'विश्व कविता : कल और आज' की परिकल्पना मेरे मन में बहुत दिनों से चल रही थी किन्तु यह कार्य अपने में इतना कठिन लगता था कि साहस ही न होता था। लगभग ५० वर्ष पूर्व अंग्रेज़ी कविता पढ़ाते पढ़ाते मेरे मन में कुछ अंग्रेजी कवियों के हिन्दी अनुवाद की बात मन में आयी और उन्हीं दिनों मैंने रुपर्ट बुक के प्रसिद्ध सॉनेट 'सोल्जर' और मैथ्यू आर्नल्ड के 'सोहराब एण्ड रुस्तम' के कुछ अंशों के अनुवाद कर छात्रों को सुनाये । वे उनसे अत्यंत प्रभावित हुए और मुझे लगा कि यदि अंग्रेज़ी कविता के प्रति उनमें रुचि उत्पन्न करनी है, तो अंग्रेज़ी के साथ साथ उनके अंश उनकी मातृभाषा में भी प्रस्तुत करना चाहिए ।
फिर ४०-५० वर्षों का अंतराल ।
पर इस बीच एक और बात हुई ।
सन् १९८० में सेवानिवृत्ति के बाद में श्री सत्य साई बाबा के आश्रम प्रशांति निलयम् (पुट्टापर्ती) चला गया। वहां बाबा ने मेरे विषय में डा. वी. के. गोकाक से ज़िक्र किया। डॉ. गोकाक मुझे पहले से जानते थे। वे केवल कन्नड़ और अंग्रेज़ी के अच्छे कवि और विद्वान ही न थे, श्री सत्यसाई इंस्टीट्यूट ऑफ हायर लर्निंग (मान्य विश्वविद्यालय) के वाइस चांसलर भी थे। मुझे अवैतनिक रीडर के रूप में नियुक्ति मिली और पुनः एम.ए. के छात्रों को अंग्रेज़ी कविता पढ़ाने का अवसर मिला। यहां के अधिकांश छात्र अहिन्दी भाषी थे कुछ दक्षिण भारत के, कुछ विदेशों के । शैले को पढ़ाते समय जब मैंने उन्हें बतलाया कि शैले की पंक्तियाँ 'our sweetest songs are those that tell of saddest thought' के समानान्तर ही हिन्दी के प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने कहा है, 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान', तो उनकी रुचि हिन्दी के छायावादी कवियों के प्रति जागी । उन्होंने मुझसे अन्य समानान्तर अंशों के विषय में भी पूछा । तभी मेरे मन में आया कि यदि अंग्रेज़ी कवियों को अनुवाद द्वारा हिन्दी के निकट लाया जाए तो क्या बुरा होगा। पर यह संभव न हुआ प्रकाशन और अर्थ दोनों की समस्यायें सामने थीं ।
सन् १९९३ में प्रशांतिनिलयम् से भी सेवा-निवृत्ति मिली और मैं अहमदाबाद आकर परिवार के साथ रहने लगा। पर हिंदी और उर्दू की कविता में रुचि होने के कारण लिखता-पढ़ता रहा। अहमदाबाद की हिन्दी साहित्य परिषद 'भाषासेतु' त्रैमासिक पत्रिका निकालती है। उसमें विश्वभारती स्तम्भहोता है। उसमें समय समय पर अंग्रेजी साहित्य से सम्बन्धी आलेख तथा कविताओं के अनुवाद देता रहा और वे छपते रहे। तब यह बात मन में आयी कि अंग्रेज़ी के अतिरिक्त विश्व की अन्य भाषाओं से भी अनुवाद किए जायें । पर मै कोई बहुभाषाविद् तो हूँ नहीं, अतः मुझे विश्व की अन्य भाषाओं के कवियों की कृतियों के अंग्रेज़ी अनुवाद पर ही निर्भर होना पड़ा । किन्तु इसी अंतराल में मुझे 'सार संसार' पत्रिका के विषय में जानकारी हुई। यह पत्रिका अंग्रेज़ी छोड़कर अन्य विश्व भाषाओं के मूल से सीधे हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित करती है। मैंने उसके सम्पादक डॉ. अमृत महेता से सम्पर्क किया और अपनी योजना बतलायी। वे सहर्ष सहमत हो गये और इस प्रकार मुझे जर्मनी, ऑस्ट्रिया तथा स्विटज़रलैण्ड के