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अष्टाङ्गसङ्ग्रह: 'अर्थप्रकाशिका' व्याख्यया समुल्लसितः- Vagbhata's Astanga Samgraha with 'Arthprakashika' Hindi Commentary: Sutrasthana, Sarirasthana, Nidansthana (Set of 2 Volumes)

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The Kashi Sanskrit Series 157
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Specifications
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Bhawan
Author Goverdhan Sharma Changadi, J.K. Ojha
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Pages: 1432
Cover: PAPERBACK
9.5x7 inch
Weight 2.06 kg
Edition: 2025
ISBN: 9788189986591
HBP639
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Book Description

भूमिका

आज से पाँच सौ से एक हजार वर्ष पहिले की लिखी हुई इन्दु, गयदास, डल्हण, चक्रपाणिदत्त, विजयरक्षित, श्रीकण्ठदत्त, शिवदास सेन, हेमाद्रि, अरुणदत्त आदि की व्याख्याओं में भेल, जतुकर्ण, पराशर, हारीत, क्षारपाणि, भोज, काश्यप, भद्रशौनक, वैतरण, निमि, कृष्णात्रेय, आलम्बायन, कराल, जीवक, भालुकि, विदेह (निमि), विश्वामित्र, खरनाद, दारुवाह, पौष्कलावत, दारुक, वृद्धकाश्यप, सात्यकि आदि अनेक आर्ष-संहिताओं के वचन प्रमाणतया उद्धृत किये हुए पाये जाते हैं। इससे मालूम होता है कि इन व्याख्याकारों के समय में अनेक आर्षसंहितायें उपलब्ध थीं। सम्भव है कि इनमें के कुछ वचन पिछले टीकाकारों ने अपने से पहिले लिखी गई प्राचीन व्याख्याओं से भी उद्धृत किये हों। जो कुछ भी हो, वाग्भट इन सब व्याख्याकारों से भी अधिक प्राचीन थे। उनके समय में इनसे अधिक अन्य आर्षतन्त्र भी उपलब्ध होने की सम्भावना है। वर्तमान समय में हमारे दैवदुर्विपाक के आर्थतन्त्रों में केवल दो, चरक संहिता और सुश्रुतसंहिता सम्पूर्ण तथा भेल और काश्यपसंहिता (वृद्धजीवकीय तन्त्र) ये दो खण्डित उपलब्ध होती हैं। हारीत संहिता भी मुद्रित उपलब्ध होती है परन्तु उसके आर्ष होने में विद्वानों को सन्देह है। स्वयं अष्टाङ्गसंग्रहकार के कहने से भी प्रतीत होता है कि उनके समय में पठन-पाठन में चरंक सुश्रुत का ही विशेष प्रचार था। संग्रह को देखने से यह भी पता लगता है कि अष्टाङ्गसंग्रह अर्थात् वृद्धवाग्भटकार ने अपने समय में उपलब्ध होने वाली प्राचीन संहिताओं का अच्छा आश्रय लिया था। इसलिए कि अनेक महत्त्व के विषय चरक सुश्रुत से भी अधिक अष्टाङ्ग-संग्रह में पाये जाते हैं। सारांश यह कि अष्टाङ्ग संग्रह के अध्ययन के बिना केवल चरक-सुश्रुत के अध्ययन से आयुर्वेद का यथार्थ अध्ययन सम्पूर्ण नहीं हो सकता।

इधर दस-पन्द्रह साल से यह अनुभव हो रहा है कि लोगों में संस्कृत भाषा के प्रचार का क्रमशः ह्रास हो रहा है। इतना ही नहीं, केवल संस्कृत के मूल ग्रन्थों और उनकी संस्कृत-व्याख्याओं द्वारा अध्यापन-अध्ययन में समर्थ अध्यापकों और छात्रों की संख्या भी उत्तरोत्तर घटती ही जा रही है। ऐसे समय में शास्त्र की रक्षा के लिए यह आवश्यक हो गया है कि भारत की प्रान्तीय भाषाओं में तथा विशेषतः राष्ट्रभाषा हिन्दी में आयुर्वेद के मौलिक संहिता ग्रन्थों का अनुवाद किया जावे परन्तु ये अनुवाद ऐसे होने चाहिये कि जिनमें मूल के विशद अनुवाद के साथ टीकाकारों के आशय तथा अन्य ग्रन्थों में इस विषय पर आये हुए भावों के साथ तुलनात्मक दृष्टि से स्पष्ट विचार प्रदर्शित किये गये हो। प्रसङ्गवशात् तद्विषयक दर्शनादि शास्त्रान्तरों के विषय का भी सोपपत्तिक वर्णन हो।

