पुस्तक के विषय में
देश के स्वतन्त्र होने के बाद कला जगत् में भी नवचेतना का संचार हुआ है। विभिन्न प्रदेशों में सांस्कृतिक आदान प्रदान बढ़ गए हैं, और कला विषयक विचार विनिमय में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। साथ ही साथ, हमारे अनेक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में सौन्दर्यशास्त्र को पाठ्यक्रम का (स्वैकल्पिक) भाग बना लिया गया है। हम विषय पर पारम्पारिक ढंग से लिखी हुईं कुछ पुस्तकें तो अवश्य हैं, पर दार्शनिक सौन्दर्यशास्त्र, जिसकों बीसवीं सदी की एक प्रमुख विचारात्मक उपलब्धि माना जाता है, भारतीय पंडित्य के क्षेत्र में अभी तक अपेक्षाकृत उपेक्षित ही है। और हिन्दी में तो कोई पुस्तक दार्शनिक सौन्दर्यशास्त्र पर है ही नहीं।
यह वह कीम है जिसकों पूरा करने का पहला प्रयास है। इसमें आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र के मूलभूत संप्रत्ययों और सम्बन्धित समस्याओं पर विचारण को सुस्पद करने के लिए लेखिका में पग हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू कविता तथा संगीत से उदाहरण भी दिए हैं। फलस्वरूप दर्शनशास्त्र और संगीत, दोनों ही के विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक उपयोगी होगी।
प्रयुक्त, भाषा हिन्दुस्तानीश है। लेखन शैली अनावश्यक जटिलता से मुक्त है और पाठकों को सुबोधगम्य ही नहीं वरन रुचिकर भी लेगेगी।
राजधानी के इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालयों से अवकाश प्राप्त मञ्जुला सक्सेना न चालीस वर्षों तक दर्शन शास्त्र का सफल अध्यापन किया है। धर्म दर्शन, तत्वमीमांसा तथा सौन्दर्यशास्त्र, जिनमें इनकी विशेष रुचि है, इन्होंने स्नातकोतर कक्षाओं को भी पढ़ाये हैं। हिन्दी साहित्य एवं संगीत की जानकारी के कारण इनका सौन्दर्यशास्त्र का अध्यापन विशेषत रुचिकर रहा है। लेखिका ने दिल्ली विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में राष्ट्रीय एवं अर्न्तराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं, संगोष्ठियों एवं आकाशवानी दिल्ली में इनका नियमित, सक्रिय योगदान रहा है। सम्प्रति लेखन में प्रवृत्त मञ्जुला जटिलतम दार्शनिक गुत्थियों को सरल भाषा में समझाने की अपनी क्षमता के लिए विद्यार्थियों में सदा प्रिय रही हैं।
प्रस्तावना
नब्बे के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में स्नातकोत्तर कक्षाओं को सौन्दर्यशास्त्र पढ़ाते समय मैंने हिन्दी माध्यम के छात्र छात्राओं की कठिनाइयों का साक्षात् अनुभव किया । इनका अंग्रेजी का ज्ञान इतना कम था कि कक्षा में लगभग अंग्रेज़ी के प्रत्येक वाक्य को हिन्दी में दोहराना पड़ता था । किन्तु इससे भी छात्रों की पर्याप्त सहायता नहीं हो पाती थी, क्योंकि क्लास में समझाने के लिये प्रयुक्त हिन्दी बहुधा आम बोल चाल जैसी हो जाती थी, और ऐसी भाषा के सहारे छात्र परीक्षाओं में सारा प्रश्नपत्र हिन्दी में नहीं कर सकते थे । इसलिए मुझे हर वर्ष ही सत्र के अन्त में इन छात्रों को लगभग सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का (जो दो भागों में है एक में सौन्दर्यशास्त्रीय