कवियों के सीधे रूपान्तर प्राप्त हो गए । इधर मेरे परिचित कवि मित्रों में डॉ. कमलेश सिंह तथा श्री कैलाशनाथ तिवारी क्रमशः डच तथा रूसी भाषा विशेषज्ञ है। अतः उन्होंने भी बेल्जियम तथा रूस के कवियों की कुछ रचनाओं के अनुवाद किये। साथ ही मध्य प्रदेश साहित्य परिषद की 'साक्षात्कार' पत्रिका में प्रसिद्ध वर्तमान रूसी कवि ओसिस मंदलेश्ताम की रूसी कवितायें पढ़ीं। अच्छी थीं। अतः उन्हें भी ले लिया गया। इस प्रकार मुझे सहज ही अनेक भाषाओं के कवियों के मूल रूपान्तर मिले । मैं इन सभी कवि-मित्रों का आभारी हूँ। अतः इस संकलन में अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं की कविताओं के अनुवाद कितने सटीक हैं यह उनके अंग्रेज़ी अनुवादों की श्रेष्ठता पर निर्भर है।
इसी समय मन में यह भी आया कि यदि विश्व स्तर पर कविताओं का अनुवाद करना है, तो मुझे कुछ कुछ उस परिवेश का ज्ञान होना चाहिए !
जिनसे प्रभावित होकर वे लिखी गयी हैं। फिर यह भी सोचा कि यदि कविता एक प्रवाह है तो इसकी एक एतिहासिकता भी होती है। देशकाल और परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना यह नहीं रहती। अतः यदि पाठकों को कविता के माध्यम से इसका भी परिचय मिले तो और भी अच्छा होगा । अतः कविता को दो वर्गों में बांट दिया-कल की कविता और आज की कविता । पर मेरा ज्ञान अंग्रेज़ी तक ही सीमित होने के कारण अन्य देशों के ऐतिहासिक उतार चढ़ाव से मेरा परिचय इतना ही है जो अंग्रेज़ी के माध्यम से मिला। फिर भी मैंने अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य देशों की १६वीं, १७वीं, १८वीं, १९वीं तथा २०वीं सदी के प्रथम दो दशकों तक की कविताओं को 'कल' के वर्ग में रक्खा है। अंग्रेज़ी की कविता को एक ऐतिहासिक क्रम अवश्य दिया है ताकि इंगलैण्ड के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के साथ उसे जोड़ा जा सके। इस पूरी प्रक्रिया में मुझे जिस बात ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह था इंगलैण्ड और अन्य यूरोपीय देशों पर १४वीं से १६वीं शताब्दी तक होने वाली सांस्कृतिक क्रान्ति (Renais-sance) का तत्कालीन साहित्य और कला पर प्रभाव। यह युग पुनर्जागरण का युग था । इन्हीं दिनों जर्मनी में मार्टिन लूथर का जन्म हुआ और उसके जीवनकाल में ही ईसाई धर्म में एक सुधारवादी आंदोलन की शुरुआत हुई ।
जहाँ तक आज की कविता का प्रश्न है, उस पर आगामी पृष्ठों में तीन आलेख दिए जा रहे हैं। बदि उन पर दृष्टि डालकर इन कविताओं को पढ़ा जाएगा तो अधिक आनन्द आएगा। वैसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद की कविता और विशेषकर बीसवीं सदी के छठे दसवें दशक तक की कविता का स्वर एक ही है। चाहे देश कोई भी हो, संस्कृति कोई हो-भारत हो, अफ्रीका हो, रूस हो या चीन हो-आज़ादी के लिए संघर्ष और साम्यवादी विचारधारा ने सभी को प्रभावित किया है। फिर भी यह देखने को मिला की इन परिवर्तनों के बावजूद किसी न किसी रूप में कविता का मूल स्वर लौट लौट कर आ ही जाता है। आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलेन्ड की कविता इसका प्रमाण है।
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