भारतीय इतिहास का प्रभाव, इसकी सीमा से परे देशों की संस्कृति एवं लोगों के जीवन पर देखने को मिलता है। पुरातात्विक अवशेष, लिखित स्रोत, एवं भारतीय परंपरागत आचरण, जो इन देशों में देखने को मिलते हैं, वे ये दिखाते हैं कि प्राचीन समय से ही भारतीय संस्कृति ने इन देशों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। यही क्षेत्र भारत की संस्कृति का विस्तारित क्षेत्र है, जिसे 'बृहत्तर भारत' नाम दिया गया है। इस क्षेत्र में मध्य एशिया, पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया के क्षेत्र सम्मिलित हैं। कुछ लेखकों ने इस क्षेत्र का नाम The Greater India, Indosphere, The Countries of Indic Belt, Extended India, Overseas India और Cultural India भी दिया है।
प्रस्तुत पुस्तक बृहत्तर भारत का संक्षिप्त इतिहास में अंकोरवाट, बोरोबुदूर, द्वारावती, सुखोथाई, पगान, प्रबनन और दिएंग के मन्दिर-स्तूप स्थापत्य और प्राचीन कला-परिसरों का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक के अवलोकन से हमें बृहत्तर भारत में भारत की कला-संस्कृति के प्रमुख केन्द्रों की जानकारी प्राप्त हो सकेगी। जापान में प्रचलित हिन्दू धर्म एवं उसके देव मंडल (Hindu Pantheon) का विस्तृत वर्णन है। जैसे जापान में सरस्वती (बेंजेनटेन), शिव (दायकोकूटेन), विष्णु (बिशुनटेन), गणेश (कांगीटेन) और यम (एम्मा) पूजित और सेवित थे।
पुस्तक में बौद्ध धर्म के चीन, जापान और कोरिया में उत्थान के साथ-साथ वहाँ पर व्याप्त भारतीय कला, विज्ञान और साहित्य की भी विशद जानकारी प्राप्त होती है, जो कि अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। चीनी और जापानी मूल के भारतवेत्ताओं ने ही कहा है कि 'भारत प्राचीन चीन और जापान का निर्माता है'। इस प्रकार यह पुस्तक एशिया में भारतीय कला, संस्कृति और ज्ञान परम्परा' के विस्तार की संक्षिप्त परंतु सारगर्भित जानकारी प्रदान करती है।
डॉ. धर्मचन्द चौबे की विद्यालयी शिक्षा क्वींस इंटर कॉलेज से और उच्च शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से हुई। आपका शोध, Indian Images of China: A Sino-Indian Historical contacts between 18th and 20th Centuries राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के इतिहास एवं भारतीय संस्कृति विभाग से पूर्ण हुआ। वर्तमान में आप इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली में स्थित बृहत्तर भारत एवं एरिया स्टडीज पीठ में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य कर रहे हैं।
आपने भारतीय संस्कृति की मूल प्रवृत्तियां और धाराएं, इतिहास के सिद्धांत एवं इतिहासकार, China Through Indian Eyes, भारत-चीन : कितने दूर कितने पास, सन सत्तावन की शौर्य गाथा और प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था जैसी पुस्तकों की रचना की है।
आपके शोधपत्र नागरी प्रचारिणी पत्रिका, जिज्ञासा, सांस्कृतिक प्रवाह, इतिहास दर्पण, इतिहास दिवाकर और कलाकल्प में प्रकाशित है। आप भारतीय संस्कृति के विश्व में प्रसार, भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य एवम् उत्तरजीविता के अध्येता हैं।
भारत की नई संसद में 'भारत लोकतंत्र की जननी है' नामक आर्ट गैलरी के आप पटकथा लेखक और प्रभारी रहे हैं।
डॉ. शत्रुजीत सिंह का जन्म जनपद कुशीनगर के सेवरही कस्बे में हुआ। आपने गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास पुरातत्त्व एवं संस्कृति विभाग से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। आपकी सम्पूर्ण शिक्षा-दीक्षा श्रीगोरक्ष भूमि पर सम्पन्न हुई। आपने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली की राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (NET) अनेक बार उत्तीर्ण की।