सम्प्रत्ययों एवं समस्याओं का अध्ययन करना होता था, और दूसरे में कम से कम सात पाश्चात्य सौन्दर्य शास्त्रियों के लम्बे लम्बे लेखों का) हिन्दी अनुवाद लिखाना पड़ता था । इस परिश्रम के फलस्वरूप छात्रों को विषय रोचक तो लगने लगा, परन्तु वे आग्रह भी करने लगे कि मैं कम से कम उनके पाठ्यक्रम पर तो एक पुस्तक हिन्दी में अवश्य लिखूँ। मैंने हर वर्ष ऐस्थैटिक्स पर हिन्दी में लिखी अच्छी पुस्तक खोजने का प्रयास किया, और जब सफलता न मिली तब मैंने इस कमी को स्वयं पूरा करने का निश्चय किया । फलस्वरूप, यह पुस्तक पाठकों के सामने है ।
दिल्ली की अपेक्षा अन्य राज्यों में हिन्दी माध्यम के छात्रों की संख्या अधिक है । इसलिये मैंने इस पुस्तक में लगभग उन सभी विषयों का विवेचन किया है जो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में स्थित विद्यापीठों के पाठ्यक्रमों में हैं । साथ साथ, क्योंकि इन सभी जगहों पर संगीत भी स्नातक और स्नातकोत्तर अध्ययन का विषय है (और संगीत के छात्रों को सौन्दर्यशास्त्र से भी अवगत होना पड़ता है), इसलिये मैंने इस पुस्तक में संगीतके सन्दर्भ में सौन्दर्यशास्त्रीय विचारण करने का विशेष प्रयास किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत संकाय में तो शत प्रतिशत छात्रों का माध्यम हिन्दी है और उनको भी विषय की व्याख्या करने वाली कोई हिन्दी की पुस्तक अभी तक मिल नहीं सकी है। आशा है, प्रस्तुत कृति से उनकी भी सहायता होगी। अब, यह एक निर्विवाद सत्य है कि सौन्दर्य शास्त्र का आज तक जितना भी विकास हुआ है, उसका अधिकांश विवरण पश्चिमी दार्शनिकों के लेखों में पाया जाता है। इस कारण मुझे यह आवश्यक लगता है कि हिन्दी माध्यम के छात्र भी मूल लेखन, जो अंग्रेजी में है, समझ कर पढ़ सकें। किन्तु वे ऐसा तभी कर सकेंगे जब उस लेखन का प्रारंभिक परिचय छात्रों को हिन्दी में मिल जाए, और पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्रियो के मुख्य विचारों को वे हिन्दी के माध्यम से भली भाँति समझ भी लें। इसी उद्देश्य से सम्पूर्ण पुस्तक में अधिकतर उद्धृत अंश पहले मूल अंग्रेजी में देकर ही उनका हिन्दी अनुवाद साथ साथ कर दिया गया है। पुस्तक सभी छात्रों को महत्त्वपूर्ण सौन्दर्य शास्त्रियों के आधारीय लेखन को पढ़ने के लिये समर्थ कर दे, इसलिए सभी सौन्दर्यशास्त्रीय संप्रत्यय भी जैसे form, feeling, expression, intuience अपने हिन्दी पर्यायों के साथ ही प्रयुक्त किये गये हैं। हां, हिन्दी पर्याय ढूँढते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा गया है कि हमारी अनुभूति और व्यवहार में इन संप्रत्ययों का जो स्वरूप उभरता है, हिन्दी पर्यायों के माध्यम से वह भी व्यक्त तथा संप्रेषित हो। हिन्दी भाषी विद्यार्थियों का तो बराबर ध्यान रखा ही गया है। इसीलिए कवि दान्ते (Dante) ने अपनी कविता में प्रेमियों के words and tears, तथा snow and rain की जो पारस्परिक समानुपातिकता दर्शायी है उसको बनाए रखने के लिए उद्धृत उपमा का अनुवाद, हिन्दी में एक ऐसे दोहे के रूप में कर दिया गया है जिसमें कल्पनाओं का समानुपात बिल्कुल स्पष्ट है।
