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बाङ्‌ला साहित्य को इतिहास: Bangla Sahitya Ka Itihas

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Specifications
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Author Sukumar Sen
Language: Hindi
Pages: 395
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 Inch
Weight 530 gm
Edition: 2025
ISBN: 9788126019496
HCA617
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Book Description

प्रस्तावना

 

 

कई महीने पहले प्रोफ़ेसर सुकुमार सेन ने बाड्‌ला साहित्य के इतिहास पर अपनी पुस्तक की प्रूफ कापी भेजी और मुझसे उसकी प्रस्तावना लिखने के लिए कहा। मेरी तात्कालिक प्रतिक्रिया इस प्रस्ताव के अनुकूल नहीं थी। मुझे यह धृष्टता लगी कि बाड्ला साहित्य की इतनी कम जानकारी होते हुए में एक विद्वान् की पुस्तक की प्रस्तावना लिखें। परन्तु साथ ही में विषय से आकर्षित हुआ और मेरे मन में अपने इस महान् साहित्य के सम्बन्ध में कुछ जानकारी हासिल करने की उत्कंठा पैदा हुई। मैंने प्रोफ़ेसर सुकुमार सेन की पुस्तक की प्रूफ़-कापी अपने पास रख ली और उसे यात्रा में साथ ले जाने लगा। जब-जब मुझे समय मिलता था, में उसमें डुबकी लगा लेता था। इस तरह कई महीने बीत गए, और मैं प्रोफ़ेसर सेन तथा साहित्य अकादेमी के प्रति क्षमा-प्रार्थी हूँ, जिसके तत्त्वावधान में यह पुस्तक लिखी गयी है। साहित्य अकादेमी द्वारा भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य के ऐतिहासिक अध्ययनों के प्रकाशन की व्यवस्था का विचार अच्छा था। साहित्य अकादेमी का मुख्य कार्य भारत की इन तमाम महान् भाषाओं को प्रोत्साहित करना और एक दूसरे के निकट लाना है। उनकी जड़ें और प्रेरणाएँ बहुत कुछ एक जैसी रही हैं। जिस मानसिक आबोहवा में वे विकसित हुई हैं, वह भी समान रही हैं। उन सभी ने पश्चिमी विचारों और प्रभाव के एक ही प्रकार के संघात का सामना किया है। यहाँ तक कि दक्षिण भारतीय भाषाएँ भी, अपने भिन्न-भिन्न स्रोतों के बावजूद, समान परिस्थितियों में विकसित हुई हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि इन महान् भाषाओं में से प्रत्येक भाषा केवल भारत के किसी भाग की भाषा नही है बल्कि तत्त्वतः भारत की भाषा है, जो इस देश के विचारों, संस्कृति और विकास का, उसके अनेक रूपों में प्रतिनिधित्व करती है। हम लोगों में से बहुतों के लिए अपनी विभिन्न भाषाओं के साहित्यों की सीधी जानकारी रखना सम्भव नहीं होगा। लेकिन यह निश्चय ही वांछनीय है। हर भारतीय को, जो शिक्षित होने का दावा करता है, अपनी भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं के बारे में भी जानना चाहिए। उसे उन भाषाओं की कालजयी और प्रसिद्ध पुस्तकों से परिचित होना चाहिए और इस प्रकार अपने भीतर भारतीय संस्कृति के व्यापक और बहुमुखी आधारों को आत्मसात् करना चाहिए। इस