जनजातीय विविध सांस्कृतिक परम्पराओं, प्राकृतिक संसाधनों महाकाव्य युगीन गाथाओं के स्मृति-स्थलों से चिह्नित और सियासती वैभव से सम्पन्न बस्तर, प्रागैतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक के अवशेषों एवं धरोहर स्थलों से सम्पन्न भू-भाग है। महानदी के दक्षिणी अंचल और गोदावरी नदी के प्रवाह के उत्तरी भू-भाग के मध्य स्थित वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य का दक्षिणी क्षेत्र आधुनिक बस्तर संभाग है। यह भू-भाग लगभग 5वीं 6वीं सदी ईस्वी से लेकर 12वीं-13वीं सदी ईस्वी तक दक्षिण कोसल के ऐतिहासिक कालखण्ड का लगभग विस्मृत अध्याय रहा है। प्राचीन बस्तर रियासत के अन्तर्गत सिहावा नगरी के साथ उड़ीसा राज्य के कोरापुट, जैपुर भी सम्मिलित रहें हैं। दक्षिण कोसल के प्राचीन इतिहास के गौरवशाली प्रारम्भिक अध्याय में बस्तर के नलवंशी शासकों का विशेष महत्व है। इस वंश के अनेक शासकों की स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। मध्य प्रदेश शासन पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा बस्तर जिले के गढ़धनोरा तथा भोंगापाल नामक स्थान में प्राचीन टीलों से ईटों से निर्मित नल युगीन स्मारक तथा अन्य धरोहरों को अनावृत किया गया है तथा कलाकृतियां संग्रहीत की गई है। इसी काल के अन्य भग्न धरोहर स्थलों पाथरी तथा देवड़ा विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
बस्तर के पुरातत्त्वीय इतिहास के अध्ययन के दिशा में देश-विदेश के अनेक विद्वानों का प्रभूत योगदान है। इन विद्वानों में कर्नल ग्लासफर्ड, कैप्टन इलियट, प. केदारनाथ ठाकुर, रायबहादुर हीरालाल, एस.एन. राजगुरू, डब्लू वी ग्रिग्सन, बी.डी. कृष्णास्वामी, प. सुन्दर लाल त्रिपाठी, बालचन्द जैन, डॉ. कृष्ण कुमार झा, डॉ. हीरालाल शुक्ल, डॉ. विवेकदत्त झा आदि उल्लेखनीय हैं। विद्वानों के अथक अध्ययन, गहन सर्वेक्षण और अन्वेषण से बस्तर के प्रागैतिहासिक संस्कृति, शैलचित्र, महाश्म शवाधान संस्कृति से सम्बन्धित अनेक स्थल प्रकाश में आये हैं तथा पुराविदों का यथेष्ठ ध्यान आकर्षित हुआ है।
रामायण तथा महाभारत युगीन अनुश्रुति एवं गाथाएं बस्तर में व्याप्त है और इनका सम्बन्ध आंचलिक पुरास्थलों से जोड़ा जाता है। रामायण काल में बस्तर का भू-भाग दण्डकारण्य के अन्तर्गत था। अपने वनगमन के मार्ग में इन्द्रावती नदी के तटवर्ती स्थलों में भ्रमण और निवास करते हुये राम, गोदावरी के तट तक पहुंचे थे और वहां पंचवटी में कुटी बनाकर दीर्घकाल तक निवास करते रहें। वाल्मीकि रामायण के अरण्य तथा किष्किंधा कांड के भौगोलिक तथा पर्यावरणीय विवरणों से बस्तर के सघन अरण्य, पर्वत श्रेणियों तथा पर्यावरणीय समानता का आभास होता है। महाभारत के नलोपाख्यान में वर्णित पौराणिक, नैषध नरेश नल की राजधानी संभवतः बस्तर तथा समीपस्थ उड़ीसा अंचल में रही होगी। इस वंश के बिलासतुंग नामक परवर्ती शासक का एक शिलालेख राजिम से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि ऐतिहासिक काल के प्रारम्भिक नल नरेश अपने को पौराणिक नल नरेश का वंशज मानते थे। बस्तर अंचल के नल नरेश विदर्भ के वाकाटकों के समकालीन तथा एक दूसरे पर विजय प्राप्त करने के लिए आक्रमण करते रहते थे। बस्तर के नलवंशी शासक भवदत्त, अर्थपति तथा नंदनराज के स्वर्ण सिक्के अड़ेंगा (बस्तर) से प्राप्त हुये है। बस्तर तथा छत्तीसगढ़ अंचल में नलों की सत्ता को संभवतः पांडु (सोम) वंशी शासकों ने पूर्णतः विनष्ट कर दिया। बस्तर के राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास का परिचय नलयुगीन पुरास्थल गढ़धनोरा, भोंगापाल, पाथरी तथा रमईपाट से उपलब्ध हुए हैं।
बस्तर में मौर्य-शुंग काल के पुरातत्त्वीय प्रमाण अभी प्रकाश में नहीं आये हैं, तथापि ऐसा अनुमान होता है कि कलिंग के महामेघवाहन वंश के शासक खारवेल के आधिपत्य में यह भू-भाग रहा होगा। सातवाहनों के उत्तरापथ अभियान का मार्ग बस्तर अंचल से होकर दक्षिण कोसल के केन्द्र स्थल में प्रवेश करते हुये बांधवगढ़ तथा प्रयाग की ओर जुड़ता था। दक्षिण कोसल में सातवाहन युगीन अभिलेख (किरारी काष्ठ स्तम्भ लेख, कुमारवरदत्त का गुंजी अभिलेख) तथा महत्वपूर्ण शिल्पकृतियां (मल्हार) से प्राप्त हुए हैं।
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