हिन्दी पुस्तकों की एक व्यावहारिक कठिनाई है पांडुलिपि को कम्प्यूटर और पर टाइप करने की, जिसमें निपुण लोगों की संख्या आज भी बहुत छोटी है। श्री ए.एन. शर्मा ने बहुत मेहनत से और बहुत समय लगा कर यह पांडुलिपि टाइप की है। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि इस काम के लिएमुझे उनके पास कभी नहीं जाना पड़ा । वे स्वयं ही मेरे घर आकर पांडुलिपि के पृष्ठ लेते देते रहे । इस सब के लिए मैं हृदय से उनकी आभारी हूँ।
मेरे पति. श्री कृष्ण कुमार सक्सेना, और बेटे गौरव के निरन्तर सहयोग और प्रोत्साहन के बिना यह पुस्तक लिखी ही नहीं जा सकती थी । जैसे तैसे, नौकरों के सहारे चलती गृहस्थी को भी इन्होंने केवल सहर्ष स्वीकारा ही नहीं, बल्कि मेरे हताशा और निराशा के क्षणों में पुस्तक कदापि अधूरा न छोड़ने की हिम्मत भी बधाई । और जहां तक मेरे पिता जी, प्रो० सुशील कुमार सक्सेना, का सम्बन्ध है, उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करने में तो मैं असमर्थ हूँ क्योंकि प्रस्तुति के प्रत्येक पक्ष में उनका योगदान अतुलनीय है। मुझ में सौन्दर्य शास्त्र के अध्ययन के प्रति रुचि उन्होंने ही जगाई पहले अपने प्रयत्नों के फलस्वरूप दर्शन विभाग के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में इस विषय को स्थान दिला कर, और फिर 1 मध्य से 1966 तक मैरी ही कक्षा को पहली बार यह विषय अपने विलक्षण ढंग से पढ़ा कर । आरम्भ में लगता था कि ललित कलाओं जैसे (मूलत अनुभूत करने वाले सरस) विषय का शुक दार्शनिक विवेचन करना अनुचित और अनावश्यक है । किन्तु एक दिन जब कक्षा का अधिकांश, साल्वाडोर डाली (Salvador Dali ) के एक चित्र की उनके द्वारा की गई व्याख्या सुन चमत्कृत सा रह गया, तब दो बातें और समझ में आई। एक यह कि महानतम कलाकृति की भी श्रेष्ठता आँकने के लिए सौन्दर्यशास्त्रीय समझ लगभग अनिवार्य ही है, विशेषत तब जब कृति देखने में तुरन्त सुन्दर न प्रतीत हो और दूसरी यह कि कला की (दार्शनिक) सौन्दर्यशास्त्रीय व्याख्या भी लगभग उतना ही आनन्द दे सकती है जितना कला का रसास्वादन, बशर्ते कि व्याख्या पिता जी जैसे एक सहृदय कला मर्मज्ञ द्वारा की जा रही हो । तो पिताजी को तो धन्यवाद क्या दूं और कितना दूं हाँ, इस पुस्तक के प्रकाशक मैसर्स डी०के० प्रिन्टवर्ल्ड के प्रति मैं अवश्य आभार प्रकट करना चाहती हूँ। ऐस्थैटिक्स पर वे कई श्रेष्ठ पुस्तकें प्रकाशित कर चुके है, और जिस लगन और कुशलता के साथ उन्होंने मेरी यह पुस्तक छापी है उसके लिये मैं जितना भी उन्हें धन्यवाद दूं वह कम ही होगा ।
विषय सूची |
||
प्रस्तावना |
vii |
|
1 |
प्रारम्भिक |
1 |
2 |
दार्शनिक सौन्दर्यशास्त्र के उपागम |
110 |
3 |
सौन्दर्यशास्त्र की सम्भाव्यता तथा आवश्यकता |
154 |
4 |
सौन्दर्यशास्त्र के कुछ मूलभूत प्रत्यय तथा प्रभेद |
238 |
5 |
सौन्दर्यपरक अभिवृति अनुभूति एवं दृष्टिकोण |
271 |
6 |
कला, और उसका प्रासंगिक वैविध मूल्य, जीवन और यथार्थ |
294 |
7 |
कला विषयक मत |
329 |
ग्रंथ और लेख सूची |
344 |
|
परिशिष्ट प्रत्यय सूची |
351 |
पुस्तक के विषय में
