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वाजश्रवा के बहाने- Vajashrava Ke Bahane (Collection of Poetry)

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Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Kunwar Narayan
Language: Hindi
Pages: 159
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 330 gm
Edition: 2024
ISBN: 9788126319824
HBQ949
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Book Description

पूर्वकथन

आज से लगभग आधी सदी पहले का वह दशक याद आता है जब मैंने मृत्यु को अचानक बहुत नज़दीक से जाना था। बाद के वर्षों में जीवन को ज्यादा नज़दीक से जाना है। यादों में दोनों अनुभवों की एक मिलीजुली उपस्थिति है। जीवन का अपना सम्मोहन होता है जो मृत्यु के सन्त्रास के बावजूद हमें जीने की शक्ति देता है।

वाजश्रवा के बहाने जीवन के इसी प्रबल आकर्षण के स्पर्श की चेष्टा है। इस जिजीविषा के विभिन्न आयाम चाहे भौतिक हों या आत्मिक, चाहे बौद्धिक (दार्शनिक) हों या भावनात्मक, तत्त्वतः वे हैं जैविक ही।

आत्मजयी में यदि मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है, तो वाजश्रवा के बहाने में जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की एक कोशिश है।

इस 'देखने' (पश्य) का विशेष महत्त्व है। अन्ततः दोनों एक-से ही 'निष्कर्ष-बिन्दु' पर पहुँचते-से लगते हैं-कि जहाँ जीवन को लाँघकर, आकाश मार्ग से, पहुँचा जा सकता है, वहीं शायद जीवन को जीते हुए, थल-मार्ग से भी।

वाजश्रवा के मन में आत्मिक ऊहापोह कम हैं, वैदिक जीवन-दृष्टि की लौकिकता प्रमुख है। आज की भौतिकता में भी उसकी एक झलक पहचानी जा सकती है। साथ ही, वाजश्रवा के मन में गहरा विक्षोभ भी है अपने उस 'अशुभ-क्रोध' को लेकर जिसके कारण उसके जीवन-यज्ञ में इतना बड़ा व्यवधान पड़ जाता है।

पुत्र की 'वापसी' एक अमूल्य अवसर है कि वाजश्रवा अपनी भूलचूकों को सुधार ले। इस अवसर, तथा जीवन में आते रहनेवाले इस तरह के अवसरों को, इस लम्बी कविता में विशेष महत्त्व दिया गया है। पछतावा, पुनरागमन जैसे शब्दों में यही भाव व्यंजित है। 'वापसी' जैसे भाव कविता में बार-बार लौटते हैं। आशा-निराशा के बीच झूलती मनःस्थितियों की लहरें हैं। पिता-पुत्र के सम्बन्धों को मूलतः द्वन्द्वात्मक ढंग से न देखकर संयुक्त या 'दोहरी' जीवनशक्ति के रूप में देखा है। 'क्षमाभाव' और 'पश्चाताप' इसी शक्ति के द्योतक हैं। शक्ति के उग्र और विस्फोटक रूप की अपेक्षा संयत, उदार और अनुशासित पक्षों में अधिक आस्था व्यक्त की गयी है। जीवन में संघर्ष भी हैं, पर संघर्ष-ही-संघर्ष नहीं हैं। इस तरह चित्रित करने से कि जीवन सतत संघर्षमय ही है उसकी जरूरत से ज़्यादा क्रूर छवि उभरती है। उसमें मार्मिक समझौते और सुन्दर सुलहें भी हैं, इस विवेक को प्रमुख रखकर भी जीवन को सोचा और चित्रित किया जा सकता है। संघर्ष और हिंसा अतिवाद में है न कि विभिन्नताओं में। भौतिक और आत्मिक के बीच समझौता आसान है, लेकिन 'अति-भौतिक' और 'अति-आत्मिक' के बीच समझौता लगभग असम्भव ! हिंसा की जड़ें इसी 'अति' में हैं।

पूरी रचना में प्रबन्ध-तत्त्व को बहुत चुस्त और व्य-वस्थित न रखकर ढीला-ढाला रखा गया है। विभिन्न अंशों के बीच तार्किक औचित्य बैठाने की अपेक्षा उनकी जैविक संचेतना को प्रमुखता दी गयी है, यह मानते हुए कि प्रकृति की विकास-योजना नितान्त सांयोगिक नहीं। उसके नियम जीवन-विरोधी नहीं; उनमें एक सन्तुलन बनाये रखने की युक्तियाँ और विधियाँ हैं। विभिन्नताएँ एक-दूसरे की दुश्मन नहीं, एक-दूसरे की पूरक विशिष्टताएँ हैं। रचना में विभिन्न खंड कुछ इस तरह एक दूसरे में आते जाते रहते हैं मानो उनके बीच में विभाजक रेखाएँ न होकर अलिखित सन्धियाँ हों। उनका अस्तित्व उनकी पहचान से ज्यादा बड़ी सचाई हो। हमारे समग्र जीवन-बोध में वे उसी तरह हैं जैसे हमारी चेतना में हमारे विचार, अनुभव, स्मृतियाँ, कल्पनाएँ आदि-साथ-साथ और विशिष्ट भी। वे स्वतन्त्र कड़ियाँ भी हैं और एक-दूसरे को जोड़नेवाली कड़ियाँ भी।

मेरी अवधारणा में अतीत की ओर लौटने का कोई आग्रह नहीं है। ऐसे कुछ विचारों और धारणाओं का पुनरवलोकन है जो आज कुछ विशिष्ट अर्थों में हमारे लिए पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक ठहरते हैं।

प्रकृति को आज हम जिस तरह बरत रहे हैं, यह उसका आत्मघाती दोहन और शोषण है। इस माने में वैदिक मनुष्य हमसे कहीं अधिक सभ्य था। प्रकृति से कुछ 'ग्रहण' (पाने) से पहले कुछ 'अर्पण' (देने) का यज्ञ-भाव जिसमें दोनों का हित निहित था, वैदिक मनुष्य की दिनचर्या में प्राथमिक महत्त्व रखता था। देवताओं को प्रसन्न रखने में उसका अपना स्वार्थ स्पष्ट था लेकिन इस भावना में सौजन्य और विनम्रता थी। पृथ्वी को उजाड़ कर लूट लेने की अधीर बर्बरता नहीं। यह एक दृष्टिकोण था जो पृथ्वी और प्रकृति पर ही लागू नहीं होता, बल्कि एक-दूसरे के साथ रहने की संस्कृति और सदाचार को भी बल देता है। प्रकृति के प्रति इस बहिर्मुखी मानवता को हम उपनिषदों तक आते-आते एक आत्मिक संस्कृति में विस्तृत होते देखते हैं- द्वन्द्वमूलक ढंग से नहीं, अधिक आत्मसजग ढंग से।

कृति में ऋग्वेद की कुछ सूक्तियों- उनकी गूँजों और अनुगूँजों-विशेषतः 'कः', 'हिरण्यगर्भ', 'पुरुष', 'नासदीय', 'सृष्टि', 'उषस्' आदि की स्पष्ट अस्पष्ट ध्वनियों को आसानी से पहचाना जा सकेगा। पहले भाग 'नचिकेता की वापसी' में जीवन के आह्वान और उदय को देखा गया है। दूसरे भाग 'वाजश्रवा के बहाने' में एक विदग्ध जीवन का सायंकाल है।

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