बदलते हुए वैश्विक परिवेश के लिए, युगानुकूल धर्मशास्त्र की आवश्यकता भारत में है। चिन्तकों और धर्माचार्यों का भी यही मत है। इस विषय पर मौलिक ग्रन्थ लिखने वाले, धर्म के साक्षात्कर्ता अब अप्राप्त हैं।
अतः पुराने धर्मशास्त्रों का संशोधित संस्करण निकालना ही अन्तिम विकल्प है।
गीता में वेदोपनिषद् के ज्ञान को, गुरुग्रन्थ साहब में संतों की वाणी को, पुराणों में प्रकीर्ण लोक-प्रचलित धर्मों को संग्रहीत करके, धर्मग्रन्थों के बनाने की परम्परा पहले से है। मनुस्मृति में संशोधन करके, पराशर स्मृति तथा अन्य भी, युगानुरूप स्मृतियाँ बनी हैं। इसी आदर्श का अनुसरण करते हुए, मन्वादि स्मृतिकारों, पुराणेतिहास तथा आस्तिक साहित्यकारों एवं नीतिज्ञों की बातों का संग्रह करके, भावार्थ के साथ, यह एक सूक्ष्म, सरल कृति है। प्राचीन धर्मज्ञों की बातें ही इसमें संग्रहीत हैं, अतः इसे धर्मशास्त्र लिखने का अनधिकार प्रयास नहीं कहा जा सकता है। ऋषियों की वाणी ही इसमें संग्रहित है, अतः एक वैज्ञानिक आचार संहिता के रूप में यह आदरणीय है।
पुरानी स्मृतियों तथा विशालकाय ग्रन्थों में से वर्तमान में प्रासंगिक अंश ही इसमें हैं। मानव धर्म, प्रायश्चित्त, राजधर्म, अध्यात्मविद्या तथा सार्वभौम नीतियों का संग्रह इसमें मिलेगा।
धर्म में श्रद्धा रखने वाले किन्तु शास्त्रों के समुद्र में गोता लगाने में अक्षम लोगों के लिए यह आदरणीय कृति है। संस्कृति की सुरक्षा के साथ धर्म के ज्ञान के लिए, जन सामान्य को यह कृति उपयोगी होगी, ऐसा विश्वास है। संस्कृति और संस्कृत की रक्षा तथा सदाचार की प्रेरणा देकर, समाज के पुनर्जागरण हेतु यह एक विश्वसनीय प्रयास है।
'वैदिक आचारशास्त्र' विषयक ग्रंथ के लेखक श्री रामाश्रय तिवारी जी, पूर्व उपपरिवहन आयुक्त, उत्तर प्रदेश ने अपने इस ग्रंथ को कुल पाँच अध्यायों में विभाजित किया है जिसमें मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य, पराशर स्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद, योगशास्त्र, संक्षेप शारीरिक, पंचदशी एवं स्फुट सूक्तियों में आचार शास्त्र विषयक विभिन्न प्रकरण गत विषयों का ग्रन्थानुसार क्रमपूर्वक अत्यन्त सहजतया विवेचित किया है, जो सम्प्रति अत्यन्त लोकोपकारक है। वस्तुतः शास्त्र में जो विषय रहते थे वही व्यवहार में परिणत दिखता था। कालान्तर में भारत अनेक सांस्कृतिक संकटों से जूझता रहा, जिसकी परिणति हुई कि हम अपने जड़ों से कटते चले गये। सम्प्रति पाश्चात्य संस्कृति ने हमको अपने आचार व्यवहार विषयक विभिन्न नीतिपरक विषयों से दूर कर दिया है।
भवानी शङ्करी वन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिणी।
माता-पिता, कुल परम्परा, देश और स्वधर्म के ज्ञापन के बिना व्यक्ति का परिचय अपूर्ण रहता है। अतः संक्षेप में, अपने विषय में यह बातें लिखी जा रही हैं। जिला - मिर्जापुर, विन्ध्यक्षेत्र के गोसाईपुर गाँव में, धर्मप्राण पिता पं० केदारनाथ तिवारी एवं ममता की मूर्ति माता श्रद्धेया श्रीमती देवयानी की संतान होने का पुण्यफल विधाता ने दिया। कुल परम्परा एवं देश के प्रभाव से आरंभ से ही आस्तिक बुद्धि रही है। हनुमान चालीसा के पाठ से देवाराधन आरंभ हुआ। लल्लूलाल का लिखा प्रेम सागर घर में मिला। उसके पाठ से कृष्णा-चरित्र में प्रेम हुआ। तदनन्तर रामचरितमानस पढ़ने से राम के चरित्र में श्रद्धा हुई। विष्णु सहस्त्रनाम, दुर्गा सप्तशती, सौन्दर्य लहरी, श्री भुवनेश्वरी महास्तोत्र