ऐसे अनुवाद करने के लिए अनुवादक भी ऐसे होने चाहिए जिनको आयुर्वेद के अच्छे ज्ञान के साथ शास्त्रान्तरों का भी अवश्य ज्ञान हो। इस ग्रन्थ के अनुवादक वैद्यभूषण पण्डित गोवर्धन शर्मा छांगाणीजी उपर्युक्त सब गुणों से सम्पन्न होने के साथ हिन्दी के भी अच्छे लेखक है। मेरा विश्वास है कि उनका यह अनुवाद अष्टाङ्ग-संग्रह के सम्यग्ज्ञान के लिए वैद्यों और छात्रों को परम उपादेय होगा। अन्त में मैं अष्टाङ्ग-संग्रह के ऐसे वक्तव्यों सहित विशद हिन्दी अनुवाद करने के लिए श्रीमान् छांगाणीजी को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ और आयुर्वेद के जिज्ञासुओं से सविनय निवेदन करता हूँ कि वे इस ग्रन्थ के अवलोकन से लाभ उठावें ।

प्राक्कथन

वृद्धवान्भट्ट अपरपर्याय अष्टाङ्ग-संग्रह के हिन्दी अनुवादकार्य का श्रीगणेश सन् १९३७-३८ से प्रारम्भ होकर १२-१३ साल तक चलता रहा और आज भी कुछ चल ही रहा है। इतने लम्बे समय के हिसाब से देखा जाय तो अष्टाङ्ग-संग्रह या सम्पूर्ण वृद्धवाग्भट्ट अर्थप्रकाशिका हिन्दी व्याख्यासहित पाठकों के सामने शीघ्र ही छपकर आ जाना चाहिये था। सम्पूर्ण तो दूर रहा, आज उसका प्रथम खण्ड केवल सूत्रस्थान ही हम पाठकों के सामने उपस्थित कर रहे है, सो क्यों ? इसके पीछे बड़ी रामकहानी है। उसके बिना जाने इस शंका का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए उत्सका वर्णन कर देना अनुचित न होगा, अपितु उचित ही होगा। सन् १९३६ या ३७ की बात है, मेरे मित्रों ने आम्हपूर्वक कहा कि मैं कुछ लिखूं और वह केवल साप्ताहिक मासिक पत्रों के लेखों, कविताओं की तरह नहीं, किन्तु किसी आयुर्वेदिक मौलिक संस्कृत ग्रन्थ के विशद हिन्दी अनुवादरूपेण लिखूँ। मैं अपनी कमियों की ओर निहारकर नित्रों के आग्रह को टालता ही रहा। किसी भी ऐसे काम को हाथ में नहीं लिया।

ईसवी सन् १९३७ या ३८ की बात है। मेरे उक्त मित्रों ने इच्छा प्रकट की कि अन्य कई आयुर्वेदिक ग्रन्थों के अनुवाद होकर छप गये हैं परन्तु वृद्धवाग्भट अर्थात् अष्टाङ्ग-संग्रह का अनुवाद आजतक किसी ने नहीं किया है। यदि कोई इसका सरल एवं विशद हिन्दी अनुवाद कर दे तो मैं उसे छापने की या प्रकाश में लाने की इच्छा करता हूँ। मित्र ने तुरन्त मेरी ओर अङ्गुलि निर्देश कर उनको लिख दिया। उनका मेरे पास एतदर्थ लिखा हुआ पत्र आया कि इसका श्रीगणेश कर दूँ। परन्तु मैंने उनको स्पष्ट लिख दिया कि मित्रों यह केवल दया है जो मुझे योग्य समझते है। मैं अब प्रतिदिन बुढ़ापे का अनुभव कर रहा हूँ। मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। आप क्षमा करें फिर भी मित्रों ने अनुवादकार्य की माला मेरे नहीं-नहीं करते डलवा ही दी। मेरी असमर्थता का अनुमान पाठक ग्रन्थारम्भ के मङ्गलाचरण के उस अन्तिम पथ से कर सकते है जिसमें 'वाग्भटस्य वचसां क्व गौरवं मामकी क्व च लघीयसी मतिः' आदि स्पष्ट निर्देश किया गया है।

