लेखक भारतीय नौसेना से सेवा निवृत अधिकारी है | भारत में भांग की खेती का लाइसेंस प्राप्त करने वाली पहली कंपनी में क्षेत्रीय प्रबंधक और प्रबंधक कृषि के पद पर कार्य कर चुके है, और वर्तमान इंस्टिट्यूट ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च में कृषि प्रबंधक का कार्य देखते है और हेम्प और भांग से सम्बंधित शिक्षा कार्य भारतीय संस्कृति और इतिहास में भांग का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक, यह पौधा हमारे समाज के विभिन्न पहलुओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा है। फिर भी, आज के समय में भांग को लेकर जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे अक्सर भ्रामक और अपूर्ण जानकारी पर आधारित हैं। यही कारण है कि भांगः इतिहास और राजनीति नामक यह पुस्तक न केवल समयानुकूल है, बल्कि अत्यंत आवश्यक भी है।
इस ग्रंथ में लेखक ने भांग के वैश्विक इतिहास को समेटने का एक साहसिक और व्यापक प्रयास किया है। यह केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि चीन, यूरोप और अमेरिका में इसके उपयोग और प्रतिबंध की कहानी को भी विस्तार से प्रस्तुत करता है। यह विश्वव्यापी दृष्टिकोण पाठकों को भांग के प्रति विभिन्न संस्कृतियों और समाज के दृष्टिकोण को समझने में मदद करता है।
भारतीय संस्कृति और इतिहास में भांग का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक, यह पौधा हमारे समाज के विभिन्न पहलुओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा है। फिर भी, आज के समय में भांग को लेकर जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे अक्सर भ्रामक और अपूर्ण जानकारी पर आधारित हैं। यही कारण है कि ""भांग इतिहास और राजनीति"" नामक यह पुस्तक न केवल समयानुकूल है, बल्कि अत्यंत आवश्यक भी है।
पुस्तक का मुख्य लक्ष्य भारतीय राजनेताओं, कानून एवं नीति निर्माताओं और आम जनता को शिक्षित करना है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर गंभीर चर्चा और विचार-विमर्श की आवश्यकता है, विशेषकर नीति निर्माण के संदर्भमें। लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से न केवल राजनीतिक जगत को, बल्कि कृषि वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों को भी भांग के इतिहास पर ध्यान देने और इस पर काम करने के लिए प्रेरित किया है।
इस ग्रंथ का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह भांग के प्रति समाज और शासकों के बदलते दृष्टिकोण का विश्लेषण करता है। लेखक ने बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया है कि कैसे अज्ञानता और पूर्वाग्रह ने इस पौधे के प्रति नीतियों को प्रभावित किया। इतिहास में कई बार ऐसा हुआ कि सत्ताधीशों ने बिना पूर्ण जानकारी के भांग को प्रतिबंधित किया, और फिर कुछ समय बाद इसका उपयोग भी किया। यह चक्र बार-बार दोहराया गया, जो दर्शाता है कि नीति निर्माण में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का कितना महत्व है।
पश्चिमी ज्ञान धारा में भांग के स्थान का विवरण इस पुस्तक का एक अन्य महत्वपूर्ण आयाम है। लेखक ने पाश्चात्य देशों में भांग के प्रतिबंध और उपयोग के पीछे के कारणों और परिणामों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया है। यह तुलनात्मक अध्ययन भारतीय नीति निर्माताओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी है, क्योंकि यह उन्हें वैश्विक परिदृश्य को समझने और उससे सीख लेने का अवसर प्रदान करता है।
भांग के इतिहास को समझना केवल एक शैक्षणिक अभ्यास नहीं है। यह वर्तमान और भविष्य की नीतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उदाहरण के लिए, भांग के औषधीय गुणों पर प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित जानकारी आधुनिक चिकित्सा अनुसंधान को नए मार्ग दिखा सकती है। इसी प्रकार, भांग के औद्योगिक उपयोग का ऐतिहासिक विवरण नए आर्थिक अवसरों की ओर इशारा कर सकता है।
यह पुस्तक भांग के प्रति समाज की धारणाओं को भी चुनौती देती है। अक्सर, भांग को केवल एक नशीले पदार्थ के रूप में देखा जाता है, जबकि इसका इतिहास इससे कहीं अधिक समृद्ध और बहुआयामी है। लेखक ने इस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया है, और भांग के विभिन्न पहलुओं-धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और वैज्ञानिक को उजागर किया है।