के पाठ, क्रमशः करते हुए रुद्राष्टाध्यायी के पाठ, अभिषेक के साथ शिवार्चन में मन लगा। पुराणेतिहास, रामायण, महाभारत, उपनिषद तथा प्रतीच्य साहित्य एवं राजनीति का भी कुछ अवलोकन करने का अवसर मिला। एम०ए०, एल०एल०बी० तक की डिग्री भी ले लिया था। राजकीय सेवा में जिम्मेदार पदों पर रहकर भी स्वाध्याय बाधित नहीं होता था। सवका प्रभाव रहा कि व्यक्तिगत साधना तथा सामाजिक कार्य ही स्वधर्म बन गए। सदाचार से आरंभ करके आत्मान्वेषण तक का जीवन-पथ अपने लिए तथा सभी को स्पष्ट करने की कामना बनती गयी।
अपने संकल्प को पूरा करने के लिए, चालीस वर्ष की उम्र (वर्ष 1981) में अपने मूल स्थान पर ही श्री भुवनेश्वरी विद्या प्रतिष्ठान नाम से एक शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था की स्थापना किया। इसके माध्यम से काशी के मूर्धन्य विद्वानों की उपस्थिति अपने संकल्प को पूरा करने के लिए, चालीस वर्ष की उम्र (वर्ष 1981) में अपने मूल स्थान पर ही श्री भुवनेश्वरी विद्या प्रतिष्ठान नाम से एक शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था की स्थापना किया। इसके माध्यम से काशी के मूर्धन्य विद्वानों की उपस्थिति के साथ, पन्द्रह वर्षों में 160 से अधिक सामयिक विषयों पर गोष्ठियों का आयोजन किया गया। सन् 2000 में सेवा से निवृत्त होने पर, पूर्णरूप से इन्हीं कार्यों में तथा कुछ लेखन में प्रवृत्ति पैदा हुई। अब तक छोटी-बड़ी आठ पुस्तकों की रचना की गयी। इस लेखन का भी प्रयोजन अपनी संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति ही है।
अब तक के प्रयासों से यथेष्ट परिणाम नहीं निकल रहे हैं। अतः समाज को संजीवनी शक्ति देने के लिए एक नैतिक राजनैतिक संगठन की स्थापना आवश्यक लगती है। समाज को कुटिलनीति से मुक्ति दिलाने में नैतिक राजनीति ही सक्षम है। इसके लिए साहित्य सृजन पहले से किया जा रहा है। उसी के अनुसार एक राजनैतिक दल का पंजीकरण कराकर, उत्साही साथियों और नवयुवकों को उसमें लगने के लिए प्रेरित करने तथा उन्हीं के हाथों में संचालन का भार देने की योजना बन चुकी है। अनुशासन का अधिकार अपने पास रखकर स्वयं पृष्ठभूमि में बने रहने का संकल्प है। इस उम्र में यही संभव है। आगे ईश्वरेच्छा पर निर्भर है।
अब तक की जीवन-यात्रा के अनुभव स्पष्ट कर रहे हैं कि स्वभाव का नियंत्रक कोई देवता है, जो सब करता और कराता है। मनुष्य निमित्त मात्र है। स्वभाव के अनुकूल आचरण करना (स्वधर्म) ही उस देवता की पूजा है। सदसद् सब उसी को समर्पित है।
वैदिक आचार शास्त्र विषयक ग्रंथ के लेखक श्री रामाश्रय तिवारी जी, पूर्व उपपरिवहन आयुक्त, उत्तर प्रदेश ने अपने इस ग्रंथ को कुल पाँच अध्यायों में विभाजित किया है जिसमें मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य, पराशर स्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद, योगशास्त्र, संक्षेप शारीरिक, पंचदशी एवं स्फुट सूक्तियों में आचार शास्त्र विषयक विभिन्न प्रकरण गत विषयों का ग्रन्थानुसार क्रमपूर्वक अत्यन्त सहजतया विवेचित किया है, जो सम्प्रति अत्यन्त लोकोपकारक है। वस्तुतः शास्त्र में जो विषय रहते थे वही व्यवहार में परिणत दिखता था। कालान्तर में भारत अनेक सांस्कृतिक संकटों से जूझता रहा, जिसकी परिणति हुई कि हम अपने जड़ों से कटते चले गये। सम्प्रति पाश्चात्य संस्कृति ने हमको अपने आचार व्यवहार विषयक विभिन्न नीतिपरक विषयों से दूर कर दिया है। जबकि महाकवि कालिदास ने रघुवंशमहाकाव्य में लिखा है ""श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्व गच्छत"", अर्थात् श्रुतियों का स्मृतियाँ तदनुगमन करती हैं। तात्पर्य है कि वेदगत शास्त्रीय चिन्तन स्मृतियों से होती हुई लोक परम्परा का विषय बनते थे; कहने का अभिप्राय है, जो वेदशास्त्र में नीतिपरक चिन्तन परम्परा लोक में अनस्युत दिखती थी।
