प्रस्तावना
ब्रह्मविद्या मंदिर में बीते। विनोबाजी के अंतिम बारह साल एक तप ब्रह्मजिज्ञासा से उन्होंने घर छोड़ा और उसकी पूर्णता के साथ देह छोड़ी, निर्वाण को प्राप्त किया। उन्होंने जीवन में अपनी हर कृति और हर उक्ति के पीछे एक ही कसौटी रखी थी "यह व्यापक हरि-दर्शन का अल्प प्रयत्न है।" अंतिम तप, बारह साल, उनके जीवन का मानो निचोड़ था। पूरे जीवनभर बाहर से अथक, अजोड़ सेवाकार्य और अंदर से हरिदर्शन की साधना अब वे सेवाकार्य से और साधनामयता से मुक्त थे। अब वे 'कृतकृत्य' थे। सब तरह से कृतकृत्य होकर शांति और प्रसन्नता से आलोकित थे। ऐसे इस काल के कुछ अंशों को शब्दबद्ध करने की कोशिश प्रस्तुत पुस्तक में की गयी है। उनके जीवन, कार्य तथा साहित्य में विश्व से छोटा दायरा कहीं भी दिखाई नहीं देता। उन्होंने जो भी किया, वह करते हुए विश्वात्मक भगवान् ही उनके सामने था। चाहे भावना की बात हो या चिंतन की सेवा की हो या ज्ञान की हो, उसमें विश्व ही समाया हुआ है। श्री ज्ञानदेव का एक भजन है, विश्वाचे आर्त माझे मनीं प्रकाशलें । अवघेचि जाले देह ब्रह्म 'संपूर्ण विश्व का, सबके हृदय का दुःख मेरे मन में प्रकट हुआ है, समूचा विश्व मेरी ही देह बन गया है; इतना ही नहीं, वह ब्रह्ममय है।' मतलब मेरी अपनी एक ही देह नहीं, विश्वभर की सभी देह मेरी देह में हैं। और यह जो अनुभूति है कि सभी देह मैं ही हूं, यह कोई स्थूल अनुभूति नहीं, वह ब्रह्ममय है। संपूर्ण विश्व की ब्रह्म के साथ एकाकारता मैं अपनी देह में अनुभव कर रहा हूं इस विश्वात्मक भूमिका से वे कहते हैं कि "हम किसी विशिष्ट देश के अभिमानी नहीं। किसी धर्मविशेष के आग्रही नहीं। किसी संप्रदाय में या जातिविशेष में बद्ध नहीं। विश्व में उपलब्ध सद्विचारों को आत्मसात् करना हमारा धर्म । विविध प्रकार की विशेषताओं में सामंजस्य स्थापित करना, विश्ववृत्ति का विकास करना हमारी वैचारिक साधना और हृदयों को जोड़ना हमारा जीवनध्येय।" उनका जीवन इस उक्ति को अमल में लाने के अथक प्रयास का मानो चलत् चित्रपट ही है। सन् 1916 में वे गांधीजी के पास पहुंचे। तब से 1951 तक का काल समाज के अंतिम मनुष्य के उत्थान की 'अंत्योदय' की उपासना करने में बीता। बापू ने जो रचनात्मक कार्यक्रम बताये थे, उन पर चिंतन तथा प्रत्यक्ष प्रयोग, यह उनकी उपासना का स्वरूप था। खेती, कताई बुनाई (खादी), शिक्षा, ग्रामसेवा इत्यादि पर वैज्ञानिक दृष्टि रखकर प्रयोग किये। आज की भाषा में कहना हो तो ये ग्रामीण अर्थशास्त्र के कृतियुक्त प्रयोग थे। जैसे कि दस-दस घंटे कताई, बुनाई करके मजदूर को पूरी मजदूरी कैसे मिल सकती है इत्यादि पर कृतियुक्त चिंतन कर उसके निष्कर्ष पेश किये। एक-एक ग्रामोद्योग का चित्तवेधक इतिहास है।
उसके बाद 1951 से शुरू होनेवाला भूदान का काल सर्वश्रुत है। तेरह साल में 50,000 मील पदयात्रा हुई। यानी मान लें, पृथ्वी की दो प्रदक्षिणाएं। क्योंकि पृथ्वी का व्यास 24 हजार मील है। जमीन मांगना, भूमिहीनों को जमीन देना, यह तो बाह्य अंग था। मुख्य बात तो थी आम मनुष्य के हृदय के भगवान् को जगाने की। मनुष्य के हृदय की अच्छाई को जागृत करने की, अच्छाई को बांटने की, एक-दूसरे की फिक्र करने की, प्रेम का माहौल बनाने की। और ऐसी प्रेरणा समाज को मिली। बड़े-बड़े जमींदारों ने जैसे जमीन दी, अमीरों ने संपत्ति दी, वैसे ही आम मनुष्य ने, बिलकुल फटेहाल व्यक्ति ने भी दिनभर की मजदूरी विनोबाजी के चरणों में लाकर रखने जैसी घटनाएं घटी। वह सारा अनुपमेय चित्र है। दुनिया को आश्चर्यचकित करनेवाला, भारत का गौरव बढ़ानेवाला चित्र ! इस सारे काम के साथ-साथ, इसी (1921 से आगे) काल में मौलिक साहित्य का निर्माण भी होता रहा। विज्ञान और आत्मज्ञान की बुनियाद पर आध्यात्मिक क्षेत्र के साथ ही सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों