंज़िलें तय की हैं, उनके समक्ष उर्दू मसनवी के ऐतिहासिक विकास का शोधपरक और साहित्यिक समीक्षा करना अति आवश्यक हो गया है। विभिन्न विश्व विद्यालयों में इस क्रम में काम जारी है। भोपाल में डॉ. ज्ञानचन्द जैन "शिमाली हिन्दुस्तान में उर्दू मसनवी का इर्तिक़ा" पर शोध कर रहे हैं। उर्दू मसनवियों के मान-महत्ता को जानने और साहित्य के इतिहास में उनका उचित स्थान निर्धारित करने के लिए यह भी ज़रूरी है कि समीक्षा ऐतिहासिक व सामाजिक परिदृश्य के साथ की जाये। उर्दू साहित्य ने फ़ारसी से बहुत कुछ लिया।

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