देश के स्वतन्त्र होने के बाद कला जगत् में भी नवचेतना का संचार हुआ है। विभिन्न प्रदेशों में सांस्कृतिक आदान प्रदान बढ़ गए हैं, और कला विषयक विचार विनिमय में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। साथ ही साथ, हमारे अनेक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में सौन्दर्यशास्त्र को पाठ्यक्रम का (स्वैकल्पिक) भाग बना लिया गया है। हम विषय पर पारम्पारिक ढंग से लिखी हुईं कुछ पुस्तकें तो अवश्य हैं, पर दार्शनिक सौन्दर्यशास्त्र, जिसकों बीसवीं सदी की एक प्रमुख विचारात्मक उपलब्धि माना जाता है, भारतीय पंडित्य के क्षेत्र में अभी तक अपेक्षाकृत उपेक्षित ही है। और हिन्दी में तो कोई पुस्तक दार्शनिक सौन्दर्यशास्त्र पर है ही नहीं।
यह वह कीम है जिसकों पूरा करने का पहला प्रयास है। इसमें आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र के मूलभूत संप्रत्ययों और सम्बन्धित समस्याओं पर विचारण को सुस्पद करने के लिए लेखिका में पग हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू कविता तथा संगीत से उदाहरण भी दिए हैं। फलस्वरूप दर्शनशास्त्र और संगीत, दोनों ही के विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक उपयोगी होगी।
प्रयुक्त, भाषा हिन्दुस्तानीश है। लेखन शैली अनावश्यक जटिलता से मुक्त है और पाठकों को सुबोधगम्य ही नहीं वरन रुचिकर भी लेगेगी।
राजधानी के इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालयों से अवकाश प्राप्त मञ्जुला सक्सेना न चालीस वर्षों तक दर्शन शास्त्र का सफल अध्यापन किया है। धर्म दर्शन, तत्वमीमांसा तथा सौन्दर्यशास्त्र, जिनमें इनकी विशेष रुचि है, इन्होंने स्नातकोतर कक्षाओं को भी पढ़ाये हैं। हिन्दी साहित्य एवं संगीत की जानकारी के कारण इनका सौन्दर्यशास्त्र का अध्यापन विशेषत रुचिकर रहा है। लेखिका ने दिल्ली विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में राष्ट्रीय एवं अर्न्तराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं, संगोष्ठियों एवं आकाशवानी दिल्ली में इनका नियमित, सक्रिय योगदान रहा है। सम्प्रति लेखन में प्रवृत्त मञ्जुला जटिलतम दार्शनिक गुत्थियों को सरल भाषा में समझाने की अपनी क्षमता के लिए विद्यार्थियों में सदा प्रिय रही हैं।
प्रस्तावना
नब्बे के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में स्नातकोत्तर कक्षाओं को सौन्दर्यशास्त्र पढ़ाते समय मैंने हिन्दी माध्यम के छात्र छात्राओं की कठिनाइयों का साक्षात् अनुभव किया । इनका अंग्रेजी का ज्ञान इतना कम था कि कक्षा में लगभग अंग्रेज़ी के प्रत्येक वाक्य को हिन्दी में दोहराना पड़ता था । किन्तु इससे भी छात्रों की पर्याप्त सहायता नहीं हो पाती थी, क्योंकि क्लास में समझाने के लिये प्रयुक्त हिन्दी बहुधा आम बोल चाल जैसी हो जाती थी, और ऐसी भाषा के सहारे छात्र परीक्षाओं में सारा प्रश्नपत्र हिन्दी में नहीं कर सकते थे । इसलिए मुझे हर वर्ष ही सत्र के अन्त में इन छात्रों को लगभग सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का (जो दो भागों में है एक में सौन्दर्यशास्त्रीय सम्प्रत्ययों एवं समस्याओं का अध्ययन करना होता था, और दूसरे में कम से