प्रक्रिया में सहायता करने के लिए, साहित्य अकादेमी हमारी भाषा की प्रसिद्ध पुस्तकों का अनुवाद दूसरी भाषाओं में प्रकाशित कर रही है और उसके तत्त्वावधान में भारतीय साहित्यों के इन इतिहासों का प्रकाशन हो रहा है। इस प्रकार अकादेमी हमारे सांस्कृतिक ज्ञान के आधार को व्यापक और गहरा बना रही है और लोगों को भारतीय चिन्तन और साहित्यिक पृष्ठभूमि की तात्विक एकता का बोध करा रही है। प्राचीन समय में संस्कृत अपनी गहनता, समृद्धि और भव्यता के कारण हमारी प्रादेशिक भाषाओं पर छा गयी और उनके विकास को अवरुद्ध कर दिया। बाद में, फ़ारसी भी कुछ-कुछ इस विकास के मार्ग में आयी। यूरोप में यूरोपीय देशों की राष्ट्रीय भाषाओं के सन्दर्भ में लैटिन और ग्रीक की भी यही भूमिका रही थी। रेनेसां के समय और उसके बाद ही राष्ट्रीय भाषाओं का विकास धीरे-धीरे आरम्भ हुआ। जाहिर है कि यूरोपीय मानस पर लैटिन और ग्रीक के प्रभाव की तुलना में भारतीय मानस पर संस्कृत का प्रभाव कहीं अधिक गहरा था। वह यहाँ की मिट्टी की भाषा थी और जाति की आस्था, परम्पराओं, पुराण, शास्त्र और दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ घनिष्ठ रूप से बँधी हुई थी। इस प्रक्रिया में सहायता करने के लिए, साहित्य अकादेमी हमारी भाषा की प्रसिद्ध पुस्तकों का अनुवाद दूसरी भाषाओं में प्रकाशित कर रही है और उसके तत्त्वावधान में भारतीय साहित्यों के इन इतिहासों का प्रकाशन हो रहा है। इस प्रकार अकादेमी हमारे सांस्कृतिक ज्ञान के आधार को व्यापक और गहरा बना रही है और लोगों को भारतीय चिन्तन और साहित्यिक पृष्ठभूमि की तात्विक एकता का बोध करा रही है। प्राचीन समय में संस्कृत अपनी गहनता, समृद्धि और भव्यता के कारण हमारी प्रादेशिक भाषाओं पर छा गयी और उनके विकास को अवरुद्ध कर दिया। बाद में, फ़ारसी भी कुछ-कुछ इस विकास के मार्ग में आयी। यूरोप में यूरोपीय देशों की राष्ट्रीय भाषाओं के सन्दर्भ में लैटिन और ग्रीक की भी यही भूमिका रही थी। रेनेसां के समय और उसके बाद ही राष्ट्रीय भाषाओं का विकास धीरे-धीरे आरम्भ हुआ। जाहिर है कि यूरोपीय मानस पर लैटिन और ग्रीक के प्रभाव की तुलना में भारतीय मानस पर संस्कृत का प्रभाव कहीं अधिक गहरा था। वह यहाँ की मिट्टी की भाषा थी और जाति की आस्था, परम्पराओं, पुराण, शास्त्र और दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ घनिष्ठ रूप से बँधी हुई थी। इस बात से सम्भवतः हमारी राष्ट्रीय भाषाओं के पूर्ण विकास में विलम्ब के कारण की व्याख्या हो जाती है। फिर यह बात कि हमारी वर्तमान भाषाओं की शुरुआत कितनी पुरानी है, दिलचस्प भी है और कुछ विस्मित करनेवाली भी। तमिळ, निस्सन्देह सबसे अलग है, और उसका इतिहास बहुत पुराना है। प्रोफ़ेसर सेन की पुस्तक पढ़ते हुए मुझे प्राकृत और अपभ्रंश से बाङ्ला के क्रमशः विकास की बात में गहरी दिलचस्पी रही है। जैसाकि सामान्यतः होता है (बाङ्ला में भी), हमें आरम्भ में