| Specifications |
| Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi | |
| Author Edited By Sonal Kumar Jain | |
| Language: Sanskrit Text with Hindi Translation | |
| Pages: 287 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 10.00x7.5 inch | |
| Weight 620 gm | |
| Edition: 2021 | |
| ISBN: 9788194922844 | |
| HBX970 |
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जैन संस्कृति भारतीय संस्कृति का अभिन्न एवं अक्षुण्ण अंग है। यह भारत की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। जैन केवल धर्म, आचार पद्धति या विचार मात्र नहीं है, अपितु यह तो उन सभी पक्षों से समन्वित और समृद्ध है, जो किसी संस्कृति के लिए अनिवार्य और आधारभूत होते हैं। चाहे वह इसका ऐतिहासिक पक्ष हो, स्थापत्य कला पक्ष, साहित्य पक्ष हो अथवा अन्य कोई शेष तत्त्व। जैन साहित्य अतिविशाल है, जिसका भारतीय साहित्य में विशिष्ट स्थान और महत्त्व है। अहिंसा की प्रतिष्ठापना और सर्वोदय के विचार के लिए तो जैन साहित्य को सदैव याद किया जाता रहेगा। जैनधर्म के २४वें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर स्वामी के शासन को समन्तभद्राचार्य ने इन शब्दों के साथ लोकोपकारी और प्राणीमात्र के कल्याणकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया है-
'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवेव ।'
प्राणीमात्र के कल्याण की भावना से उसको अज्ञान से ज्ञान की ओर, अधर्म से धर्म की ओर, अन्याय से न्याय की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, पाप से पुण्य की ओर और अन्ततोगत्वा दुःख से सुख की ओर ले जाने के पुनीत उद्देश्य से अनेक जैनाचार्यों ने अपने जीवन का बहुभाग शब्दसाधना में समर्पित किया है। इस परम्परा के साधकों ने धर्म के साथ-साथ साहित्य के अन्यान्य पक्षों यथा दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, कथा, मन्त्र-तन्त्र, शिल्प-वास्तु, ज्योतिष, आयुर्वेद प्रभृति विषयों पर अपनी सिद्ध लेखनी से सशक्त हस्ताक्षर किए हैं। उपर्युक्त विषयों पर आज भी जैनसाहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
इस साहित्य की विशिष्ट विशेषता यह है कि यह प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़, तमिल आदि अनेक भारतीय भाषाओं में निबद्ध है। जैनधर्म के प्रचारकों ने प्रारम्भ से ही इसके प्रचार-प्रसार के लिए तत्कालीन जनभाषा को जैनसाहित्य का माध्यम बनाया है। यही कारण है कि प्राकृत से प्रारम्भ होकर अपभ्रंश और वर्तमान हिन्दी तक कालखण्ड के अनुरूप प्रायः सभी भाषाओं में जैन साहित्य उपलब्ध है। जर्मन् मनीषी डॉ. विण्टरनिट्ज लिखते हैं- "भारतीय भाषाओं की दृष्टि से जैन साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जैन सदा इस बात का प्रयास करते थे कि उनका साहित्य अधिकाधिक जनसामान्य के परिचय में आए।" (ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, सं. २, पृ. ४२७-४२८)
