आयुर्वेद प्राचीनतम चिकित्साविज्ञान है जिसका प्रादुर्भाव ब्रह्मा से माना जाता है अपना दूसरे शब्दों में कहें गृहि के आदिकाल से आयुर्वेद चला आ रहा है. यह माना जा सकता है, क्योंकि धरती पर ज्यों ही मानव ने पैर रखे उसे आधि-ि के निवारण के लिए इसकी आवश्यकता पड़ी। प्राचीनता के कारण भारतीय ज्ञान के आदि स्रोतों में आयुर्वेद का सम्बन्ध जोड़ते हैं। कुछ लोग इसे ऋग्वेद और कुछ लोग अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं, किन्तु वस्तुतः वैदिक-धारा के समानान्तर चलने वाली यह जीवन-शास्त्र की अअल-धारा है जो लोक-कल्याण के लिए निरन्तर प्रवाहित होती चली आ रही है एवं आयुर्वेद को प्रत्येक युगधर्म से मिलाती है, अतः प्राचीनतम होते हुए भी आयुर्वेद सभी युगों में समान रूप से उपादेन रहाता है। इसी विशेषता के कारण आचार्य चरक ने इसे शाश्वत कहा है जिसके लिए दिये गये तीन हेतुओं का निष्कर्ष यह है कि आयुर्वेद की परम्परा कब से चली आ रही है-यह किसी को ज्ञात नहीं है। स्वयं ब्रह्मा ने भी इसे उत्पत्र नहीं किया, इसका स्मरण कर इसकी धारा को एक दिशा दी। इस कारण आयुर्वेद अनादि है, इसके ओर-छोर का कहीं पता नहीं चलता। दूसरा आयुर्वेद ऐसे सार्वभौम वैज्ञानिक सत्यों पर प्रतिष्ठित है जो सभी कालों में एक समान रहते हैं, यही वैकालिक सत्य कहे गये हैं। अतएव देश और काल की सीमा से परे आयुर्वेद सर्वत्र एवं सभी कालों में सूर्य के समान आलोकित रहता है।
अनादि-काल से चली आ रही इस परम्परा का भान कभी तीव्र रूप में और कभी मन्द रूप में होता है। कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत हो सकता है कि यह नष्ट हो गया किन्तु तब भी यह लुप्त (अदर्शनं लोपः) ही रहता है, नष्ट नहीं होता एवं पुनः अनुकूल अवसर आने पर शिर उठा लेता है। भगवान श्रीकृष्मा ने श्रीमद्भागवत गीता में योग के सम्बन्ध में ऐसा ही उपदेश किया है-गीता 4/2-31
अनेक बार कालखण्ड आयुर्वेद के प्रतिकूल रहे किन्तु भगवान श्रीकृष्ण की तरह कोई युगपुरुष अवतीर्ण होकर आयुर्वेद के मस्तक को उन्नत कर देता रहा। आज के अशान्त, संघर्षमय एवं तनावपूर्ण वातावरण में आयुर्वेद की शान्त, सौम्य, स्निग्ध छाया अधिक समीचीन एवं अपेक्षित है।
आयुर्वेद औषध सम्पदा का विशाल भण्डार है। इसमें प्रायः वानस्पतिक द्रव्य हैं जो भारत की भूमि में उगते एवं सुलभहैं। अपनी सहज विशेषताओं के कारण प्राचीनकाल में जितनी आवश्यकता थी उससे कहीं अधिक उपयोगिता आज है जिससे व्यक्ति के शरीर एवं मन का संतुलन हो और समाज में सुख, शान्ति और समन्वय का वातावरण बन सके।
इस परम् लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आयुर्वेद-शास्त्र में द्रव्यगुण (कर्म) विज्ञान का विशेष महत्त्व है जो अपनी उपादेयता के कारण आयुर्वेद के मौलिक उद्देश्य स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी को रोग से मुक्ति दिलाने में समर्थ प्रतीत होता है। यह उद्देश्य तभी सफल सिद्ध होगा जब चिकित्सक को चिकित्सा में प्रयोग किये जाने वाले द्रव्यों का सर्वाङ्गीण (Round and Sound knowledge) ज्ञान हो। क्योंकि आयुष्य, अनायुष्य द्रव्य एवं उनके गुण-कर्म का सम्यक् प्रकारेण बोध कराना भी आयुर्वेद कहा जाता है जैसा कि आचार्य चरक ने कहा है-च.सं.सू. 30/231
भारतीय वाड्मय के प्राचीनतम स्रोत ऋग्वेद में अनेक (67) औषधियों का उल्लेख किया गया है एवं कालक्रम से मानव द्वारा नये-नये द्रव्यों के प्रयोग से इनकी संख्या में अभिवृद्धि होती आ रही है जिसके परिणास्वरूप शास्त्र में नित नये द्रव्यों का समावेश होता आ रहा है।
ऐसी स्थिति में आज यह विषय भारतवर्ष के लिए गौरव का प्रतीक बन गया है, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व मानव कल्याणार्थ नित्य नये द्रव्यों के आविष्कार एवं सम्यक् प्रयोग की ओर आकर्षित हो रहा है, जिससे भारतवर्ष की यह धरोहर सर्वत्र सम्मान का प्रतीक बन गई है। आयुर्वेद रूपी वैज्ञानिक विकास की यह ऋखला द्रव्यगुण के ग्रन्थों एवं निघण्टुओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है जहाँ, जब किसी उपयोगी नवीन द्रव्य पर आचायर्यों की दृष्टि गई, उन्होंने उन्हें सादर स्थान देकर अपने शास्व को उपबृंहित करने का प्रयास किया।
विज्ञान की तीव्र प्रगति के दृष्टिगत् यह आवश्यक हो जाता है कि समय-समय पर इस विषय का सिंहावलोकन एवं निरीक्षण होता रहे एवं सर्वमान्य नये विचारों को सादर स्थान देकर मानवकल्याणार्थ प्रयोग किया जाय।
लोक एवं शास्त्र में जितने भी द्रव्य प्रचलित हैं उन सबका सम्यक् ज्ञान एवं परिचय प्राप्त करना एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। यद्यपि शास्त्र में द्रव्यों के अनेक परिचयज्ञापक तथ्य रूपी नाम निर्दिष्ट हैं तथापि सबका ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है। अनेक द्रव्य एक ही नाम से उल्लिखित हैं एवं उनका स्वरूप भी बहुत कुछ मिलता है। अतः केवल शास्त्रीय उल्लेख के आधार पर उनका परिचयात्मक ज्ञान प्राप्त कर लेना श्रेयस्कर नहीं होगा। संहिताकार चरक, सुश्रुत एवं श्री नरहर पण्डित ने द्रव्य परिचय के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विशेषज्ञ वनवासियों से सम्पर्क करने का निर्देश किया है एवं उनके गुण-कर्म का निर्धारण प्रयोगशाला में निश्चित कर लेने के उपरान्त ही प्रयोग करने को कहा है।
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