भक्तिपरक और प्रगीतात्मक पद और रहस्यात्मक काव्य मिलता है, और उसके बाद समाख्यान-काव्य। धीरे-धीरे साहित्यिक गद्य का विकास होता है, और फिर नाटक और अन्ततः कथा-साहित्य का। प्रोफ़ेसर सेन ने प्राचीन काल के लेखकों के बारे में बहुत-से ब्यौरे दिए हैं। मुझे वाला भाषा के विकास की प्रगति में दिलचस्पी रही है और विशेषकर इसके लगभग हाल के दिनों के विकास में, जब उसमें पश्चिमी प्रभावों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हो रही थी। इस विकास-कथा में राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, माइकेल मधुसूदन दत्त, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रमेशचन्द्र दत्त, शरतचन्द्र चटर्जी और कुछ दूसरे ढंग से काज़ी नज़रुल इस्लाम, शिखरों की तरह खड़े थे। पर इन सबको आच्छादित करता हुआ यह महत्त्वपूर्ण परिवार सामने आया, जो साहित्य, चित्रकला, संगीत और कला के हर रूप में महान् था-टैगोर-परिवार। बंगाल से बाहर हममें से अधिकांश लोगों के लिए, रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम लगभग बाला साहित्य के उत्कर्ष का पर्याय हो गया है। मेरी पीढ़ी के लोग उनके विराट् व्यक्तित्व के प्रभाव में बड़े हुए हैं और सचेत या अचेत रूप से उसके हाथों गढ़े हुए हैं। वह एक ऐसा व्यक्तित्व था, जो भारत के किसी प्राचीन ऋषि के सदृश हमारे प्राचीन विवेक में गहराई तक गया था। साथ ही, वर्तमान समस्याओं से जूझ रहा था और भविष्य की ओर देख रहा था। उसने बाङ्ला में लिखा, परन्तु उसके मानस की व्यापकता को भारत के किसी भाग तक परिसीमित नहीं किया जा सकता। वह तत्त्वतः भारतीय था और इसके साथ ही सम्पूर्ण मानवता को घेरे हुए था। वह एक साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय था, और उसके साथ मिलने पर, या उसका लिखा हुआ पढ़ने पर, ऐसी अनुभूति होती थी, मानो हम मानवीय अनुभव और विवेक के उच्च पर्वत-शिखर के सामने खड़े हों। यह अनुभूति अत्यन्त विरल होती है। अपनी महानता के बावजूद, रवीन्द्रनाथ एकान्त में रहने वाले व्यक्ति न थे। उन्होंने जीवन को स्वीकार किया था और वे उसे पूरी तरह जीना चाहते थे, और एक अर्थ में, उनके सभी क्रिया-कलापों का सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में जीवन से था। उन्होंने एक मित्र को लिखा भी था, "सत्य तभी शुभ और हितकर होता है जबकि वह मनुष्य के जीवन से किसी-न-किसी रूप में सम्बद्ध हो।" रवीन्द्रनाथ ने उस प्रक्रिया में भी औरों की अपेक्षा अधिक सहायता की-जिसका वर्णन प्रोफ़ेसर सेन ने लेखनी की भाषा और जवान की भाषा के बीच विद्यमान खाई पर सेतु-निर्माण की प्रक्रिया कहकर किया है। भारत में बहुत-से लेखकों को अभी भी पाठ पढ़ना बाकी है। महान् साहित्य वह है, जिसे लोग समझें, न कि वह जो पाण्डित्यपूर्ण, रहस्यात्मक और दुर्बोध हो। जिन लोगों की रुचि भारतीय साहित्य में है, मैं उन सबसे इस पुस्तक की प्रशंसा करना चाहता हूँ

