सिनेमा हमारे समाज में एक बड़ी हद तक एक 'व्यसन' की तरह माना जाता रहा है। उसकी पहचान वयस्कता, ईर्ष्या, ललचानेवाले संसार की ओर खुलनेवाली खिड़की की ज्यादा रही है। यह भी कि पिछले तमाम बरसों में यह आधुनिक समाज की 'लोक-संस्कृति' का लोकप्रिय विकल्प ही होता गया है। प्रतिरोध, साहित्य, विचार, सिनेमा में एक क्षीणधारा के रूप में ही मौजूद रहे हैं। पूँजी आधारित माध्यम होने की वजह से रचनात्मक के स्थान पर उसने अपने लिए बाजार का 'वरण' अधिक किया है। और इसीलिए सिनेमा आज के समय में एक उत्पाद के रूप में टिके रहने के लिए प्रायः मध्यकालीन विचार-परम्परा के पोषण में अपनी सार्थकता देखता है। यह चिन्तित करनेवाली सचाई है। यह भी सचाई है कि बाजार अभिमुख माध्यम होने की वजह से हिन्दी में सिनेमा आलोचना का कोई प्रभावी फोरम नहीं बन पाया। अलबत्ता उत्पाद को बेचने के लिए आकर्षक पत्र-पत्रिकाओं, टीवी प्रोग्रामों की कभी कोई कमी नहीं रही।
आज से कोई पच्चीस बरस पहले हिन्दी में सिनेमा आलोचना के एक कारगर हस्तक्षेप के रूप में 'पटकथा' का मंच सम्भव हुआ था। यह वह समय था जब सिनेमा कविता और विज्ञान के एक सार्थक समुच्चय की एक उज्ज्वल सम्भावना के साथ उपस्थित था। यह वह समय भी था जब राबेर ब्रेसाँ, गोदार, फेलिनी, आले राब्ब ग्रिये, आन्द्रेई तारकोवस्की, आन्द्रे वाज्दा, रोमन पोलांस्की, ऋत्विक घटक, सत्यजित रे, मणि कौल, कुमार शहानी, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, जी. अरविन्दन, अडूर गोपालकृष्णन् जैसे अनेक अनेक कृतिकार सिनेमा में रच रहे थे और जीवन-परम्परा-समाज-आर्थिकी इतिहास-राजनीति तथा अपने समय की चुनौतियों से अपनी पूरी रचनात्मक ऊर्जा के साथ रू-ब-रू थे। ऐसे चुनौती भरे समय में पटकथा ने अपने लिए शास्त्रीय सिनेमा का मानक सुनिश्चित किया था। सिनेमा में शास्त्रीयता की पहचान और स्थापना का आग्रह मुख्यकर रहा था। 'पटकथा' ने हिन्दी में सिनेमा आलोचना के अपने औज़ार गढ़ने का यत्न किया।
पटकथा' के जीवन के एक संक्षिप्त दौर में से चयनित इस पुस्तकाकार में नैतिकता, प्रेम की जरूरत, युवा की नाराजगी, राज्य के बढ़ते अधिनायकवाद, संस्कृति, राजनैतिक सिनेमा, सिनेमा में जाति संघर्ष, अधीनस्थ चेतना, जन सिनेमा, सिनेमा के भव्य सम्मोहन, नव परम्परावाद, लोकप्रिय कलारूप, सिनेमाई बिम्ब, समय, लय, यथार्थ, यथार्थ के भ्रम, जादुई यथार्थवाद, गैर कथात्मक फिल्मों, अंगरागी दृष्टि, क्रान्तिकारी तमन्ना, गैर बुर्जुआ कैमरा शैली की तलाश जैसे विषयों पर आन्द्रेई तारकोवस्की, जूरिज लोटमन, रिचर्ड मेरनबार्सम, रुडोल्फ आर्नहीम, आन्ते मिशेलसन, ब्रेन एंडरसन, फेडरिक जेम्सन, जार्ज सेनजिनेस, पॉलीन के. एल. पार्कर टेलर जैसे रचनाकारों व आलोचकों के विश्लेषण संकलित किये हैं, इस आशा के साथ कि विश्व सिनेमा के गम्भीर और सकारात्मक पक्षों की स्मृतियाँ साकार हो सकेंगी तथा सिनेमा के मात्र एक सामूहिक दिवास्वप्न की प्रतीति से हटकर एक रचनात्मक हस्तक्षेप की छोटी-सी ही सही, पर पहल हो सकेगी।
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