"दार्शनिक चिंतन के विविध आयाम" लेखक दंपति की दार्शनिक प्रतिबद्धता का प्रतिफल है। "भारत में वैचारिक स्वराज्य की स्थापना राष्ट्र भाषा हिन्दी के माध्यम से संभव है;" इस पूर्वमान्यता के आधार पर पूर्व में प्रकाशित शोध आलेखों का सप्रत्ययात्मक पुनर्विन्यास, नवीन अंतर्दृष्टि से यथा संभव परिष्कार के उपरान्त यह पुस्तकीय स्वरुप में दार्शनिक सुधी जन के समक्ष प्रस्तुत है। यहाँ पर संकलित आलेख विभिन्न दार्शनिक संगोष्ठियों, विशिष्ट व्याख्यान मालाओं एवं संपादित ग्रंथों के उद्देश्यपूर्ति हेतु विरचित हैं, अतएव वैविध्य का होना स्वाभाविक ही है। यदि हम इन आलेखों में तार्किक अनुक्रम एवं वैचारिक तारतम्य का अनुसंधान करें तो हम इन्हें पाँच वर्गों में वर्गीकृत कर सकते हैं-प्रथम वर्ग में सम्मिलित 'दर्शन की प्रासंगिकता', 'तत्त्वमीमांसा का स्वरुप एवं औचित्य', 'मूल्य के स्वरुप का तात्विक विवेचन', 'धर्म एवं विश्वशान्ति का दार्शनिक विमर्श' दर्शन की सामान्य मूलभूत समस्या से संबद्ध हैं। द्वितीय कोटि में सन्निहित लेखों में 'अभाव निरुपण', 'वाक्यार्थ विचार', 'प्रामाण्यवाद', 'प्रमाणान्तर्भाव प्रकरण' एवं 'युक्तिदीपिका में पुरुष विवेचन'- भारतीय प्रमाणमीमांसा के शास्त्रीय अनुशीलन में संलग्न हैं। समकालीन भारतीय दर्शन की विवेचना का प्रयास तृतीय वर्ग में संकलित आलेख 'मानवेन्द्र नाथ राय के भौतिकवाद की तार्किक निष्पत्ति', 'काण्ट का समकालीन भारतीय दर्शन पर प्रभाव', 'स्वातन्त्र्योत्तर भारतीय दार्शनिक चिंतन', 'भारतीय दर्शन का भावी स्वरुप' में किया गया है। चतुर्थ कोटि के लेख 'असंज्ञानात्मक नीतिशास्त्र', 'अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र', 'भारतीय दर्शन में पर्यावरणीय चिंतन', 'बुद्ध देशना में पर्यावरणीय चिंतन'- नीतिशास्त्रीय समस्याओं के विश्लेषण में पर्यवसित होते हैं। अंतिम वर्ग के लेखों का स्वरुप समकालीन पाश्चात्य दर्शन से संबद्ध अद्यतन प्रत्ययों तथा समस्याओं का विवेचन एवं परीक्षण है, जिसके अंतर्गत 'वैयक्तिक अनन्यता : भारतीय एवं पाश्चात्य परिदृश्य', 'ज्ञान एवं निश्चितता का अन्तर्सम्बन्ध', 'जीवन लोक की अवधारणा', 'भूमण्डलीकरण एवं बहुसांस्कृतिकवाद' का दार्शनिक महत्त्व है।
वैचारिक योजना के संक्षिप्त परिचय के उपरान्त हम इन आलेखों के स्वरुप, निहितार्थ एवं महत्त्व को निरुपित करने का प्रयास करेंगे जिसका अभीष्ट पाठकों के साथ सार्थक संवाद स्थापित करना है। दर्शन एक स्वचैतन्य विमर्शात्मक क्रिया है, अतः यह द्वितीय स्तर की गवेषणा है। दर्शनशास्त्र के विषय में प्रचलित भ्रान्ति है कि यह शुष्क तार्किक चिंतन है जिसका मानवीय समस्याओं के समाधान एवं व्यवहार नियंत्रण में कोई योगदान नहीं है। इस प्रकार से दर्शन की व्यावहारिक उपादेयता पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है, किन्तु दर्शन का जीवन से अत्यन्त ही घनिष्ठ संबन्ध है क्योंकि यह हमें शिक्षित एवं संस्कारित करता है कि कैसे आनन्दमय, सफल एवं श्रेष्ठ जीवनयापन किया जाए और यही अनुप्रयुक्त दर्शन का उद्देश्य है। दर्शन की प्रासंगिकता में इसे जीवन एवं सत्ता के समस्त सत्य की गवेषणा तथा उपलब्धि के रुप में ग्रहण किया गया है। दर्शन की अर्थवत्ता / सार्थकता संस्कृति निर्माण, मूल्य बोध, प्रमाणिक जीवन शैली को विकसित एवं समृद्ध करने में निहित है। तत्त्वमीमांसा का स्वरुप एवं औचित्य-यह स्थापित करने का प्रयास करता है कि तत्त्वमीमांसा कोई सिद्धान्त नहीं अपितु सिद्धान्तीकरण का अवबोध है एवं जिसके लिए उपयुक्त विधि न तो सृजनात्मक संश्लेषण है जिसका प्रयोग कला में होता है और न ही आनुभविक निरीक्षण एवं सत्यापन है जो कि विज्ञान के लिए उपयोगी है, अपितु विमर्श अथवा विश्लेषण है। तत्वमीमांसा का औचित्य एवं पुनर्प्रतिष्ठा समकालीन भारतीय दार्शनिकों का महत्वपूर्ण अवदान है, जहाँ वे अतिवैज्ञानिक दृष्टि का निरसन और तार्किक भाववादियों के खण्डन में जो दोष हैं, उसे ही प्रस्तुत नहीं करते हैं, अपितु तत्त्वमीमांसा की रक्षा के लिए इसके स्वरुप, उद्देश्य एवं औचित्य को भी प्रदर्शित करते हैं। मूल्य के स्वरुप का तात्विक विवेचन-मूल्य के अंतर्गत तीन घटकों को स्वीकार करता है-एषणा, विवेक एवं स्वतत्रता। मूल्यान्वेषण मानवीय चेतना का स्वभाव है क्योंकि आत्मानुरुप विषय को खोजती हुई चेतना की यात्रा अपने स्वरुप की ओर उद्दिष्ट है।
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