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यशपाल के कथा साहित्य में नारी-पुरुष सम्बन्ध: Yashpal Ke Katha Sahitya Mein Nari-Purush Sambandh

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Specifications
Publisher: Satyam Publishing House, New Delhi
Author Shashibala Mishra
Language: Hindi
Pages: 144
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 300 gm
Edition: 2008
ISBN: 9788190661003
HBR481
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Book Description
प्राक्कथन

साहित्यकार प्रायः भावुक, संवेदनशील और क्रान्तिर्शी होता है। वह जन-सामान्य की अपेक्षा समाज में हो रहे परिवर्तनों या समय की आवश्यकताओं को शीघ्र अनुभव करके समाज का यथोचित मार्ग दर्शन कर सकता है। साहित्यकार समाज के प्रति उत्तरदायी होता है। सर्वजन या बहुजन के हित को मान्यता देने वाले सामाजिक न्याय का तो वह समर्थक होता है परन्तु इसके विरूद्ध हो रहे आचरण का वह खुल कर विरोध करता है।

यशपाल जी को मान्यता है कि साहित्य-सर्जन समाज हित से बेपरवाह, छिछला और मात्र विनोद या मनोरंजन का साधन नहीं है। साहित्य और साहित्यकार सामाजिक दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता। साहित्य देशकाल के अनुसार सामाजिक न्याय से युक्त मान्यताओं के समर्थन और उसके विकास के लिए किये गए संघर्ष का लेखा-जोखा है। सामाजिक न्याय से तात्पर्य यह है कि समाज में सबके लिए समान अवसर और समान अधिकारों की मान्यता और व्यवस्था होनी चाहिए। साहित्य न्याय शास्त्र नहीं कला है और लेखक कलाकर होता है, इसलिए वह अपने विचार और सुझाव आदेश के रूप में न देकर आकर्षक या मनोरंजक शैली में देता है। यशपाल जी की मान्यताा है कि उचित और हितकर को प्रभावशाली एवं मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करने की विधि ही साहित्य की कला है। श्री यशपाल ने अपने कथा साहित्य में इस लेखकीय दायित्व का सर्वत्र निर्वाह किया है।

जिस समय उन्होंने साहित्य सृजन के लिए लेखनी उठायी थी उस समय देश में वैचारिक एवं भौतिक परिवर्तनों की लहर चल रही थी। प्राचीन और नवीन मान्यताओं और व्यवस्थाओं में टकराव पैदा हो गया था। उस समय के युवा वर्ग में परम्परागत व्यवस्था के प्रति उपेक्षा और अश्रद्धा बढ़ गयी थी। उनमें असंयम और उच्श्रृंखलता का गहरा प्रभाव पड़ा था। प्राचीन व्यवस्थाओं में जनसाधारण और युवावर्ग को नियंत्रण में रखनेवाले तत्व हैं- शासक शक्ति का भय और धर्म में विश्वास। उस समय का युवावर्ग बहुत हद तक शासन के भय से मुक्त हो गया था। उसी प्रकार धर्म के प्रति उसका परम्परागत व्यवहार भी बदल गया था। तात्पर्य यह कि समसामयिक समाज आर्थिक, वैचारिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में परिवर्तन का पक्षधर हो गया था। अब उसे राजसत्ता के देवी अधिकार या शक्ति के भय या कृपा के प्रति लोभकी भावना क्षीण हो गयी थी। अब वह अपनी एक नई नैतिकता का विकास करना चाहता था। अतः अपने दायित्व का पालन करते हुए यशपाल जी ने जनमानस की भावनाओं का प्रतिविम्ब अपने कथा साहित्य में प्रस्तुत किया।

यशपाल जी ने आत्मकथन के माध्यम से स्वीकार किया है कि उन्हें सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में अतीत और वर्तमान सामाजिक व्यवहारों और नैतिक मान्यताओं में अन्तर्विरोध दिखायी देता है। ऐसा नहीं है कि वे परम्परागत मान्यताओं और आदर्शा के घोर विरोधी है परन्तु समसामयिक जीवन की आवश्यकताओं और सामयिक परिस्थितियों के प्रति भी आँख बन्द नहीं करना चाहते। यशपाल जी ने अपने जीवन में ही देश की परतंत्रता और परतंत्रता से मुक्त होने के संघर्षों को निकट से देखा, परखा और उसमें सक्रिय भागीदारी की और जेलयात्रा भी की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद रियासतों, जमींदारियों और सामन्ती व्यवस्था की अस्त-व्यस्त होने की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। एक बड़े परिवर्तन का सूचक समय था। यह परिवर्तन केवल राजनीतिक स्तर पर ही नहीं था। बलिक उसका प्रभाव शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं पर भी पड़ा था।

संयुक्त परिवारों में भी आर्थिक कारणों से विघटन का दौर बड़ी तेजी से चला। परिवारों का रूप और उनकी व्यवस्था पति-पत्नी और उनकी सन्तान तक ही सीमित रह गयी। सीमित परिवारों में भी पति-पत्नी के स्थान, कर्तव्य और पत्नी का पति पर आश्रित होना उस प्रकार का नहीं रह गया, जैसा वह इस शताब्दी के तीसरे दशक के पहले था। हमारे समाज की स्वीकृत आदर्श मान्यताओं के अनुसार दाम्पत्य संबंधों का मुख्य प्रयोजन था सन्तानोत्पत्ति या वंश रक्षा, परन्तु बदलते सामाजिक परिवेश में ये मान्यताएँ भी बदल गयीं। अब पति-पत्नी के कर्तव्यों और अधिकारों में आदर्श के स्थान पर जीवन के यथार्थ ने अधिकार कर लिया। परिवार संबंधी नई धारणा के अनुसार पति का स्थान कर्त्ता या स्वामी का नहीं रह गया। अब बेटियाँ और पत्नियाँ भी तंत्री-मंत्री और राजदूत आदि पदों तक पहुँचने लगी है। अब इस बात की आवश्यकता नहीं रह गयी है कि होश सम्भालते ही बेटी को किसी सम्मानित और समृद्ध परिवार में वेश रक्षा का भार, उठाने के लिए विवाहोपरान्त विदा कर दिया जाय।

नारी के जीवन में नयी व्यवस्था और कल्पनाओं ने बहुत बड़ा प्रभाव डाला है। अब वह जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष दिखायी देती है। अतः हम पत्नी को वे सभी अधिकार देने को विवश हैं, जो पहले मात्र पति को सुलभ थे। पति-पत्नी के संबंध में हमारी पुरानी मान्यताएँ एक नये बदलाव के मोड़ पर उपस्थित हैं।

यशपाल जी ने अपने कथा साहित्य में समकालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक क्षेत्र की परिवर्तित परिस्थितियों को तो रेखांकित किया ही है, साथ ही उन्होंने परिवर्तनों की भावी परिणति की ओर भी संकेत किया है। उन्होंने नारी-पुरुष संबंधों को लेकर प्रायः सभी दिशाओं, परिस्थितियों, सम्भावित घटनाओं और दुर्घटनाओं का जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया है। इन सम्बन्धों को लेकर जो भी समस्यायें या कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं या होती है उन्होंने उन सबका निदान भी बताया है।

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