चिकित्सा व्यवसाय में समय का अभाव रहते हुये भी कभी दिन में कभी रात में येन केनोपयेन समय निकालकर अनुवाद का कार्य करने लगा। फिर भी १०-१२ साल में अनुवादकार्य सूत्र, शरीर, निदान, चिकित्सा और कल्पस्थान तक ही सम्पन्न हो सका। अन्तिम उत्तरस्थान शेष था। पाण्डुलिपि ज्यों-ज्यों तैयार होती थी, त्यों ही लाहौर भेज दी जाती थी। घर में रहने के लिये लिखने की डबल मेहनत नहीं की जाती थी। हमारे बारम्बार आग्रह करने पर भी प्रकाशक इस बात पर अड़े रहे कि 'मुद्रणारम्भ तो तभी होगा जब सम्पूर्ण अनुवाद की प्रतिलिपि हमें मिल जायेगी। पूरा ग्रन्थ तड़ाक फड़ाक से निकाल देंगे, अन्ततोगत्त्वा हमारे विशेष आग्रह पर मुद्रणारम्भहुआ। बड़े सुन्दर तीन फारम छपकर आ गये। साथ में तीन फारम के प्रूफ भी प्राप्त हुये। वे संशोधनकर भेज दिये गये, इस तकाजे के साथ कि यावच्छक्य प्रूफ जल्दी-जल्दी भेजा करें क्योंकि लाहौर नागपुर से बहुत दूर है। इस जल्दी करने का फल कुछ भी नहीं हुआ। बीस दिन प्रतीक्षा करने के बाद लिखा गया कि न तो संशोधन होकर भेजे गये तीन फारम ही छपकर आए और न आगे के प्रूफ ही मिले परन्तु फिर भी कुछ उत्तर न मिला। बड़ी चिन्ता हुई।

श्रेयांसि बहुविघ्नानि

एक दिन प्रतीक्षा करते-करते बम्बई के मित्र का एक पत्र मिला, उसमें लिखा था कि 'बड़े दुःख की बात है कि आपका १०-१२ वर्ष का किया हुआ परिश्रम सब व्यर्थ हो गया।

इस प्रकार के दुःखमय संवाद से हमारी उस समय कैसी दशा हुई, इसका वर्णन करना इस क्षुद्र लेखिनी की शक्ति से बाहर की बात है। 'कीर्तिरक्षरसंबद्धा स्थिरा भवति भूतले' इस कयन के अनुसार हमने वार्धक्यावस्था में भी मित्रों के पवित्र आग्रह से १०-१२ वर्ष परिश्रम किया कि 'चलो इस कृति से एक प्रकार से अमर हो जायेंगे परन्तु दैव को यह मंजूर नहीं था। इसीसे यह सारा मामला चौपट हो गया। बारम्बार यह स्मरण मुझे बड़ी भारी चिन्ता में पटकता रहा परन्तु भावी होकर रहती है, इसका उपाय ही क्या हो सकता है? इससे फिर शान्त हो जाता। वस्तुतः इस घटना से मेरे हृदय पर धक्का-सा लगा। अन्ततोगत्वा चिन्ता करते-करते एक वर्ष के बाद मुझे एक मित्र ने दिल्ली से पत्र लिखा कि परमपिता परमात्मा फिर भी बड़े दयालु हैं। उनकी दयालुता ने ही हमें हर तरह से बचाया है। हममें से किसी के बाल का भी धक्का नहीं लगा। हमारा बरसों का किया हुआ परिश्रम सब मिट्टी में मिल गया ।' परन्तु फिर भी छांगाणीजी भाग्यवान् हैं। वे सर्वचा नहीं मरे हैं, अपितु जीवित है। इसका प्रमाण मैं उनको मिलने पर दूंगा। क्या पूज्य छांगाणीजी के दर्शनों का सौभाग्य हमें किसी प्रकार जल्दी मिल सकता है ?' मैंने कहा अवश्य मिलेगा। इसमें विशेष विलम्ब नहीं होगा। दिल्ली में दो तीन माह में निखिल भारतीय आयुर्वेदमहासम्मेलन आयुर्वेदमार्तण्ड श्रीयादवजी महाराज की अध्यक्षता में होना निश्चित हो चुका है। उसमें छांगाणी जी का पधारना भी निश्चित समझिए क्योंकि वे अध्यक्ष महोदय के अभित्र हृदय मित्र है। आप छांगाणीजी को लिख दें कि चिन्ता न करें 'वे जीवित हैं।'

ठीक दो तीन महीने बाद दिल्ली में आयुर्वेद-महासम्मेलन बड़ी शान-शौकत के साथ हुआ। मैं भी पहुंचा और वहाँ अध्यक्ष महोदय श्री आचार्यजी के पास में ही ठहरा। वे दूसरे दिन सार्यकाल में हम लोगों के पास पहुँचे। मैं आराम कर रहा था, आप इनसे अष्टाङ्ग-संग्रह के विषय में कुछ बातचीत करना चाहते हों तो कर सकते हैं।' मैने कपाल पर हाथ रखते हुए दुःख से कहा कि क्या बातचीत करूँ? मैं भाग्यवान् हूँ और जीवित हूँ, कुछ समझ नहीं पड़ता। राजर्षि रामदासस्वामी के 'सत्यसंकल्पाचा दाता भगवान्' इस कथन पर मेरा दृढ़ विश्वास है। भगवान मेरे सत्य संकल्प की पूर्ति अवश्य करके पूरा अष्टाङ्गसंग्रह मेरे हाथों से लिखवाकर पाठकों के सम्मुख लायेगा। एवमेवास्तु ।

**Contents and Sample Pages**








































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