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१८५७ का स्वतन्त्रता संग्राम: ऐतिहासिक और साहित्यिक विमर्श-The 1857 War of Independence: Historical and Literary Discussion

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Specifications
Publisher: Hindi Sahitya Academy, Gujarat
Author Edited By Ishwar Singh Chauhan
Language: Hindi
Pages: 187
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 300 gm
Edition: 2010
HBX746
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Book Description

भूमिका

गुर्जर भारती गांधीनगर एवम् गुजरात साहित्य अकादमी के संयुक्त उपक्रम से दिनांक २४ फरवरी, २००८ को "सन् १८५७ और गुजराती हिंदी साहित्य' विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। सद्भाग्य से जिसकी अध्यक्षता डॉ. नामवर सिंह जी ने की थी। ये हमारा सौभाग्य ही है कि गुर्जर भारती के इस मंच पर हिन्दी साहित्य के महामहीम डो. नामवरसिंह उपस्थित थे, साथ ही गुजराती साहित्य के आदरणीय डो. भोलाभाई पटेल तथा डो. रघुवीर चौधरी उपस्थित थे। उद्घाटन सत्र के अपने स्वागत प्रवचन में संस्था के अध्यक्ष डॉ. महावीर सिंह जी चौहान ने इन तीनों महानुभावों की एक साथ इस मंच पर उपस्थिति को ऐतिहासिक प्रसंग कहा था ।

सम्पूर्ण संगोष्ठी तीन सत्रों में विभाजित की गई थी। उद्घाटन सत्र के पश्चात् "सन् १८५७ के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य" पर जाने माने विद्वान डो. अवधेश कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार श्री विष्णु पंड्या, तथा कवि प्रा. सुल्तान अहमद ने चर्चा की। द्वितीय संगोष्ठी में सन् १८५७ के संदर्भ के अन्तर्गत -राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के संदर्भ में हिन्दी साहित्य" पर डो. रंजना अरगडे, डो. मालती दुबे, डो. ज्ञानसिंह चन्देल, प्रा. ज्योति शर्मा, प्रा. अनुपा चौहान, डो. रमेश बहादुरसिंह तथा डो. रेखा शर्मा ने अपने वक्तव्य दिये । गुजराती साहित्य पर डो. प्रसाद ब्रह्मभट्ट, डॉ. नरेश शुक्ल, डॉ. दीपक पंडया, प्रि. हास्यदा पंडया आदि विद्वानों ने अपने विचार अभिव्यक्त किए। प्रारंभिक प्रवचन गुजरात साहित्य अकादमी के महामात्र तथा गुजराती साहित्य के प्रसिद्ध कथाकार श्री किरीट दुधात ने दिया ।

चर्चा का केन्द्र बिन्दु '१८५७'का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था। जिसने भारतीय मानस को झकझोर के रख दिया था। हजारों वर्षों की तंद्रा अचानक टूटी और भारतीय मनीषा को आत्मनिरीक्षण करने का अहसास हुआ। ये अहसास मात्र पराजय के कारण ही नहीं हुआ अंग्रेजों की सांस्कृक्तिक परिवर्तनों की कोशिशों ने भी पैदा किया। उनकी धार्मिक नीति एवम, राजनैतिक महत्वाकांक्षा के अन्धे मोह ने भारतीय ग्रामीण, अनपढ़ एवम् अज्ञानी वर्ग के समक्ष जो तात्विक कारण "धार्मिक श्रेष्ठता तथा जातीय श्रेष्ठता" के रखे उसको देखकर भारतीय बौद्धिक वर्ग में भीतरी कम्पन हुई, प्रतिक्रिया के स्वरुप में एक वैचारिक आन्दोलन जिसे विद्वानों ने भारतीय नवजागरण' की संज्ञा प्रदान की है, का प्रारम्भ हुआ ।

