पिछले अनेक वर्षों से कथा-साहित्य के अध्ययन के समय एक बात बराबर मेरे दिमाग को कोंचती रही है कि कुछ उपन्यासकार तथा कहानीकारों ने प्रेम, परिवार, समाज, मानसिकता, परम्परायें, मूल्य एवं वातावरण में एक नयी और जागरूक दृष्टि को अपनाया है और बड़े खुले रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से जीवन के इन सारे पक्षों को एक ठोस आधार-भूमि प्रदान की है औद्योगीकरण की आधार भूमि ।
उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित होकर स्वतन्त्र आधुनिक भारत में औद्योगीकरण की निरन्तर वृहद् से बृहतर होती सीमाएँ, आधुनिक मानव-जीवन पर परिलक्षित होने वाले उसके प्रभाव व तज्जन्य प्रतिक्रियाओं के हिन्दी कथा-साहित्य में प्रभाव-ग्रहण-स्वरूप होने वाले परिवर्तनों को देखने के पश्चात् मुझे इस बात की अनिवार्यता प्रतीत हुई कि नये औद्योगिक वातावरण के परिवर्तित स्वरूप से उत्पन्न नयी समस्याओं, चुनौतियों और साथ ही औद्योगिकता से उत्पन्न अच्छाइयों से युक्त आधुनिक मानव जीवन और समाज को कथा-साहित्य में कहाँ तक और किस रूप में उभारा गया है, इसका विवेचन और विश्लेषण कुछ चुने हुये कथा-साहित्य के आधार पर किया जाय ।
मेरे प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का विनम्र-प्रयास यही विश्लेषण करना रहा है कि औद्योगीकरण ने भारत में कब और कैसे प्रवेश करके भारतीय जीवन पर अपनी जड़ें गहरी कर सारे के सारे जीवन का कायाकल्प कर दिया और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों से प्रतिबद्ध साहित्यकार ने इस काया-कल्प को किस तरह अपने साहित्य में उतारा। अभी तक इस दृष्टि से हमारे कथा-साहित्य का बहुत कम अध्ययन हुआ है। अतः इस दृष्टि से यह शोध-प्रबन्ध सम्भवतः बिलकुल मौलिक और नवीन है, हो सकता है सब कुछ परखने में मेरे चिन्तन की अपरिपक्वता से कुछ कमियाँ रह गई हो और अध्ययन अपेक्षित रूप में सटीक न बन पाया हो, परन्तु नवीनता की दृष्टि से यह उपयोगी अवश्य साबित होगा, ऐसी मुझे आशा है।
अपने इस छोटे से प्रयत्न में मुझे यदि किंचित मात्र भी सफलता मिली है, तो उस सफलता का श्रेय मेरे निर्देशक, गुरुवर और इस प्रकार के अध्ययन के प्रेरणा स्रोत डॉ० विद्यानिवास मिश्र और मेरे आत्मशक्ति के धारक मेरे पापा रामगोपाल सिंह चौहान, को जाता है, क्योंकि इन दोनों की मीठी फटकार और बार-बार कोंचने से ही निरन्तर डेढ़ वर्ष से मृत पड़े हुए मेरे शोध कार्य को जीवन-दान देने का कार्य किया है। श्रद्धेय मिश्र जी द्वारा मुझे समय-समय पर चेताया गया है और उन्होंने मेरे भीतर प्राण-मन्त्रों को फूंकने का काम किया है। समय-समय पर मिलने वाले उनके अध्ययन सम्बन्धी निर्देश सदैव मेरे अध्ययन-मार्ग को निष्कंटित करते रहे हैं। इन सब के लिए उनके ऋण को उतार पाना मेरे लिये संभव नहीं है शायद मेरे शोध-प्रबन्ध की सफलता ही मेरे लिये ऋण मुक्ति का साधन बन सकती है।
मेरे विभाग के समस्त सहयोगी जो मेरे गुरु रह चुके हैं और आज भी उनको मैं गुरु ही मानती हूँ- डॉ० ओंकार प्रसाद माहेश्वरी, डॉ० राजकिशोर सिंह, डॉ० रामस्वरूप त्रिपाठी, डॉ० सुरेश चन्द्र शर्मा, प्रो० विशम्भर 'अरुण', डॉ० खुशीराम शर्मा, डॉ० त्रिलोकी नाथ प्रेमी और अन्य लोग मेरे इस अध्ययन यात्रा में जब-तब आने वाले संकटों को दूर करने में मेरी निरन्तर मदद करते रहे हैं। इनके अतिरिक्त विश्वविद्यालय के समाज विज्ञान संस्थान के निर्देशक डॉ० राजेश्वर प्रसाद का सहयोग विस्मृत नहीं किया जा सकता है, जिन्होंने समाज शास्त्रीय अध्ययन में मेरी सहायता की। इन सबके सहयोग के लिए मैं सदैव इनकी आभारी रहूँगी । मेरे ताऊजी श्री शिवदान सिंह चौहान, जो हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक हैं और प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े हुये हैं, के स्नेहशील सहयोग के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ कि उनके स्वस्थ और परिपक्व चिन्तन ने मेरा कार्य सुलभ बनाया है। इस अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा मेरे सामने आयी समयाभाव का होना। अध्यापिका, पत्नी और विशेष रूप से माँ के तीनों महत्वपूर्ण पर्दों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए अपने अध्ययन के लिये समय निकाल पाना कठिन कार्य प्रतीत होता था, लेकिन मैं अपने को सौभाग्यशाली मानती हूँ कि स्नेहशील मम्मी मेरे पति विनय, भाई नवीं, अन्नी और भाभी दीप्ति और विशेष रूप से मेरी आठ महीने की बेटी तथा भतीजे ने पूरा-पूरा स्नेह लाड़-दुलार, मानसिक संबल देकर समयाभाव की बाधा को लाँघ कर अपने शोध-प्रबन्ध को पूरा करने में सहयोग किया। नन्हीं-मुन्नी तनु बेटी के रोने, खेलने खिलखिलाने ने हमेशा मेरी थकान को हरा है और नयी स्फूर्ति दी है। मेरे पापा शक्ति पुंज हैं, वह जीवन की खूबसूरती हैं। अगर उनकी शक्ति मुझे निरन्तर कार्य-पथ पर धकेलती न रहती, तो यहाँ तक नहीं पहुँच पाती। नमन करती हूँ बार-बार उनको । इतने वर्षों पश्चात् अपने शोध-प्रबन्ध को पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की प्रेरणा देने वाले अपने दोनों भाई डॉ० नवनीत चौहान तथा डॉ० अनिल चौहान के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। अपने पति विनय के योगदान को भी भुला नहीं सकती क्योंकि उन्होंने लगातार मुझे प्रोत्साहित किया। चिन्तन प्रकाशन के संचालक श्री रामसिंह जी के प्रति भी मैं आभारी हूँ कि उन्होंने यह शोध-प्रबन्ध प्रकाशित करने का जिम्मा लिया और उसे पूरे उत्साह से पूर्ण भी किया । अपने इस शोथ-प्रबन्ध की त्रुटियों के प्रति मैं सजग रही हूँ और क्षमा प्रार्थी हूँ उन त्रुटियों के लिए अपने गुरुओं से, पापा से तथा विज्ञजनों से। अपने निर्देशक डॉ० विद्यानिवास मिश्र के सफल निर्देशन के बाद भी रह गई गलतियों के लिये उनसे क्षमा माँगना धृष्टता होगी ।
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