परमपिता परमात्मा ही इस चराचर जगत का आधार है। मनुष्य के सभी रचनात्मक कर्म उसी की प्रेरणा से जाने-अनजाने, उसी की प्राप्ति के निमित्त किये जाते हैं, जैसा कि योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं-
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते । प्रस्तुत शोध कार्य भी इसका अपवाद नहीं है।
धार्मिक विषयों में मेरी रूचि बाल्यकाल से ही थी। बचपन में टी.वी. पर रामायण और महाभारत सीरियल में राम और कृष्ण के पात्र बड़े प्रिय लगते थे। सम्भवतः तभी से मन में ईश्वर भक्ति और श्रद्धा के भाव जगे होंगें। फिर पारिवारिक संस्कारों के कारण देश, धर्म और संस्कृति के विभिन्न प्रतीकों की मन पर गहरी छाप पड़ी। शिवाजी, महाराणा प्रताप और विवेकानन्द आदि महापुरुषों की बातें मेरे चिंतन को प्रभावित करने लगी। बारहवीं कक्षा तक आते-आते मेरी रूचि आध्यात्मिक भी हो गई और एकान्तवास प्रिय लगने लगा। साथ ही ओशो का साहित्य भी पढ़ना शुरू किया। स्नातक में प्रवेश के लिये जब गुरूकुल कांगड़ी, हरिद्वार आया तो मेरी भेंट दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक पू० गुरूदेव डॉ० सोहनपाल सिंह आर्य से हुई, जिनके ओजस्वी व्यक्तित्व ने मुझे सहज ही प्रभावित किया। स्नातक अध्ययन के दौरान ही डॉ० आर्य जी से महर्षि दयानन्द के विचारों और दर्शन को गहराई से समझने का अवसर मिला। ऐसे में दो विचारधाराएं मेरे चिंतन में समानान्तर चलती रहीं। एक महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा और दूसरी ओशो की तांत्रिक विचारधारा। योगविज्ञान विषय में एम. ए. करने के पश्चात् मैनें इन दोनों विचारधाराओं पर ही शोधकार्य करने के बारे में सोचा और प्रभु कृपा से मुझे डॉ० आर्य जी के निर्देशन में "योग साधना के परिप्रेक्ष्य में महर्षि दयानन्द सरस्वती और आचार्य रजनीश ओशो के ब्रह्मचर्य सम्बन्धी विचारों का समीक्षात्मक अध्ययन" नामक विषय पर शोध करने का सौभाग्य मिला। परमपिता परमेश्वर की कृपा और गुरूदेव के आशीर्वाद से यह शोध कार्य पूर्ण हुआ। जिसके लिये मैं सर्वप्रथम परमात्मा का स्मरण करते हुए अपने शोध-निर्देशक पूज्य गुरूदेव डॉ० सोहनपाल सिंह आर्य जी का आभार व्यक्त करता हूँ। जिन्होने अपनी ज्ञान रश्मियों से समय-समय पर मेरे अन्तःकरण के अज्ञानरूपी अन्धकार का छेदन किया। यूं तो मुझे अपने जीवन में बहुत से विद्वानों का सानिध्य मिला, किन्तु जीवन और जगत के सम्बन्ध में जैसी गहरी और स्पष्ट 'एप्रोच' डॉ० आर्य जी की है, वैसी कहीं और देखने को नहीं मिली। वेद, उपनिषद्, मनुस्मृति, गीता और योगसूत्र से लेकर सुकरात, शंकर, दयानन्द, मार्क्स और गांधी तक जो भी कल्याणकारी है वह सब आपने आत्मसात किया है। न केवल इस शोधकार्य में पूर्ण सहयोग के लिये, अपितु मेरे जीवन को एक 'विजन' देने के लिये मैं पूज्य गुरूवर को उनके अमूल्य मार्ग दर्शन हेतु पुनः नमन करता हूँ।
इस अवसर पर मैं धन्यवाद करना चाहता हूँ, उन मित्रों, सहयोगियों शुभचिंतकों एवं विद्वानों का जिन्होनें इस शोधकार्य के पूर्ण होने में किसी भी प्रकार से सहयोग किया। विशेष रूप से पतंजलि विश्वविद्यालय के विद्वान अधिकारियों ब्रिगेडियर (रिटा०) करतार सिंह, प्रो० (डॉ०) जवाहर ठाकुर, प्रो०.आर. के. शर्मा और प्रो० (डॉ०) जी. डी. शर्मा का मैं धन्यवाद करता हूँ जिन्होनें समय-समय पर मुझे इस शोधकार्य को पूर्ण करने के लिये प्रेरित किया। अपने मित्र और अग्रजतुल्य डॉ० सचिन त्यागी का भी मैं आभारी हूँ जिनका यह शोधकार्य पूर्ण करने में अनेकविध सहयोग मिला।
इस कार्य को पूर्ण करने में स्वाभाविक ही जिनका विशेष योगदान है. मेरी पूज्या माता श्रीमती राजबाला देवी और पूज्य पिता श्री धर्मपाल सिंह जी का, जिनका प्यार, प्रेरणा और आशीर्वाद ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है। मैं अपनी अर्द्धांगिनी श्रीमती गीता का आभार शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, क्योंकि इस शोधकार्य को पूर्ण करने में न केवल उन्होनें हर प्रकार से सहयोग दिया है अपितु इस अवधि में पारिवारिक दायित्यों का भी धैर्य से निर्वहन किया है। इस क्रम में मैं अपनी बिटिया वैष्णवी को भी शुभाशीष एवं प्यार देना चाहता हूँ जिसकी मधुर मुस्कान ने मुझे निरन्तर कार्य की थकान से मुक्त किया है साथ ही में अपनी (पत्नी की) नानी गां का भी आभारी हूँ, जिन्होंने इस शोधकार्य की पूर्णता के लिये समय-समय पर अपना आशीर्वाद और प्रेरणा दी।
टंकण कार्य में कुशल श्री संदीप कुमार और मेरे प्रिय विद्यार्थी अमित कंठी और मनोज चन्द्र फुलारा भी धन्यवाद के पात्र हैं जिनके परिश्रम और सहयोग से यह शोध का टंकण कार्य पूर्ण हुआ।
अब यह शोधकार्य जब पुस्तक रूप में प्रकाशित होने जा रहा है तो मैं प्रकाशक महोदय श्री आर. डी. पाण्डय जी को विशेष धन्यवाद प्रेषित करना चाहूँगा, जिन्होंने इस शोध के प्रकाशन के लिए मेरा मार्गदर्शन एवं अमूल्य सहयोग किया।
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