प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है क्योंकि महाकवि कालिदास ने ही कहा है ""पुराणमित्येव न साधुसर्वं, न चैव सर्वं नवमित्यवद्यम्।' महाकवि के समय में प्राचीन बातों को महत्त्व दिया जाता था तथा नवीन को शंका की दृष्टि से देखा जाता था, इसीलिए महाकवि ने कहा कि पुरानी बातें सभी सही हो, कोई जरूरी नहीं है। आजकल बातें ठीक विपरीत है। प्राचीन को हेय समझने तथा नवीन को उपादेय स्वीकार करने की अन्ध-परम्परा चल पड़ी है। समाज में सम्प्रति मूल्यों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। सभी शीघ्रता वाला मार्ग अपनाने में लगे हैं। यद्यपि उनका परिणाम बहुत सुखद नहीं है। वैदिक चिन्तन परम्परा का संरक्षण तथा समय के अनुरूप समर्थ रहने के लिए नवीन का समावेश के साथ दोनों का समन्वय आवश्यक है। संविधान तथा कानून पुरानी सामाजिक व्यवस्था को बहुत बदल चुके हैं। जाति, धर्म आदि का महत्त्व कम कर दिया गया है। विवाह, उत्तराधिकार आदि के नियम राजकीय नियमों के अधीन हो गए हैं। सामाजिक संस्थाएँ भी राजकीय सहायता के आधार पर संचालित होकर, उसी के नियमों का प्रचार-प्रसार कर रही हैं, फिर भी परम्पराएँ जीवित हैं।
वस्तुतः, वैदिक आचारशास्त्र का तात्पर्य वेदगत आचार व्यवहारशास्त्र से है जो वैदिक साहित्यों में प्रतिपादित है। समस्त वेदाङ्गादि एवं स्मृतिशास्त्र उन्हीं प्रतीकों को प्रमाण मानकर समय सापेक्ष आचार-व्यवहार का युगानुरूप व्याख्या सम्पादित करता रहा है। कल्प वेदाङ्ग में प्रतिपादित श्रौत सूत्र, गृह्यसूत्र एवं धर्म सूत्रों में समस्त वैदिक आचार-व्यवहार का मूल स्वरूप प्राप्त होता है। उसका पल्लवन विभिन्न स्मृति-शास्त्रादि रामायण, महाभारतादि ग्रन्थों में समयानुकूल व्यवहार एवं नीतिगत विषय प्राप्त होते रहे हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक ने याज्ञवल्क्य स्मृति, पराशर स्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवत्गीता, उपनिषद्, योगशास्त्र, संक्षेप शारीरिक, पञ्चदशी, कठोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद्, पातञ्जलि योगशास्त्र विभिन्न स्फुट सूक्तियों में आचारशास्त्र के विभिन्न विषयों को संकलित कर युगानुरूप विवेचित किया है।
वैदिक आचारशास्त्र
इस पुस्तक को लिखने की क्या आवश्यकता थी; यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। धर्मशास्त्र पर लिखने के लिए अधिकारी पर भी प्रश्न चिह्न स्वाभाविक है। इन शंकाओं का निराकरण होने के उपरान्त ही आगे का प्रयास सार्थक होगा।
श्रीभुवनेश्वरी विद्या प्रतिष्ठान, विहसड़ा, मिर्जापुर (उ०प्र०), की स्थापना के समय, वेदोपनिषद्, स्मृति एवं इतिहास-पुराण के आधार पर आचार संहिता एवं समाज-दर्शन की प्रतिष्ठा को उद्देश्य के रूप में प्राथमिकता दी गई थी। प्रतिष्ठान की स्थापना ही इसी उद्देश्य से की गई थी। वर्ष 1981 में, प्रतिष्ठान की स्थापना के अनन्तर, क्षमता के अनुसार निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास हो रहा है। जिस पवित्रता और आदर्श का बीज-वपन करने की इच्छा से प्रतिष्ठान की स्थापना हुई, उसकी प्राप्ति में देश-काल से उत्पन्न अनेक वाघाएँ आने लगीं। तथापि, कुछ समझौता करते हुए अपने मुख्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रतिष्ठान अब भी पूर्ववत तत्पर है।
