हमारा विश्वेश्वरानन्द संस्थान अपने जीवन की विगत सात दशतियों में लगातार वैदिक शोध कार्य करने में संलग्न रहा है। इस अन्तर में संस्थान ने अपने जिन अनेक साहित्यिक योजनाओं के अन्तर्गत लगभग 600 छोटे-बड़े ग्रन्थों का प्रकाशन किया है, उनमें "वैदिक कोष" को योजना सर्व-महान्, सर्व-गरिष्ठ एवं सर्व-प्रमुख रही है। इस योजना का परम लक्ष्य प्रत्येक वैदिक एवम् उप-वैदिक पद के शाब्दिक स्वरूप का व्याकरण, निरुक्त एवं आधुनिक भाषा-विज्ञान आदि अन्य अनेक शास्त्रों के अनुसार निर्धारण करते हुए, उसके तात्त्विक अर्थ का विनिश्चय करना है। इसी सन्दर्भमें संस्थान ने अब तक सोलह खण्डों वाले "वैदिक-पदानुक्रम-कोष" को 11,000 पृष्ठों में, "वैदिक-वैयाकरण-पदसूचियों" को 4,000 पृष्ठों में, सायण से पूर्ववर्ती आचार्यों स्कन्दस्वामी, वेंकट-माधत्र एवम् उद्गीथ के भाष्यों सहित "ऋग्वेद" को 5,000 पृष्ठों में, सायण-भाष्य सहित "अथर्ववेद" को 2,600 पृष्ठों में तथा "ब्राह्मणोद्धार कोष" आदि अन्य कई साधन-ग्रन्थों को प्रकाशित किया है और अब इन सब के साध्य-स्वरूप, "वैदिक-शब्दार्थ-कोष" के सम्पादन कार्य में लग रहा है। अभी-अभी इस महाकोष के सर्वप्रथम शब्द अंश का सम्पादन पूरा हुआ है और उसे, एक आदर्श के रूप में, प्रकाशित कर दिया गया है।
अति प्राचीन युग में वैदिक साहित्य के अन्तर्गत लगभग 3,000 ग्रन्थों का निर्माण सम्पन्न होना सम्भावित है। उस महान् ग्रन्थ-राशि में से अब केवल 400 के लगभग ही उपलब्ध हैं। संस्थान में किया जा रहा वैदिक-शोध-कार्य इन सभी पर आधारित है। यह शोध कार्य, वैदिक शब्दों के स्वरूपों एवं अर्थों के निर्धारण के अतिरिक्त, उत्तरोक्त तीन प्रस्थानों में, मुख्य रूप से, प्रविभक्त होकर प्रवृत्त हो रहा है :-
(क) समूचे वैदिक साहित्य में पढ़े गए मूल वेद-मंत्रों की संख्या, कुल मिलाकर, लगभग 20,000 बनती है। उनमें लगभग 5,000 मंत्र ऐसे हैं, जो मूल वेदों में पुनरुक्त-रूप में पढ़े गए हैं। गणना की दृष्टि से, ऐसे मंत्रों को बीच में से निकाल कर, मूल वेद-मंत्रों की कुल संख्या लगभग 15,000 ही रह जाती है। इन सब वेद-मन्त्रों में, जहां उक्त प्रकार से पुनरुक्ति पाई जाती है, वहां विविध प्रकार का पाठ-भेद भी पर्याप्त मात्रा में देखा जाता है। निश्चय ही, किसी भी वेद-मन्त्र के पाठ के जो विभिन्न रूप उपलब्ध होते हैं, वे सभी, समान रूप से, मूल पाठ नहीं कहे जा सकते । अवश्य ही, उनमें से कोई एक पाठ, मूलतः, प्रकृति-स्वरूप रहा होगा और उसके शेष सभी रूपान्तर, उसके विकृति-स्वरूप होकर, देश एवं काल के भेद से प्रवृत्त हुए होंगे। संकेतित प्रकार के सभी स्थलों में पाठ-मीमांसा के प्रामाणिक शास्त्रीय नियम-
सूत्रों का वैज्ञानिक विनियोग द्वारा विचार-विमर्श करते हुए, सम्भावित मूल-पाठों को निर्धारित करना हमारे उक्त आनुषंगिक शोध-कार्य के प्रथम प्रस्थान का मुख्य विषय है।
(ख) अमेरिका, यूरोप, ईरान, भारत तथा अनेक द्वीपों आदि में बसी हुई लगभग दो-तिहाई मानव-जाति "भारत-यूरोपीय" मूल-भाषा के सांझे परिवार की दस उप-परिवारों में विभक्त की गई, देश-प्रदेश के भेदानुसार भिन्न-भिन्न हो रही बहुसंख्य भाषाश्रों को बोलती है। इन सब भावाओं में वैदिक एवम् उप-वैदिक शब्दों के सगोत्र एवं सजात शब्द पाए जाते हैं. जिनके साथ मिलान करते हुए, मुख्य रूप से, वैदिक शब्दों के मौलिक निर्वचनों की खोज करना हमारे उक्त आनुषंगिक शोध-कार्य के दूसरे प्रस्थान का प्रधान क्षेत्र है। इस संबन्ध में, एक अभिनव "निर्वचन-शास्त्र" एवम् उस पर आधारित "वैदिक-निर्वचन-कोष" का निर्माण कार्य चल रहा है, जिसके अन्तर्गत लगभग एक लाख शब्दों का आंशिक अध्ययन किया जा चुका है।
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