 

पुस्तक परिचय

 

सुप्रसिद्ध प्राच्यविद् भाषाविद, भारतीय भाषाओं, विशेषकर बाङ्‌ला के शीर्षस्थ साहित्येतिहासकार सुकुमार सेन (1900-1992) ने तुलनात्मक भाषाविज्ञान में एम. ए. उपाधि के साथ वर्ष 1924 में प्रेमचंद रामचंद्र शोधवृत्ति (कलकत्ता वि. वि.) प्राप्त की थी। वर्ष 1925 में ग्रिफिथ मेमोरियल प्राइज से सम्मानित डॉ. सेन ने नवीनतम विषयों के अध्ययन के प्रति अपनी जिज्ञासा बनाए रखी। कलकत्ता वि.वि. में प्रोफेसर के पद दायित्व (1954-1964) से मुक्त होने के बाद भी निरंतर लेखन कार्य करते रहे। डॉ. सेन की चर्चित और सुप्रसिद्ध कृतियों में प्रमुख है। बाला साहित्य का इतिहास (चार खंडों में, 1940-58), ब्रजबुलि साहित्य (1935), भाषार इतिवृत्त (1939), हिस्टॉरिकल सिनटेक्स ऑव मिडल इंडो-आर्यन (1950), हिस्ट्री एंड प्री-हिस्ट्री ऑव संस्कृत (1958), द लैटिन लैंग्वेज़ (1961). ऐन इटिमोलॉजिकल डिक्शनरी ऑव बेंगाली (खंड। और II, 1971) और बाङ्ला स्थान नाम (1981)। डॉ. सेन ने बाडला भाषा साहित्य संस्कति और लोक परम्परा के साथ-साथ बृहत्तर बंगाल के जनजीवन से जुड़ी लोक आस्थाओं एवं आख्यानों का गहरा अध्ययन किया, जो उनकी कई कृतियों से स्पष्ट है। उनमें उल्लेख्य है बाला साहित्ये गद्य (1934), प्राचीन बाङ्‌ला और बाड़ाली (1943), मध्ययुगेर बाड्‌ला ओ बाड़ाली (1945), इस्लामी बाला साहित्य (1951). नाट, नाट्य, नाटक (1977), अधर माधुरी (1982), रवीन्द्रर इन्द्रधनु (1984), बनफूलेर फूलवन (1984)। रामकथार प्राकइतिहास (1974), मनसा विजय (विप्रदास), गौरांगविजय (चूडामणिदास), चैतन्यभागवत (वृंदावनदास), चैतन्य चरितामृत (कृष्णदास कविराज), चंडीमंगल (मुकुंद चक्रवर्ती) तथा धर्ममंगल (रूपराम) आदि कृतियों का पाठ संपादन एवं संशोधन उनकी विद्वत्ता की साक्षी हैं।

 

लेखक परिचय

 

अपनी अनवरत और अबाधित साहित्य साधना के लिए डॉ. सुकुमार सेन को वर्धमान वि.वि. ने डी. लिट् (मानद) उपाधि एवं विश्वभारती वि.वि. ने देशिकोत्तम की सम्मानोपाधि प्रदान की थी। वे साहित्य अकादेमी के निर्वाचित फेलो और एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता के सदस्य रहे। वे भारत के पहले ऐसे विद्वान अध्यापक थे, जिन्हें रॉयल एशियाटिक सोसाइटी लंदन के ट्रिएनिएल गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया था। वर्ष 1963 में भारतीय साहित्येर इतिहास के लिए उन्हें रवीन्द्र पुरस्कार (पश्चिम बंग सरकार) तथा वर्ष 1981 में विद्यासागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित बाङ्ला साहित्य का इतिहास ग्रंथ डॉ. सेन की विद्वत्ता, बहुज्ञता और विशेषज्ञता का सफल निदर्शन है। विषयवस्तु से संबद्ध सामग्री के आकलन एवं मूल्यांकन द्वारा पाठकों को सहज ही आकृष्ट करनेवाले इस महत्त्वपूर्ण इतिहास ग्रंथ की विद्वत्तापूर्ण भूमिका अकादेमी के तत्कालीन अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी।

 

प्रस्तुत ग्रंथ की अनुवादिका हिंदी की वरिष्ठ समालोचक निर्मला जैन (जन्म 1931), एम.ए.. पी-एच.डी., डी.लिट्., दिल्ली वि. वि. की आचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष रह चुकी हैं। बाङ्‌ला और अंग्रजी से हिंदी में अनुवाद-कार्यों के अलावा डॉ. जैन की आलोचनात्मक कृतियों में आधुनिक हिंदी काव्य में रूप विधाएँ, रस-सिद्धांत और सौंदर्यशास्त्र, आधुनिक साहित्य मूल्य और मूल्यांकन, नई समीक्षा के प्रतिमान, साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन और हिंदी आलोचना : बीसवीं शती और साहित्य अकादेमी की भारतीय साहित्य निर्माता श्रृंखला के अंतर्गत लिखित विनिबंध डॉ. नगेन्द्र प्रमुख हैं। बाला साहित्य का इतिहास तथा एडविना एंड नेहरू डॉ. जैन द्वारा अनूदित प्रमुख कृतियाँ हैं। डॉ. जैन म. प्र. सरकार का आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार तथा सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हैं।

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