गाँव हमारी स्मृतियों में दर्ज एक बेहद जीवंत दस्तावेज है. भले ही कतिपय कारणोंवश हम गाँव को छोड़ शहर में बस गए हो मगर एक गाँव हम सब के अंदर बसता है। यहाँ तक कि एक गाँव उन लोगों के अंदर भी बसता है जिनकी कोई ग्रामीण पृष्ठभूमि भी न रही हो। ये हमारी स्मृतियों का गाँव है जहां हम अपने तमाम जीवन संघर्ष को सायास विस्मृत कर थोड़ी देर अकारण ही मुस्कुराना चाहते है। बतौर मनोवैज्ञानिक मैं अक्सर इस बात की पड़ताल करता रहता हूँ कि आखिर ऐसा कौन सा महत्वपूर्ण हिस्सा है जो हमसे किसी स्तर पर छूटा हुआ है जो ताउम्र हमारा पीछा करता रहता है। हम क्षेत्र राज्य, जनपद, बोली आदि की पगडंडी पर चलकर वहां जाकर खड़े हो जाते हैं जहां की मिट्टी से एक अमूर्त किस्म का आत्मीय जुड़ाव अपने सम्पूर्ण वेग के साथ उपस्थित रहता है. मैं बहुत अकादमिक भाषा का सहारा नही लेना चाहता हूँ मगर सच तो यह है कि हमारा अतीत हमारे वर्तमान का संरक्षक की भूमिका में रहता है चाहे हम ऐसा चाहे या न चाहें।
डॉ. सुशील उपाध्याय की यह किताब एक सामूहिक चेतना और संवेदना का एक बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसकी मदद से हम अपने अतीत की यात्रा कुछ इस तरह से कर सकते है जैसे वसंत में एक बेहद हरा पत्ता मात्र हवा के बुलावे पर धरती की तरफ चल पड़ता है. विधा की दृष्टि से मैं इसे संस्मरण भी नहीं कह सकता हूँ क्योंकि इसे एन्द्रियकता के साथ-साथ एक सार्वभौमिक किस्म का कथानक भी बुना हुआ है। बेशक इसकी बुनावट महीन है मगर ये बुनावट ऐसी है कि कोई भी गाँव देहात से निकला व्यक्ति उसे नंगी आँख से पढ़ सकता है। आज किस्म किस्म की किताबें मौजूद है मगर मुझे लगता है इस विषय पर यह अपने किस्म की एक अनूठी किताब है और ऐसी किताबें देशकाल के लिहाज से किसी संदर्भ ग्रन्थ से कम उपयोगिता की नहीं है।
लोक संस्कृति में भले ही देशभर में विविधता विद्यमान रही हो मगर लोक में कुछ ऐसे तत्व हैं जो अनिवार्यतः लगभग हर जगह एक जैसे ही मिलेंगे। हो सकता है कि उनका घटित होने का क्रम और स्वरूप भिन्न हो। मगर उनकी देशज चेतना और चरित्र की दृष्टि से भदेसपन देश भर में एक जैसा मिलेगा इसलिए मुझे यह किताब स्थानीयता के प्रभाव से मुक्त लगी है। वैसे तो मुझे देश भर के गाँव एक बिछड़ा हुआ कुनबा लगते हैं, लोग और किरदार बदलते हैं मगर किस्से और कहानियों में बेहद समानता है। लोकसाहित्य की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण काम हुआ है क्योंकि इसका नेरेशन आपको संवेदना के स्तर पर छूता है और आपका हाथ पकड़कर स्मृतियों की यात्रा पर ले जाता है।
अच्छी बात यह भी कि इसके वृत्तांत अपने आप में कोई आग्रह प्रस्तुत नही करते हैं। इन्हें पढ़ना ठीक वैसा अनुभव है जैसे किसी किस्सागो से बैठकर कुछ रोचक किस्से सुनना। प्रस्तुति के लिहाज से भले ही इसमें विविधता है मगर इसमें एक स्थायी संवेदना का भी सूत्र है जो सारे संस्मरणों को इस तरह पिरोता है कि देहात का एक बेहद जीवंत चित्र हमारे सामने औपन्यासिक शिल्प के साथ उपस्थित होता है। किताब से गुजरते हुए आप लोक संस्कृति के तत्वों, रीति-रिवाजों अपने किस्म अनगढ़ चरित्रों और समाज के विभिन्न वर्गों की अंदरुनी दुनिया को समझते हुए आगे बढ़ते है।
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