डॉ. नामवरसिंह ने अध्यक्षीय प्रवचन में वर्तमान भारत के राजनैतिक सामाजिक हालात पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि राष्ट्र को एक ओर अढारहसौ सत्तावन की आवश्यकता है।" निश्चित रुप से देश का वर्तमान किसी सुद्रढ़ भविष्य को निर्मित करेगा, ऐसा दूर दूर तक दिखाई नहीं देता है। राजनैतिक अस्थिरता एवम् व्यवस्थापिका न्यायपालिका में चल रहे अखूट भ्रष्टाचार, निरन्तर बढ़ता नैतिक हीनता का ये दौर देश को कहाँ ले जाएगा ये विचारणीय विषय है। भय, भूख और भ्रष्टाचार कम होने के स्थान पर दिन दुगना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है, ये स्थितियाँ निश्चित रुप से एक ओर अठारहसौ सत्तावन की आवश्यकता को बल देती है। डॉ. नामवरसिंह जी ने महात्मा गाँधीजी की पुस्तक 'हिन्दस्वराज्य' का संदर्भ देते हुए कहा कि महात्मा गाँधी १८५७की असफलता के कारणों को भलीभाँति जानते थे इसलिए लंदन के भारत भवन में वीर सावरकर तथा अन्य लोगों के बन्दूक के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करने के विचार का घोर विरोध किया; उन्होंने कहा "स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए हमें हथियार बदलने होगे 'अंहिसा' उनका वो कारगर हथियार था, डॉ. नामवर सिंह ने साहित्य और इतिहास को साथ साथ पढ़ने की सलाह प्रदान की जिस पर और अधिक प्रकाश डालते हुए डो. अवधेश कुमार सिंह ने कहा कि हमारे प्रयास १८५७ की मात्र प्रशस्ति होकर रह गए तो वह हमारा उसके सेनानियों तथा उनके बलिदानों के प्रति विश्वासघात होगा। उनके साथ न्याय मात्र इतिहास या मात्र साहित्य के अध्ययन पर संभव न होगा। इन सबके अलावा अन्य विमर्शों, यहाँ तक कि मौखिक, अलिखित विमर्शों का भी सहकृक्ति के रूप में अध्ययन करना पड़ेगा। एक हाथ में साहित्य और दूसरे हाथ में गैरसाहित्यिक जिसमें इतिहास शामिल है, उसकी पुस्तक पकड़कर सह-पठन करते हुए नये स्त्रोतों के आधार पर संग्राम के कारणो, उसमें मिली सफलताओं तथा विफलताओं को १०० वर्ष की ऐतिहासिक दूरी के आधार पर रखना होगा। हमें स्वीकारना होगा कि समस्त प्रशस्तियों तथा शौर्य गाथाओं के बावजूद १८५७में हम पराजित हुए थे और पराजय के उन कारणों को वाड्मय में छिपे विवेचनों के आधार पर समझना होगा ताकि भविष्य में १८५७ की जरूरत ही न पड़े।

ये सत्य है कि १८५७ की क्रांति एक राजनैतिक घटना है, परन्तु इस महान क्रांति के बाद शासक और शोषित दोनों की सोच में एक रचनात्मक परिवर्तन आया था, शासक अब निरा व्यापारी नहीं था; साम्राज्यवादी ताकत थी। जो मुनाफे के साथ-साथ अपने शासन की नींव को गहरे से गहरा डालना चाहती थी; तो दूसरी तरफ शोषित आत्मगौरव की मुग्धता से ग्रस्त भारत गुलाम देश था, जो इन स्थितियों से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था, उसे अपना आत्मान्वेषण भी करना था, इस बार भारत के सामने जो चुनौती थी वो पूर्व के सभी आक्रमणकारियों के समय से अलग किस्म की थी। अंग्रेज अपने साथ विज्ञान और पश्चिम संस्कृति का पुलिन्दा लिए आए थे; जिसके सामने जगत गुरु की आत्म गौरव धरासाई हो रहा था। अपने आत्म गौरव के रक्षण एवम, स्वाभिमान की पुनः प्राप्ति के लिए एक वैचारिक आन्दोलन का श्री गणेश हुआ । जिसके दो स्पष्ट बिन्दु थे, एक सामाजिक सुधार, दूसरी राष्ट्रीय भावना। उस काल का समग्र साहित्य इन्हीं दो विचार बिन्दुओं पर टिका हुआ है, मध्यभाग की दैहिक भावोत्तेजकता का जमाना लद गया था। अब साहित्य का उद्देश्य राष्ट्रीय भावना से देशवासियों को ओतप्रोत करना था। और उस दौर के सम्पूर्ण भारत वर्ष के साहित्यकारों ने अपने साहित्य में राष्ट्रीय वाणी को मुखर किया। प्रेमचंद जी का ये कथन साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। वह देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। भारतेन्दु और नर्मद जैसे समर्थ बुद्धिजीवियों ने अपने युग की मनीषा को मशाल दिखाकर राष्ट्रहित की ओर मोड़ा है। भारतेन्दु ने साहित्य के सभी विद्याओं को नई दिशा प्रदान की; इतना ही नहीं विविध पत्र-पत्रिकाओं का स्वयम् तथा अन्यों से प्रकाशित करवा कर जन-जन तक पहुँचाया । विचारों का संप्रेषण इस युग में जिस निष्ठा से किया गया पहले शायद ही कभी हुआ हो । भारतेन्दु ने संस्कृति रक्षण हेतु लेखकों को निज भाषा की रक्षा एवम्, सुदृढता के लिए ये नारा दिया "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

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