प्रतिष्ठान के वार्षिकोत्सव के समय नवम्बर 18, 1984 को धर्माचरण की समस्याओं पर विचार किया गया तथा नई स्मृति (आचार संहिता) के निर्माण का भी प्रस्ताव रखा गया। इस अवसर पर काशी के कई मूर्धन्य विद्वान्, प्रयाग, मिर्जापुर, अयोध्या आदि स्थानों से आए हुए विद्वानों ने विचार व्यक्त किया। आचार्य पं० पट्टाभिराम शास्त्री ने कहा था- ""नया शास्त्र रचा जाय किन्तु इसके लिए तपोनिष्ठ अधिकारी विद्वान् की खोज पहले की जाय।"" डॉ० रामकरण शर्मा, कुलपति, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने कहा-आवश्यकता इस बात की है कि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में नए धर्मशास्त्र की रचना की जाय।"" सभा में उपस्थित आचार्य राम प्रसाद त्रिपाठी आदि विद्वानों ने भी इन बातों का समर्थन किया था। तब से, अधिकारी लेखकों या विद्वानों की समिति के द्वारा, आवश्यक धनसंग्रह आदि विषयों पर चिन्तन और प्रयास हुए किन्तु सफलता नहीं मिली।
इस विषय पर चिन्तन के परिणामस्वरूप प्रस्तुत पुस्तक की रचना का मार्ग दृष्टिगत हुआ। फलतः, नया धर्मशास्त्र बनाना दुष्कर एवं उपहासास्पद है, यह निश्चय होने पर पूर्व चिन्तकों के द्वारा स्थापित विधा का अनुसरण करना ही संभव लगा। यह स्पष्ट है कि गीताशास्त्र में सभी उपनिषदों और धर्मशास्त्रों के ज्ञान को संक्षिप्त रूप में एकत्रित किया गया है. इसी तरह गुरु ग्रन्थ साहब में सन्तों की अमूल्य वाणी का संग्रह अनूठे ढंग से किया गया है। ऐसी कृतियों को आदर्श मानकर नए धर्मशास्त्र के प्रणयन की प्रेरणा मिली। वैदिक साहित्य से लेकर स्मृति, पुराणेतिहास तथा आधुनिक चिन्तकों की वाणी का संग्रह करके वर्तमान के अनुरूप यह प्रणयन हुआ है। आर्षवाणी का ही संग्रह इसमें है, अतः अन्थकार की धर्मशास्त्र, लिखने की योग्यता पर आक्षेप नहीं होगा। संक्षेप में, धर्मशास्त्र, राजधर्म, मोक्षधर्म तथा समयोपयोगी सार्वभौम धर्म एवं नीतियों का संग्रह करके यह पुस्तक सम्पादित हुई। व्याख्या द्वारा विषयवस्तु को सर्वजन-ग्राह्य बनाने का प्रयास हुआ है।
ग्रन्थ का कलेवर छोटा रखने का पूरा प्रयास है। विशेष की जिज्ञासा होने पर आकर ग्रन्थों को विद्वान् लोग देख सकते हैं। मन्वादि स्मृतियों के अनुसार जीवनयापन करने वाले महापुरुषों के लिए यह पुस्तक विकल्प नहीं प्रस्तुत करती है। वे महापुरुष सूर्य की तरह तेजस्वी हैं जिन्हें दीपक की आवश्यकता नहीं है। किन्तु अधिकांश लोग ऐसे हैं जो धार्मिक जीवन जीना चाहते हैं परन्तु शास्त्रों के समुद्र में गोता लगाना उनके वश में नहीं है, ऐसे लोग परम्परा से प्राप्त ज्ञान द्वारा काम चलाते हैं। परम्पराएँ धर्म की रक्षक होती हैं, किन्तु कभी-कभी वे विकृत रूप धारण कर लेती हैं। यह पुस्तक विकृति के निवारण पूर्वक, सामान्य लोगों को, मार्गदर्शन के लिए दीपक का काम करेगी। यही अनुबन्ध चतुष्टय है। अधिकारी के विषय स्पष्ट किया जाता है कि जो मन्वादि द्वारा प्रतिष्ठित या वैदिक धर्म के पालन के लिए इच्छुक श्रद्दधान नहीं हैं, वे हिन्दू होते हुए भी, इस पुस्तक को पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। इससे उनका अनावश्यक श्रम होगा।
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