जीवन में कुछ अति विशिष्ट क्षण, घटनाएँ, व्यक्ति और चरित्र जो अपनी पावन छुअन से हमारे मन-प्राण-आत्मा को छू लेते हैं, उन्हें हम कब भुला पाते हैं। वे 'यादों की मंजूषा' में एकत्रित होते रहते हैं। अपनी अमूल्य इस पूँजी को व्यक्ति किसी के साथ साझा करना चाहता है। यदि वह रचनाकार है तो बड़ी उदारता से उसे अपने पाठकों तक संप्रेषित कर देता है। सुधियों का यह खजाना कभी घटता नहीं। पूर्ण में से पूर्ण निकलकर शेष भी पूर्ण ही बचता है। उपनिषद् के इस मंत्र की तरह पाठकों को देकर भी सुधियाँ मृत्यु-पर्यंत उसके मस्तिष्क में पूर्ववत् संचित ही रहती हैं। हाँ उसे बाँटकर संभवतः वह स्वयं को हलका महसूस करता है।
अपने संस्मरण लिखना या डायरी लिखना या आत्मकथा लिखना हो तो तीनों में रचनाकार अपने अतीत में जाता है यानी उलटी गिनती से शुरू होकर पीछे तक जाता है। ये स्मृतियाँ समय की धूल से धुँधली होकर भी धुँधली नहीं होतीं। रचनाकार की तेज स्मरण-शक्ति इस धूल को हटाती जाती है और एक-एक कर वह स्पष्ट होती जाती हैं। धूल छँटती जाती है, तस्वीर स्पष्ट होती जाती है। मनुष्य के मस्तिष्क में अनंत स्मृतिकोश हैं, जिनकी वजह से व्यक्ति भूतकाल में पहुँच जाता है। हाँ, अभी ऐसी कोई शक्ति प्रकृति ने नहीं दी अथवा ऐसे सैल नहीं बनाए जो भविष्य देखने के लिए सक्रिय हो उठें। अतीत की यादें स्मृति-पटल पर अंकित होने लगती हैं। मेरे इस स्मृतिकोश में मेरे लेखकीय जीवन में आए अनेक साहित्यिक मित्र हैं, उनसे जुड़े, अनुभवों के अनगिनत पृष्ठ दर्ज हैं।
एकांत में स्मृतियों का आकाश जब झिलमिलाने लगता है तो कई तारे आकर आँखों में टिपटिपाने लगते हैं। मन उजास से भर उठता है। इन्हीं उजास के क्षणों में उभर आई ताजगी के रंग से सजाई-सँवारी बाल साहित्यकारों की स्मृतियाँ हैं, जो हमेशा ताजा ही लगती हैं। ध्यातव्य है कि इन बालसाहित्यकारों ने अपने लेखकीय जीवन में अनेक कृतियाँ देकर बाल साहित्य को प्रतिष्ठा और ऊँचाइयाँ दी हैं। अपने लेखकीय कर्म को जीवन-पर्यंत गंभीरता से लिया। हम सब पाठक इनके कृतज्ञ हैं कि इन्होंने बाल साहित्य को अपने प्रदेय से अत्यंत समृद्ध किया है। मेरा सौभाग्य है कि बाल साहित्य में अपनी अर्थपूर्ण और गौरवपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराने वाले इन सभी बाल साहित्यकारों का मुझे अत्यंत निकट से सान्निध्य मिला, संवेदना-सिक्त स्नेह मिला, सम्मान मिला।
सबने अपने-अपने ढंग से मुझे प्रभावित और प्रेरित किया। किसी ने अपने व्यक्तित्व के निजी गुणों से आकृष्ट किया तो किसी ने अपने आंतरिक सौंदर्य से। किसी की कर्मठता से बल मिला तो किसी की संघर्षशीलता से। लेखन के प्रति किसी के जुनून ने मुग्ध किया तो किसी की विचारधारा ने।
आइए आप भी मेरे साथ मेरी अतीत की स्मृतियों में, जहाँ आप मिलेंगे एक दर्जन मेरे प्रिय वरिष्ठ बाल साहित्यकारों से। वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी के साथ हुई अनेक मुलाकातों की एवं साक्षात्कार लेते समय की संवाद-प्रतिसंवाद की कई यादगार सुंदर स्मृतियाँ मेरे मन-मस्तिष्क में आज भी उसी तरह ताजा की ताजा अंकित हैं। साहित्यिक दलबंदी और प्रचार से दूर विष्णु जी के लिए पाठक और उनकी प्रशंसा ही सबसे बड़ी पूँजी थी। “वे मेरी रचनाओं को चाव से पढ़ते हैं। किसी भी साहित्यकार के मूल्यांकन का आधार रचना होती है उसका दलतंत्र नहीं।"
जब आप जयप्रकाश भारती जी से मिलोगे तो पाओगे कि सौम्य और सरल भारती जी का हृदय सचमुच बाल सरलता का प्रतीक था। विज्ञान के विद्यार्थी होने के साथ-साथ उनके हिंदी साहित्य और हिंदी भाषा पर आश्चर्यजनक अधिकार ने मुझे भीतर तक प्रभावित किया था। भारती जी ने मुझे अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य की सौ श्रेष्ठ पुस्तकें' दी। मैंने पुस्तक के पृष्ठ पलटते हुए एक नजर में देख डाली। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अब हिंदी बाल साहित्य की सौ श्रेष्ठ पुस्तकें लिखूँ। मैंने कहा कि मैं इतना बड़ा काम नहीं कर पाऊँगी। पुस्तकों का संग्रह फिर उन्हें आद्योपांत पढ़ना और फिर सौ श्रेष्ठ पुस्तकों का चयन। भारती जी ने कहा कि पुस्तकें हम आपको उपलब्ध करा देंगे। जो हमारे पास हैं वे मैं आपको दे दूँगा। कुछ प्रकाश मनु जी दे देंगे और राष्ट्रबंधु जी तो हैं ही। सबके साझे सहयोग से वह कार्य वर्षों में पूरा हुआ। अस्वस्थता के चलते सौ तो नहीं 'हिंदी बाल साहित्य की 75 श्रेष्ठ पुस्तकें' ही कर पाई।
आइए मिलते हैं सर्जक रचनाकार, प्रबुद्ध आलोचक, कुशल संपादक, इतिहासकार डॉ. प्रकाश मनु से हिंदी बालसाहित्य का सौ वर्षों का इतिहास जिनकी स्मृतिकोष में दर्ज है, ऐसे सरस्वती के वरद् पुत्र को साहित्य-जगत् के सभी लोग जानते हैं। उन्हें पता है कि वह एक फकीर स्वभाव के संत-रचनाकार हैं। वह इतना ही कहते हैं कि "मैं तो बस एक तपस्वी हूँ और साहित्य-साधना में रत् हूँ। यही मेरी तपश्चर्या है। इसी में जीता हूँ, इसी के सुख में तल्लीन रहता हूँ। मेरी कोई इच्छा अपूर्ण नहीं रही है।" सच मैंने उन्हें सदा आप्तकाम निष्कामी मात्र सरस्वती की साधना करते पाया है। उनकी साहित्य के प्रति समर्पित साधना के फलस्वरूप ही आज आने वाली पीढ़ी हिंदी बालसाहित्य के इतिहास से परिचित हुई है।
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