आप भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (ICHR), नई दिल्ली के पोस्टडॉक्टोरल फेलो (PDF) के रूप में प्राचीन इतिहास पुरातत्त्व एवं संस्कृति विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में कार्यरत रहे हैं।
सम्प्रतिः आप पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक, इतिहास विभाग में कार्यरत हैं।
अध्ययन एवं अनुसंधान के क्षेत्र में आपके अनेक शोध-पत्र प्रकाशित हुए हैं।
भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण एवं खुबसूरत पहलू यह है कि इसका प्रभाव, इसकी सीमा से परे देशों की संस्कृति एवं लोगों के जीवन पर देखने को मिलता है। पुरातात्विक अवशेष, लिखित स्रोत, एवं भारतीय परंपरागत आचरण, जो इन देशों में देखने को मिलते हैं, वे ये दिखाते हैं कि प्राचीन समय से ही भारतीय संस्कृति ने इन देशों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। यही क्षेत्र भारत की संस्कृति का विस्तारित क्षेत्र है, जिसे 'बृहत्तर भारत' नाम दिया गया है। इस क्षेत्र में मध्य एशिया, पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया के क्षेत्र सम्मिलित हैं। लेखकों ने इसी क्षेत्र को The Greater India, Indosphere, The Countries of Indic Belt, Extended India, Overseas India और Cultural India नाम दिया है।
भारत के अन्य संस्कृतियों के साथ संबंध सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के समय से ही देखने को मिलते हैं, जब यह सभ्यता सुमेर के साथ समुद्री व्यापार में संलिप्त थी। सुमेरी अभिलेख में हमें मेलुहा, मगान और दिलमुन जैसे शब्द मिलते हैं, जो यह दिखाते हैं कि तीन हजार ई.पू. से ही सुमेर का सिन्धु-सरस्वती सभ्यता और फारस की खाड़ी के लोगों के साथ व्यापारिक संबंध था। एशिया माईनर के बोगाज़ कोई का अभिलेख, जिसकी तिथि 14वीं शताब्दी ई.पू. है, वैदिक देवताओं जैसे इन्द्र, वरुण, मित्र और नसात्य के नामों का प्रमाण मिलता है, जोकि हित्तियों व मित्तिनी राजा के बीच हुई संधि के साक्षी हैं।
भारतीय सम्राट अशोक का 13वां शिलालेख 5 राजाओं का नाम लेता है, जो कि आर्ष देशों (एशिया माइनर) के राजा हैं, जो उसके धम्मराज (धम्मानुशासन) से सहमत है। ये राजा हैं-एंटियोग (सीरिया का एंटियोक II), तुरमय (मिस्र का टॉलेमी), मक (उत्तरी अफ्रीका का मैगस), अलिकसुंदर (एपिरस का अलेक्जेंडर), पश्चिमी ग्रीस, और एंटीकिनी (मैसेडोनिया का एंटिगोनस II गोनाटस)। इस प्रकार देखते हैं कि सभ्यता के आरंभ से ही भारत के लोगों ने आस-पास और दूरस्थ सभ्यताओं पर अपना प्रभाव स्थापित करना प्रारंभ कर दिया था।
'बृहत्तर भारत का संक्षिप्त इतिहास' नामक यह पुस्तक चंद्रगुप्त वेदालंकार कृत 'बृहत्तर भारत' का एक पूरक ग्रंथ है। 1939 ई. में लिखी गई पुस्तक 'बृहत्तर भारत' इतिहास की एक उज्ज्वल कृति है। इसमें चीन, तिब्बत, जापान, कम्बोडिया, वियतनाम, थाईलैण्ड, जावा, श्रीलंका इत्यादि देशों में भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रसार पर सारगर्भित विवरण दिया गया है। इसका आरंभ 250 ई.पू. में अशोक द्वारा आयोजित तृतीय बौद्ध संगीति के उपरांत धम्म प्रचार के लिए विभिन्न देशों में भेजे गए भिक्षुओं से की गई है। तिब्बत, चीन, जापान और मंगोलिया में बौद्ध धर्म के आगमन और प्रसार की विशद व्याख्या है। किन्तु मध्य एशिया, कोरिया, बर्मा में भारतीय धर्म-संस्कृति के प्रसार की इसमें कोई चर्चा नहीं है, फलतः बृहत्तर भारत का दायरा सीमित रह गया है। इसी प्रकार मध्य एशिया, चीन, जापान, तिब्बत और श्रीलंका में हिन्दू-धर्म के पदचिह्नों की एकदम चर्चा नहीं है। ठीक वैसे ही दक्षिण-पूर्व एशिया में पगान, द्वारावती, सुखोथाई कला परम्परा का बिल्कुल उल्लेख नहीं हो पाया है। पूर्वी एशियाई देशों में तिब्बत, जापान और कोरिया में प्रसारित भारतीय कला परम्परा का कोई उल्लेख बृहत्तर भारत नामक पुस्तक में नहीं आ पाया है फलतः वर्तमान पुस्तक 'बृहत्तर भारत' में जो विषय शेष रह गये थे, उन्हें प्रमुखता से लिया गया है।
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