| Specifications |
| Publisher: Pratishruti Prakashan, Kolkata | |
| Author Sarvesh Kumar Singh | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 160 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x6 inch | |
| Weight 354 gm | |
| Edition: 2017 | |
| ISBN: 9789383772575 | |
| HBD661 |
| Delivery and Return Policies |
| Usually ships in 10 days | |
| Returns and Exchanges accepted within 7 days | |
| Free Delivery |
जीवन का अर्थ-विस्तार यदि रचना है, तो रचना का अर्थ-विस्तार आलोचना। रचनाकार और आलोचक, यह कर्म अपने समदर्शी स्वप्नों, संकल्पों से करते हैं और करते आए हैं। युगानुकुल जैसे-जैसे जीवन अपनी रूप-रचना बनाता- बदलता गया है वैसे-वैसे ये कर्म भी बनते-बदलते गए हैं।
आज 21वीं सदी में आकर साहित्य में युगांतकारी बदलाव दिखाई दे रहे हैं। उसके स्वप्न और संघर्ष बदल चुके हैं। उसका रूप और कथ्य भी बदला है। जाहिर है अब आलोचक और आलोचना को भी उस हिसाब से अपने स्वप्न और संघर्ष बदलने होंगे।
यह सर्वविदित है कि साहित्य और उसकी विधाओं का एक बुनियादी कर्म यथार्थ की प्रस्तुति करना है, कि वह यथार्थ को जानने और उसे सम्प्रेषित करने का माध्यम है। किन्तु आलोचना का एक धड़ा आज भी ऐसा है जो मानता है कि यथार्थ की स्थिति साहित्य से बाहर कहीं है और साहित्य का काम उसे जस का तस प्रस्तुत कर देने की कोशिश करना है-यही उसका संवेदनात्मक स्तर पर संप्रेषण है। दूसरे शब्दों में, साहित्य की सत्ता, उसका औचित्य और प्रासंगिकता एक ऐसे यथार्थ से जुड़े होने में है जिसका अस्तित्व उसके बाहर है, साहित्यकार अनिवार्यतः उसी से बद्ध है, उसकी सर्जनात्मकता उसी से नियमित है। निःसंदेह यह दृष्टिकोण न केवल साहित्य के स्वायत्त अस्तित्व का पूरी तरह अतिक्रमण करता है बल्कि मानवीय सर्जनात्मकता को भी केवल यथार्थ के संप्रेषण के लिए उपयुक्त युक्तियों की तलाश तक सीमित कर देता है। यदि यह मान लिया जाय कि साहित्य का प्रयोजन अपने से बाहर स्थित यथार्थ का संप्रेषण है तो फिर कोई तर्क नहीं बचता कि यथार्थ की पहचान की कसौटी भी तब साहित्य के बाहर ही क्यों न हो? और साहित्य यदि माध्यम ही है तो उसका उपयोग साहित्येतर उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्यों न किया जाय? आगे, तब इस उपयोगिता के आधार पर ही उसकी उत्कृष्टता का मूल्यांकन स्वाभाविक होगा।
Send as free online greeting card
Visual Search