जैन परम्परा के अनुसार आचार्य उमास्वामी जी द्वारा संस्कृत भाषा के माध्यम से ग्रन्थप्रणयन का सूत्रपात हुआ माना जाता है। जैन वाङ्मय में इसके पश्चात् संस्कृत भाषा में ग्रन्थरचना को सुदीर्घ परम्परा रही है। शनैः शनैः यह धारा सिद्धान्त, न्याय आदि विषयों से होती हुई काव्य, कथा और पुराण साहित्य तक पहुँची। जैन साहित्य में चरित काव्यों का प्रणयन भी बहुतायत में हुआ है। जटासिंहनन्दी का वरांगचरित एक पौराणिक काव्य है। वीरनन्दी का चन्द्रप्रभचरित, हरिचन्द्र का धर्मशर्माभ्युदय, धनञ्जय का द्विसन्धान, वाग्भट्ट का नेमिनिर्वाण आदि उच्चकोटि के संस्कृत महाकाव्य हैं। सोमदेव का यशस्तिलकचम्पू और वादीभसिंह का गद्यचिन्तामणि अपनी-अपनी विधा की प्रतिनिधि जैन रचनाएँ हैं। जैन साहित्य सम्बद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थों में इस विषय में विस्तृत लिखा गया है, जिज्ञासुजन उन ग्रन्थों को देखकर जिज्ञासा शमन कर सकते हैं।
पुराणसाहित्य में आदिपुराण, महापुराण, पद्मचरित आदि कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। जैन पुराणों का मुख्य प्रतिपाद्य पुण्यपुरुषों के जीवनचरित्र का वर्णन रहा है। हरिवंशपुराण में कौरवों और पाण्डवों तथा पद्मचरित में श्रीरामचन्द्र जी का वर्णन है। इस आधार पर इन्हें क्रमशः जैन महाभारत और जैन रामायण भी कहा जा सकता है। कालक्रमानुसार जैनाचार्यों के पश्चात् परवर्ती काल में जैन विद्वानों द्वारा भी साहित्य-सृजन किया जाने लगा।
जैन विद्वान् ब्र. कृष्णदास द्वारा संस्कृत भाषा में निवद्ध प्रस्तुत कृति है श्री विमलनाथ पुराण। कवि का परिचय और रचनाकाल की जानकारी स्वयं कृतिकार ने प्रत्येक सर्गान्त में संक्षेपतः और पुराण के अन्त में विस्तृत रूप में प्रशस्ति के माध्यम से पाठकों को उपलब्ध करा दी है अतः यहाँ उसकी चर्चा न करके कृति की चर्चा की जा रही है।
पुराण का लक्षण बताते हुए कहा है-
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
अर्थात् सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित से सम्पन्न पुराण होता है।' पुरा भवम् इति पुराणम्' अथवा 'पुरानवं भवतीति पुराणम्'। तात्पर्य यह है कि जो पहले हो चुका है अथवा जो प्राचीन होकर भी नया सा रहता है, वह पुराण है। सांकेतिक आख्यानों द्वारा इतिहास का मनोज्ञ वर्णन जहाँ प्राप्त होता है, उसे पुराण कहा जा सकता है। पुराणों का उद्देश्य रहा है कि 'रामादिवत् प्रवर्तितव्यं न तु रावणादिवत्।' अर्थात् राम आदि सज्जनों की तरह प्रवृत्ति करना चाहिए न कि रावण अदि दुर्जनों की तरह। राम और रावण प्राचीन पात्र हैं किन्तु उनकी प्रवृत्ति का अनुकरण करना अथवा न करना आज भी प्रासंगिक है, वास्तव में यही पुराण का पुरानवत्व है।
श्री विमलनाथ पुराण में जैनधर्म के तेरहवें तीर्थङ्कर श्री विमलनाथ भगवान् के जीवनचरित्र के साथ उनमें तीर्थङ्करत्व के प्रादुर्भाव से लेकर निर्वाणप्राप्ति तक का वर्णन है। मुख्य कथा के साथ-साथ आनुषांगिक आख्यानों को भी समुचित स्थान प्राप्त हुआ है। कवि ने मुख्य कथा से सम्बद्ध और प्रासंगिक लघु-लघु कथाओं के माध्यम से नीति का भी सरस शैली में वर्णन किया है। सज्जनप्रशंसा और दुर्जननिन्दा कवि का प्रियविषय है। यथा- 'किं दुश्चित्ते हि शम्यते। ४/३८४, 'किं न कुर्वन्ति दुर्धराः' ४/३६९, दुर्जया व्याधयो दृष्टाः...४/३९३, सत्सङ्गः पाफलीत्येव....८/९२, धर्मशीला हि साधवः ८/१२० आदि। कर्मों की विचित्रता बतलाते हुए एक ही सूक्ति तीन बार प्रयोग की है। यथा- 'विचित्रा कर्मणां गतिः ।' १/६७, १/४५१ एवं अन्यत्र। 'दुर्निरीक्ष्यं हि दैवतम्', लंघ्यते न गतिर्विधेः।
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