भारतवर्ष में जाति-प्रथा बहुत पुरानी है। ब्राह्मण धर्म के प्रसार के साथ समग्र देश में इसका प्रचार और प्रसार हुआ। वास्तव में ब्राह्मण धर्म का मूल आधार ही जाति-प्रथा है। इस धर्म का साहित्य और ऐतिहासिक तथ्य इसके साक्षी हैं। पर पिछली शताब्दियों के सामाजिक और राष्ट्रीय इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि जाति-प्रथा देश और मानव-समाज के लिए परिणाम अच्छा नहीं लायी।
यह तो स्पष्ट ही है कि जैनधर्म का जाति-धर्म के साथ थोड़ा भी सम्बन्ध नहीं है। मूल जैन साहित्य इसका साक्षी है। किन्तु मध्यकाल में जाति-धर्म का व्यापक प्रचार होने के कारण यह भी उससे अछूता न रह सका। इस काल में और इसके बाद जो जैन साहित्य लिखा गया, उसमें इसकी स्पष्ट छाया दृष्टिगोचर होती है। उत्तरकालीन कितने ही आचार्य, जो जैनधर्म के सर्वमान्य आधार स्तम्भ रहे, उन्हें भी किसी-न-किसी रूप में इसे प्रश्रय देना पड़ा। वर्तमान में जैनधर्म के अनुयायियों में जो जाति-प्रथा का प्रचार और उसके प्रति आग्रह दिखाई देता है, यह उसी का फल है।
समय बदला और अब देश यह सोचने लगा है कि जाति-प्रथा का अन्त कैसे किया जाये। यह सत्य है कि वैदिक सम्प्रदाय के भीतर जैसे-जैसे जाति-प्रथा का मूलोच्छेद होता जायेगा वैसे-वैसे जैन समाज भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। किन्तु यह स्थिति बहुत अच्छी नहीं। यह अनुवर्तीपन जैन समाज को कहीं का भी नहीं रहने देगा। वस्तुतः उसे इसका विचार अपने धर्मशास्त्र के आधार से ही करना चाहिए। धर्म के प्रति उसकी निष्ठा बनी रहे यह सर्वोपरि है।
जिन जैन आचार्यों ने जाति, कुल, गोत्र आदि की प्रथा को परिस्थितिवश धर्म का अंग बनाने का उपक्रम किया, उन्होंने भी इसे वीतराग भगवान् की वाणी या आगम कभी नहीं कहा। सोमदेवसूरि ने अपने यशस्तिलक में गृहस्थों के धर्म के लौकिक और पारलौकिक दो भेद किये हैं तथा लौकिक धर्म में वेदों और मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को ही प्रमाण बताया है, जैन आगम को नहीं। इसी प्रकार इन्होंने अपने नीतिवाक्यामृत में वेद आदि को त्रयी कहकर वर्णों और आश्रमों के धर्म और अधर्म की व्यवस्था त्रयी के अनुसार बतायी है-त्रयीतः खलु वर्णाश्रमाणां धर्माधर्मव्यवस्था ।
यह बात केवल सोमदेवसूरि ने ही नहीं कही, मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचार की (अध्याय ५ श्लोक ५९) टीका में लोक का अर्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किया है और उनके आचार को लौकिक आचार बताया है। स्पष्ट है कि लौकिक आचार से पारलौकिक आचार वे भी भिन्न मानते रहे।
महापुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन ने ब्राह्मणवर्ण के साथ जाति-प्रथा की उत्पत्ति भरत चक्रवर्ती के द्वारा बतायी है, केवलज्ञानसम्पन्न परम वीतरागी भगवान् आदिनाथ के मुख से नहीं। इससे भी यही ज्ञात होता है कि वे भी इसे पारलौकिक धर्म से जुदा ही मानते थे।
जैन धर्म में जाति-प्रथा को स्थान क्यों नहीं है, इस प्रश्न का सहज तर्क से समाधान करते हुए आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण में कहा है, "मनुष्यों में गाय और अश्व के समान कुछ भी आकृतिकृत भेद नहीं है। आकृति-भेद होता तो जातिकृत भेद मानना ठीक होता। परन्तु आकृतिभेद नहीं है; इसलिए पृथक् पृथक् जाति की कल्पना करना व्यर्थ है।"
आचार्य रविषेण ने अपने पद्मपुराण में जातिवाद का निषेध करते हुए यहाँ तक लिखा है कि कोई जाति गर्हित नहीं है, वास्तव में गुण कल्याण के कारण हैं, क्योंकि भगवान् जिनेन्द्र ने व्रतों में स्थित चाण्डाल को भी ब्राह्मण माना है।
अमितगति श्रावकाचार के कर्ता इससे भी जोरदार शब्दों में जातिवाद का निषेध करते हुए कहते हैं, "वास्तव में यह उच्च या नीचपने का विकल्प ही सुख या दुःख का करनेवाला है। कोई उच्च और नीच जाति है, और वह सुख और दुःख देती है, यह कदाचित् भी नहीं है। अपने उच्चपने का निदान करनेवाला कुबुद्धि पुरुष धर्म का नाश करता है और सुख को नहीं प्राप्त होता। जैसे बालू को पेलनेवाला लोकनिन्द्य पुरुष कष्ट भोगकर भी कुछ भी फल का भागी नहीं होता, ऐसे ही प्रकृत में जानना चाहिए।"
इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी भी आचार्य ने पारलौकिक (मोक्षमार्गरूप) धर्म में लौकिक धर्म को स्वीकार नहीं किया है और इसीलिए सोमदेवसूरि ने स्पष्ट शब्दों में धर्म के दो भेद करके पारलौकिक धर्म को जिन-आगम के आश्रित और लौकिक धर्म को वेदादि ग्रन्थों के आश्रित बतलाया है।
जैन परम्परा में यह जाति-प्रथा और तदाश्रित धर्म की स्थिति है।
ठीक इसी प्रकार गोत्र और कुल के विषयों में भी जानना चाहिए। आचार्य वीरसेन ने गोत्र का विचार करते हुए इक्ष्वाकु आदि कुलों को स्वयं काल्पनिक बतलाया है। कर्मशास्त्र में जिसे गोत्र कहा गया है वह लौकिक गोत्र से तो भिन्न है ही, क्योंकि गोत्र जीवविपाकी कर्म है। उसके उदय से जीव की नोआगमभाव पर्याय होती है अर्थात् जैसे जीव की मनुष्य पर्याय होती है वैसे ही वह पर्याय हो जाती है। और वह विग्रहगति में शरीर ग्रहण के पूर्व ही उत्पन्न हो जाती है, इसलिए उसका लौकिक गोत्र के साथ सम्बन्ध किसी भी अवस्था में स्थापित नहीं किया जा सकता।
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