को उनका मौलिक वैचारिक योगदान मिलता रहा। उन्होंने दुनिया के प्रमुख धर्मग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया, उन ग्रंथों का चयन किया और वे धर्म सार-ग्रंथ प्रकाशित भी करवाये। जैसे कि कुरानशरीफ का उनका अध्ययन चालीस साल तक चलता रहा। उसके लिए वे अरबी भाषा सीखे । मूल कुरानशरीफ पढ़ी और बाद में चयन किया। यह इतनी मेहनत किसलिए? लोग एक-दूसरे के धर्म को समझ सकें, उसका आदर करें और प्रेम का माहौल बनें इसलिए। यह सब करते हुए एक और महत्त्व का काम हुआ। उनकी प्रत्यक्ष तालीम में तथा आंदोलन में मिले मार्गदर्शन से साधकों की तथा समर्पित सेवकों की एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी। विनोबाजी का परिचय देते हुए श्री महादेव देसाई ने लिखा था "बापू के शायद ही किसी अनुयायी ने सत्य-अहिंसा के पुजारी और कार्यरत सच्चे सेवक उतने पैदा किये हों जितने कि विनोबा ने पैदा किये हैं।..." इस सब में उनकी मुख्य चिंता, मुख्य प्रयास तो यह रहा कि साथियों की आध्यात्मिक निष्ठा बढ़े। मनुष्य जीवन का मुख्य हेतु है, आत्म-साक्षात्कार कर लेना। वह नजरअंदाज न हो। उस पर से दृष्टि न ढलें। इसकी वे बार-बार याद दिलाते रहे। हिदायतें देते रहे। ब्रह्मविद्या-मंदिर, जहां उनका अंतिम निवास रहा, उनके कहने के अनुसार उनका आखिरी कार्य रहा। ब्रह्मचर्य का संकल्प कर आध्यानिष्क साधना के लिए आयी हुई बहनों के लिए इस आश्रम की स्थापना हुई। यहां की साधना का स्वरूप व्यक्तिगत साधना का नहीं, सामूहिक साधना का है। हवा-पानी-सूरज की रोशनी जैसे ही जमीन पर भी किसी का अधिकार नहीं हो सकता; वैसे ही साधना भी किसी एक की नहीं हो सकती। 'मेरा विकास', 'मेरी साधना', यह भावना साधना को ही काटती है। हमारा विकास, हमारी साधना, हमारी मुक्ति, वे होनी चाहिए साधना की दिशा। इसी उसूल पर यहां का जीवन चल रहा है। सुश्री कुसुमताई (देशपांडे) सर्वोदय जगत् को सुपरिचित हैं। 1951 से विनोबाजी की पदयात्रा शुरू हुई। 1954 में कुसुमताई अपनी विश्वविद्यालय की शिक्षा पूरी कर बाबा के पास आ पहुंची। विनोबाजी की चौदह साल की पदयात्रा में पूरा समय उनके साथ रहीं। विनोबाजी के प्रवचनों की, चर्चाओं की रिपोर्ट लिख लेना, प्रेस को भेजना, भूदान-पत्रिकाओं के लिए पदयात्रा की साप्ताहिक डायरी लिखना, यह था उनके कार्य का स्वरूप, जो उन्होंने अंत तक उत्तम रीति से पूरा किया। उस दरमियान उनकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके इस कार्य से तथा उनके मिलनसार स्वभाव के कारण वे सर्वपरिचित ही नहीं, सबकी प्रिय बन गयी थीं। विनोबाजी के ब्रह्मविद्या मंदिर के निवास की कुसुमताई की डायरी 'मैत्री' पत्रिका में हर माह 'विनोबा निवास से' शीर्षक से प्रकाशित होती रही। विनोबाजी के निर्वाण के बाद 'मैत्री' के कुछ विशेषांक भी उन्हीं के डायरी के आधार से बने । सन् 2010 में 'विनोबा : अंतिम पर्व एक झलक' पुस्तक भी प्रकाशित हुई, जिसमें 1973 से 1979 तक के काल की बिहार आंदोलन तथा आपात्काल के संदर्भ की सामग्री दर्ज है। प्रस्तुत पुस्तक में नवंबर 1969 से दिसंबर 1975 तक का काल लिया है। इस संपूर्ण सामग्री के कुछ प्रकाशित और कुछ अप्रकाशित संकलन-संपादन का काम ब्रह्मविद्या-मंदिर की सुश्री रेखाबहन ने किया है। इसमें उन्होंने इस काल में विनोबाजी के निकट रहे अंतेवासियों का मार्गदर्शन भी प्राप्त किया है। 'विनोबा : अंतिम पर्व एक झलक' तैयार हुई, तब कुसुमताई थीं। इस समय उनकी कलम और शब्दों का ही आधार है। 1954 से किये हुए कुसुमताई के इस काम के लिए हम उनके ऋणी हैं, यह कहने में पाठक भी साथ हो जायेंगे, इसमें शक नहीं। कुसुमताई की मधुर स्मृति को ही यह प्रास्ताविक समर्पित है।
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