महाभारत सात समुद्रों से भी विशाल है। 'मटको नहीं धनंजय' में मैंने एक बूँद लेकर कुछ पृष्ठ भिगोने का यत्न किया है। कई दिन अर्जुन पीछे पड़े रहे। अर्जुन की त्रासदी को भोगते-भोगते में बहुत कुछ अर्जुन हो गयी अर्जुन, जो द्रौपदी भी है। स्त्री को त्रासदी भोगने का अभ्यास होता है, फिर भी त्रासदी तो है ही। यन्त्र बन जाने की त्रासदी बड़ी भयानक है, पर वीर पुरुष के लिए अपनी पत्नी बाँटने के अपमान से बड़ा कोई अपमान नहीं। दोनों को जिया है मैंने, और उसी तरह काग़ज पर उतारने का यत्न किया है मैंने।
भटकने की त्रासदी भी काफ़ी भयानक है। इस द्वार को पार कर लेने के बाद भटकन बढ़ती ही जाती है। ठहराव कहीं नहीं मिलता। इसका कोई समाधान भी नहीं है। सभी द्वार लाँघकर अपनी ही दहलीज़ पर ठहराव मिलता है। पाठक ही बता पाएँगे मुझे ठहराव मिला है या नहीं।
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