हमारा देश भाषाओं एवं संस्कृतियों की अनुपम संगमस्थली और विविधताओं में एकता का विलक्षण उदाहरण है। यहाँ का प्रत्येक राज्य भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति, भिन्न जीवन शैली, भिन्न इतिहास और भिन्न परंपराओं के बावजूद परस्पर एकता के उस मजबूत तंतु से जुड़ा हुआ है जो विश्व फलक पर इस अतुल्य देश की स्थायी पहचान और स्वीकार्यता को सुनिश्चित करता है। यकीनन भारत को गहराई से जानने के लिए उन महीन रेशों को पहचानना आवश्यक है जिनके परस्पर गुंथन से ही इस देश का ताना-बाना मजबूत होता है। 'भाषा' पत्रिका के इस अंक में अपार संभावनाओं से युक्त भारत के उस पूर्वोत्तर प्रभाग के अनेकविध पहलुओं को बेहतर ढंग से जानने-समझने और अनुभूत करने का प्रयास किया जा रहा है जो अपने में अनूठी सांस्कृतिक विरासत और लोकदाय को सहेजे हुए है। सांस्कृतिक, जातीय और धार्मिक विविधता से युक्त पूर्वोत्तर, देश के लगभग 7.97% भू-भाग में विस्तृत है, जहाँ लगभग 200 से अधिक जनजातीय समूह निवास करते हैं जिनमें मिसिंग, बोडो, दिमासा, गारो, नेपाली, कार्की, खासी, कुकी, मणिपुरी, मिज़ो, नागा, राभा, रजबोंगशी, तिवा, त्रिपुरी, बंगाली, बिष्णुप्रिया, मणिपुरी आदि कुछ प्रमुख स्वदेशी जनजातियाँ और समुदाय हैं जो अपने दैनिक जीवन में अलग-अलग भाषाओं और बोलियों का व्यवहार करते हैं।
'क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयतायाः संस्कृत के कवि माघ द्वारा लिखी गई इस उक्ति की तर्ज पर भारत का पूर्वोत्तर जहाँ प्राकृतिक रमणीयता से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है वहीं अपने भाषायी-सामाजिक-सांस्कृतिक वैभव की नित-नवीनता से मर्मज्ञों के हृदय में कौतूहल भी उत्पन्न करता है। अभी कुछ समय पहले सिक्किम राज्य के नार्थ ईस्टर्न काउंसिल में सम्मिलित होने के पश्चात् सात बहनों वाला यह राज्य अब सात बहन और एक भाई के नाम से पहचाना जाता है। असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम इन आठ राज्यों से निर्मित पूर्वोत्तर प्रभाग में सांस्कृतिक विविधता के इंद्रधनुषी रंग, सामाजिक मूल्य, परंपराएँ, आकांक्षाएँ, गौरवशाली इतिहास, भाषायी सहजता, सामुदायिक संचेतना और उत्सवधर्मिता निहित है जिसे अनुभव किए बिना पूर्वोत्तर के असली सौंदर्य को नहीं समझा जा सकता। सही मायनों में पूर्वोत्तर सामासिक संस्कृति के सम्मिलन का अनुकरणीय और बेहतरीन उदाहरण है जहाँ विशिष्ट भाषा-संस्कृति और परंपराओं के लोगों की अस्मिता और पहचान को विशिष्ट सम्मान प्राप्त है।
एक समय भौगोलिक अवस्थिति, यातायात की असुविधाओं और आतंक के साये के चलते पूर्वोत्तर के लोगों की जीवन शैली प्रभावित हुई, परिस्थितिवश अलग-थलग पड़े इस प्रांत में देश के अन्य प्रांतों के साथ संपर्क-संप्रेषण और संबंधों में क्षणिक न्यूनता भले ही आई, लेकिन आज विभिन्न समाजार्थिक कारणों से स्थितियाँ सकारात्मक रूप से बदल रही हैं। सरकार और सामाजिक संस्थाओं के प्रयासों और भाषायी तथा साहित्यिक विनिमय से पूर्वोत्तर प्रभाग देश की मुख्यधारा से जुड़ चुका है। यह समस्त राष्ट्र के लिए एक सुखद संकेत है। परिस्थितियों के बदलने के साथ ही पूर्वोत्तर में हिंदी का प्रयोग और उसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी है, दुराग्रह रहित होकर लोग हिंदी सीख रहे हैं, हिंदी में व्यवहार भी कर रहे हैं, निश्चित तौर पर यह पूर्वोत्तरवासियों का हिंदी के प्रति प्रेम ही है जो उन्हें हिंदी के माध्यम से समस्त राष्ट्र से सक्रिय और सार्थक रूप से जोड़ रहा है, अपनी पहचान और विशिष्टताओं के साथ।
संपर्क के इस बढ़ते प्रभाव का एक सकारात्मक पहलू यह भी रहा कि आज भारत के विभिन्न प्रांतों के लोगों में पूर्वोत्तर को और अधिक निकट से जानने की उत्सुकता बन रही है। यह उत्सुकता दोनों ओर से है, दोनों के प्रति है। हिंदी भाषी लोग जहाँ पूर्वोत्तर की संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों, समाज में विद्यमान लोक तत्वों, भाषिक स्वरूपों तथा साहित्य लेखन के बारे में पढ़ने और जानने को उत्सुक हैं वहीं पूर्वोत्तर के विद्वान पूर्वोत्तर में हिंदी की दशा-दिशा के बारे में शोधपरक लिख-पढ़ रहे हैं। मिजोरम की विद्वान प्रो सी.ए.जीनी की केंद्रीय हिंदी संस्थान से प्रकाशित पुस्तक 'पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य', आर.डी. सिंह की वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 'आदी भाषा का अध्ययन', राजकमल प्रकाशन से आई राजेन्द्र प्रसाद सिंह की 'भारत में नगा परिवार की भाषाएँ', वीरेन्द्र परमार की 'मेघालयः लोकजीवन और संस्कृति' तथा अनंग प्रकाशन से सद्य प्रकाशित हरेराम पाठक की 'पूर्वोत्तरीय राज्यों में हिंदी साहित्यलेखन का इतिहास', पुस्तक (जिसकी डॉ. व्यास मणि त्रिपाठी द्वारा की गई समीक्षा इसी अंक में आप पढ़ सकते हैं), परस्पर भाषिक और साहित्यिक विनिमय के कुछ उदाहरण मात्र हैं। पूर्वोत्तर के विभिन्न प्रांतों से नियमित, पत्रिकाएँ- 'साहित्य वार्ता (शिलांग), 'कंचनजंघा' (सिक्किम), 'पूर्वोत्तर सृजन पत्रिका' (पूर्वोत्तर साहित्य-नागरी मंच का प्रकाशन). 'अरुण प्रभा', असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की 'द्विभाषी राष्ट्रसेवक' आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन भी इस दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध हो रहा है।
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