ऋग्वेद विश्व के पुस्तकालय का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थरत्न है। वेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में नारियों को पुरुष के तुल्य सभी क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त था। उस समय समाज में नारी का स्थान गौरवपूर्ण था। स्त्री पुरुष की सहयोगिनी और सहायिका थी। वह पुरुष के साथ यज्ञ में बैठती थी और उसे यज्ञ करने का अधिकार था। वह युद्ध में पुरुषों के साथ जाती थी और युद्ध के कार्यों में भाग भी लेती थी। (अथर्ववेद, 20/126/10) आवश्यकता पड़ने पर सेनापति का काम भी करती थी। (अथर्ववेद, 1/27/4) वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। यज्ञोपवीत पहनती थीं। वेद, शास्त्र और दर्शन पढ़ती थीं। पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ भी करती थीं। अध्यात्म चर्चा में भी भाग लेती थीं। पुत्र के अभाव में पुत्री को राज्यशासन का काम दिया जाता था। वह गृहस्वामिनी और साम्राज्ञी होती थी (अथर्ववेद, 14/1/43) देव पूजन, अग्नि पूजन का भी पत्नी को समान अधिकार प्राप्त था (ऋ०, 8/31/1, 5/3/1) याज्ञिक कार्यों में पत्नी की उपस्थिति वांछनीय थी। (ऋग्वेद, 5/53/61, 8/35/38) स्त्रियों को यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त था। (ऋग्वेद, 8/91/1) गोपथ ब्राह्मण में स्त्रियों को 'श्री' कहा गया है (गोपथ० पू० 1/34) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में स्त्री को सावित्री (गायत्री) के तुल्य पवित्र माना गया है (जैमिनीय उप०ब्रा० 4/27-28)। उपनिषद् काल में भी स्त्रियाँ उच्च कोटि की विदुषी, ब्रह्मवादिनी और शास्त्रार्थ-महारथी होती थीं। (बृहदारण्यकोपनिषद्) सूत्रकाल में स्त्री शिक्षा के सम्यक् सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। (गोभिल गृह्यसूत्र, 2/1/19-20, काठक गृह्यसूत्र, 25/23) वात्सायन के कामसूत्र से स्त्रियों के नाचना, गाना, चित्रकला आदि 64 कलाओं के सीखने का सन्दर्भ प्राप्त होता है। (कामसूत्र, 1/2/1-3) पाणिनिकाल में नारी व्याकरण का अध्ययन करने वाली होने के कारण पाणिनीया कहलाती थी। महाभाष्य से ज्ञात होता है कि स्त्रियाँ मीमांसादर्शन जैसे क्लिष्ट विषयों को भी पढ़ती थीं। रामायण, महाभारत और भागवतपुराण में स्त्रियों के शिक्षित होने के सन्दर्भप्राप्त होते हैं। महाभारत में कहा गया कि माता से बढ़कर कोई गुरु नहीं है। (महाभारत, शान्तिपर्व, 342/18) माता, पिता और गुरु के समान ही पूजनीय मानी गयी। (महाभारत, वनपर्व, 159/14) भागवतपुराण में ज्ञान और विज्ञान में निपुण दाक्षायण की दो पुत्रियों-वयुना और धारिणी का उल्लेख है। ये दोनों ब्रह्मवादिनी थी। (भागवतपुराण, 4/1/64) महाभारत में रानी विदुला का प्रबोधन प्रसिद्ध है। उसने युद्ध से विमुख हुए अपने पुत्र को क्षात्रधर्म की शिक्षा दी है। उठकर कर्म करने की शिक्षा के पश्चात् संजय ने युद्ध कर सिन्धुराज को हराया। (उद्योग पर्व, 135/29-30) वस्तुतः रामायण और महाभारत का काल स्त्रियों की विकसित अवस्था का द्योतक है। उसे सभी क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त होने के सूत्र-संकेत-सन्दर्भ मिलते हैं।
स्मृतियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि नारी गृहस्थ का आधार होती थी। गृहिणी को ही गृह कहा गया। (बृ०परा० 05/195, 6/71) नारी को लक्ष्मी मानकर उन्हें सदा सन्तुष्ट रखने का आदेश दिया गया है। महर्षि मनु ने तो यहाँ तक कह दिया- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः । (मनु०, 3/56) स्त्री को प्रसन्न रखने से श्रीवृद्धि और उसको असन्तुष्ट रखने से कुलनाश होना बताया गया। (बृ० परा०, 6/45) स्त्रियों को सदा पवित्र और रक्षणीय कहा गया। (परा० 7, 37, बृ० परा० 6/61, 6/58, बौधायन, 2/2/61) स्मृतियों ने यह भी स्वीकार किया है कि भारतीय नारियों का अतीत बहुत उत्तम था परन्तु स्मृतियों में उन्हें उतना उन्नत नहीं प्रस्तुत किया गया है। स्त्रियों की उच्च शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। उन्हें राजनीति में विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे। स्त्रियों को अधिक विश्वसनीय साक्षी भी नहीं माना जाता था। वस्तुतः मनु के समय तक स्त्रियों को आदर का स्थान प्राप्त था। उनके चरित्र की रक्षा के लिए अनेक उपाय अपनाए गए थे। साथ ही स्मृतियों से यह भी स्पष्ट होता है कि उन्हें सामान्यतया उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था।
आचार्य भरत मुनि नाट्यशास्त्र के आदि प्रवर्तक हैं तथा इनका नाट्यशास्त्र इस साहित्य का दर्पण है। आचार्य भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में नारी के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा है कि इस लोक में मानव मात्र का परम लक्ष्य सुख प्राप्त करना है और सुख का मूल आधार नारी है-
सर्वः प्रायेण लोकोऽयं सुखमिच्छति सर्वदा।
सुखस्य च स्त्रियो मूलं नानाशीलधराश्च ताः ।।
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