कम सात पाश्चात्य सौन्दर्य शास्त्रियों के लम्बे लम्बे लेखों का) हिन्दी अनुवाद लिखाना पड़ता था । इस परिश्रम के फलस्वरूप छात्रों को विषय रोचक तो लगने लगा, परन्तु वे आग्रह भी करने लगे कि मैं कम से कम उनके पाठ्यक्रम पर तो एक पुस्तक हिन्दी में अवश्य लिखूँ। मैंने हर वर्ष ऐस्थैटिक्स पर हिन्दी में लिखी अच्छी पुस्तक खोजने का प्रयास किया, और जब सफलता न मिली तब मैंने इस कमी को स्वयं पूरा करने का निश्चय किया । फलस्वरूप, यह पुस्तक पाठकों के सामने है ।
दिल्ली की अपेक्षा अन्य राज्यों में हिन्दी माध्यम के छात्रों की संख्या अधिक है । इसलिये मैंने इस पुस्तक में लगभग उन सभी विषयों का विवेचन किया है जो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में स्थित विद्यापीठों के पाठ्यक्रमों में हैं । साथ साथ, क्योंकि इन सभी जगहों पर संगीत भी स्नातक और स्नातकोत्तर अध्ययन का विषय है (और संगीत के छात्रों को सौन्दर्यशास्त्र से भी अवगत होना पड़ता है), इसलिये मैंने इस पुस्तक में संगीतके सन्दर्भ में सौन्दर्यशास्त्रीय विचारण करने का विशेष प्रयास किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत संकाय में तो शत प्रतिशत छात्रों का माध्यम हिन्दी है और उनको भी विषय की व्याख्या करने वाली कोई हिन्दी की पुस्तक अभी तक मिल नहीं सकी है। आशा है, प्रस्तुत कृति से उनकी भी सहायता होगी। अब, यह एक निर्विवाद सत्य है कि सौन्दर्य शास्त्र का आज तक जितना भी विकास हुआ है, उसका अधिकांश विवरण पश्चिमी दार्शनिकों के लेखों में पाया जाता है। इस कारण मुझे यह आवश्यक लगता है कि हिन्दी माध्यम के छात्र भी मूल लेखन, जो अंग्रेजी में है, समझ कर पढ़ सकें। किन्तु वे ऐसा तभी कर सकेंगे जब उस लेखन का प्रारंभिक परिचय छात्रों को हिन्दी में मिल जाए, और पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्रियो के मुख्य विचारों को वे हिन्दी के माध्यम से भली भाँति समझ भी लें। इसी उद्देश्य से सम्पूर्ण पुस्तक में अधिकतर उद्धृत अंश पहले मूल अंग्रेजी में देकर ही उनका हिन्दी अनुवाद साथ साथ कर दिया गया है। पुस्तक सभी छात्रों को महत्त्वपूर्ण सौन्दर्य शास्त्रियों के आधारीय लेखन को पढ़ने के लिये समर्थ कर दे, इसलिए सभी सौन्दर्यशास्त्रीय संप्रत्यय भी जैसे form, feeling, expression, intuience अपने हिन्दी पर्यायों के साथ ही प्रयुक्त किये गये हैं। हां, हिन्दी पर्याय ढूँढते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा गया है कि हमारी अनुभूति और व्यवहार में इन संप्रत्ययों का जो स्वरूप उभरता है, हिन्दी पर्यायों के माध्यम से वह भी व्यक्त तथा संप्रेषित हो। हिन्दी भाषी विद्यार्थियों का तो बराबर ध्यान रखा ही गया है। इसीलिए कवि दान्ते (Dante) ने अपनी कविता में प्रेमियों के words and tears, तथा snow and rain की जो पारस्परिक समानुपातिकता दर्शायी है उसको बनाए रखने के लिए उद्धृत उपमा का अनुवाद, हिन्दी में एक ऐसे दोहे के रूप में कर दिया गया है जिसमें कल्पनाओं का समानुपात बिल्कुल स्पष्ट है।
हिन्दी पुस्तकों की एक व्यावहारिक कठिनाई है पांडुलिपि को कम्प्यूटर और पर टाइप करने की, जिसमें निपुण लोगों की संख्या आज भी बहुत छोटी है। श्री ए.एन. शर्मा ने बहुत मेहनत से और बहुत समय लगा कर यह पांडुलिपि टाइप की है। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि इस काम के लिएमुझे उनके पास कभी नहीं जाना पड़ा । वे स्वयं ही मेरे घर आकर पांडुलिपि के पृष्ठ लेते देते रहे । इस सब के लिए मैं हृदय से उनकी आभारी हूँ।
मेरे पति. श्री कृष्ण कुमार सक्सेना, और बेटे गौरव के निरन्तर सहयोग और प्रोत्साहन के बिना यह पुस्तक लिखी ही नहीं जा सकती थी । जैसे तैसे, नौकरों के सहारे चलती गृहस्थी को भी इन्होंने केवल सहर्ष स्वीकारा ही नहीं, बल्कि मेरे हताशा और निराशा के क्षणों में पुस्तक कदापि अधूरा न छोड़ने की हिम्मत भी बधाई । और जहां तक मेरे पिता जी, प्रो० सुशील कुमार सक्सेना, का सम्बन्ध है, उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करने में तो मैं असमर्थ हूँ क्योंकि प्रस्तुति के प्रत्येक पक्ष में उनका योगदान अतुलनीय है। मुझ में सौन्दर्य शास्त्र के अध्ययन के प्रति रुचि उन्होंने ही जगाई पहले अपने प्रयत्नों के फलस्वरूप दर्शन विभाग के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में इस विषय को स्थान दिला कर, और फिर 1 मध्य से 1966 तक मैरी ही कक्षा को पहली बार यह विषय अपने विलक्षण ढंग से पढ़ा कर । आरम्भ में लगता था कि ललित कलाओं जैसे (मूलत अनुभूत करने वाले सरस) विषय का शुक दार्शनिक विवेचन करना अनुचित और अनावश्यक है । किन्तु एक दिन जब कक्षा का अधिकांश, साल्वाडोर डाली (Salvador Dali ) के एक चित्र की उनके द्वारा की गई व्याख्या सुन चमत्कृत सा रह गया, तब दो बातें और समझ में आई। एक यह कि महानतम कलाकृति की भी श्रेष्ठता आँकने के लिए सौन्दर्यशास्त्रीय समझ लगभग अनिवार्य ही है, विशेषत तब जब कृति देखने में तुरन्त सुन्दर न प्रतीत हो और दूसरी यह कि कला की (दार्शनिक) सौन्दर्यशास्त्रीय व्याख्या भी लगभग उतना ही आनन्द दे सकती है जितना कला का रसास्वादन, बशर्ते कि व्याख्या पिता जी जैसे एक सहृदय कला मर्मज्ञ द्वारा की जा रही हो । तो पिताजी को तो धन्यवाद क्या दूं और कितना दूं हाँ, इस पुस्तक के प्रकाशक मैसर्स डी०के० प्रिन्टवर्ल्ड के प्रति मैं अवश्य आभार प्रकट करना चाहती हूँ। ऐस्थैटिक्स पर वे कई श्रेष्ठ पुस्तकें प्रकाशित कर चुके है, और जिस लगन और कुशलता के साथ उन्होंने मेरी यह पुस्तक छापी है उसके लिये मैं जितना भी उन्हें धन्यवाद दूं वह कम ही होगा ।
विषय सूची |
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प्रस्तावना |
vii |
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1 |
प्रारम्भिक |
1 |
2 |
दार्शनिक सौन्दर्यशास्त्र के उपागम |
110 |
3 |
सौन्दर्यशास्त्र की सम्भाव्यता तथा आवश्यकता |
154 |
4 |
सौन्दर्यशास्त्र के कुछ मूलभूत प्रत्यय तथा प्रभेद |
238 |
5 |
सौन्दर्यपरक अभिवृति अनुभूति एवं दृष्टिकोण |
271 |
6 |
कला, और उसका प्रासंगिक वैविध मूल्य, जीवन और यथार्थ |
294 |
7 |
कला विषयक मत |
329 |
ग्रंथ और लेख सूची |
344 |
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परिशिष्ट प्रत्यय सूची |
351 |