भारतीय संदर्भ में, यह पुस्तक विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। भांग हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग रही है, फिर भी आधुनिक काल में इसे लेकर एक जटिल और अक्सर विरोधाभासी दृष्टिकोण विकसित हुआ है। यह ग्रंथ इस विरोधाभास को समझने और उसके मूल में जाने का प्रयास करता है। यह हमें याद दिलाता है कि किसी भी विषय पर नीति बनाने से पहले उसके इतिहास और सांस्कृतिक महत्व को समझना आवश्यक है।
लेखक ने इस पुस्तक में न केवल ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत किया है, बल्कि उन्हें वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी रखा है। यह दृष्टिकोण पाठकों को भांग से संबंधित वर्तमान मुद्दों को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है। उदाहरण के लिए, भांग के औषधीय उपयोग पर चल रही वैश्विक बहस को इसके ऐतिहासिक संदर्भ में रखकर देखा गया है, जो इस विषय पर एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करता है।
भांग का पौधा, और उसका इतिहास, सिर्फ एक पौधे का इतिहास ही नहीं है, बल्कि यह पौधा मानव सभ्यता में ज्ञान के प्रवाह और राजनीति का दृष्टा भी है। एक पौधा जो मनुष्य के प्रेम, घृणा, सम्मान, भय सबका गवाह रहा है। यह भी अद्भुत सत्य है, किसी अन्य पौधे या प्राणी ने, मनुष्य के ज्ञान, मन और राजनीति को इतना उद्वेलित नहीं किया है, जितना एक इस पौधे ने किया है।
प्रागैतिहासिक सभ्यताओ में देखा जाये तो भांग का पौधा चीन और भारत में सबसे पहले उगाये जाने पौधे में से एक पौधा था, इसका उपयोग खाने, कपड़े बनाने, कागज, दवाई आदि कार्यों में किया जाता था। भारत वर्ष में इस पौधे का इतना महत्व था कि इसको सबसे अधिक शक्तिशाली और सबसे अधिक करुणामयी प्रभु शिव के साथ जोड़ दिया गया। भारत में ऋतु संध्या के समय आने वाले त्यौहारों जैसे शिवरात्रि, होली, दीपावली आदि में समाज का एक बड़ा वर्ग इसका प्रयोग करता था। ऋतु संध्या काल में जब ऋतुएँ बदलती हैं, उस वक्त मनुष्य की जठराग्नि अर्थात भोजन पचाने शक्ति को सही रखने के लिए भांग का प्रयोग किया जाता था। इसको थोड़ा सा समझने का का प्रयास करते है।
प्रकृति, धरती पर सब जीवो के सही तरह से पालन और पोषण के लिए, अलग अलग ऋतुओ में अलग अलग प्रकार के भोज्य पदार्थ उत्पन्न करती है। यह भोज्य पदार्थ, ऋतु अनुसार प्राणियों के जीवन के अनुकूल हो, प्रकृति ने इसका ध्यान रखा है, उदाहरण के लिए शरद ऋतु में हमारे शरीर से ऊर्जा, बाहर की तरफ प्रवाहित होती है, इसलिए शरीर को अधिक ऊर्जा की जरूरत होती है। शरीर की इस अधिक ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने के प्रकृति ठोस भोज्य पदार्थ उत्पन्न करती है, जैसे मूली, गाजर, पालक, गोभी आदि। वही पर ग्रीष्म ऋतु में अधिक ऊर्जा की जरूरत नहीं होती इसके उलट शरीर को ठंडा रखने के लिए अधिक जल की जरूरत होती है इसलिए प्रकृति अधिक पानी वाले भोज्य पदार्थ उत्पन्न करती है, जैसे लौकी, तुरई, खीरा, ककड़ी आदि उत्पन्न करती है।
अलग अलग ऋतुओ में अलग अलग प्रकार के भोज्य पदार्थ के पाचन का कार्य जो ऊर्जा करती है उसे भारतीय साहित्य में जठराग्नि कहा जाता है, ऋतु संधि काल में जठराग्नि कमजोर होती है और बीमारी होने की आशंका अधिक होती है। भारत वर्ष के मनीषियों ने भांग के पौधे के गुणो को देखते हुए, समाज में इसके उपयोग की अनुमति दे रखी थी और ऋतु संधि काल के त्योहारो में इसका उपयोग सामान्य समझा जाता था। समाज भांग का उपयोग अपने विवेक के अनुसार करता था, उसके लिए शासन के चाबुक का प्रयोग नहीं होता था। ध्यान देने योग्य बात है, समाज इस प्रकार विकसित किया गया था, कि जीवन में क्या खाना और क्या नहीं खाना है, उसका निर्णय मनुष्य स्वयं करता था।
आयुर्वेद का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हर घर की रसोई में होता था, हल्दी, अजवाइन, अदरक, लहसुन आदि अनगिनत औषधियों को भोजन में मसाले के रूप में प्रयोग सदियो से किया जाता रहा है। छोटी मोटी बीमारियो का इलाज घर की गृहिणी घर पर ही कर देती थी, चोट पर हल्दी लगाना, पेट दर्द में अजवाइन की फाँकी, जैसे इलाज आज भी भारत की गृहिणी कर देती है। गर्भवती स्त्रियो के भोजन में क्या देना है, क्या नहीं देना है, यह आयुर्वेदिक ज्ञान हर सास से बहू को आज भी भारतीय परिवारों में हस्तांतरित होता है।
उपरोक्त बातें पूर्वी सभ्यताओं के इतिहास से संबन्धित है, पश्चिमी सभ्यताओ में भांग के पौधे का इतना विस्तृत वृतांत नहीं मिलता, परंतु इसके उपयोग के बारे में जानकारी जरूर मिलती है। 1700 से पूर्व तक विश्व के अधिकतर व्यापार पर पूर्व की सभ्यताओ का अधिकार था, पूर्व से व्यापारी सिल्क मार्ग के माध्यम से पश्चिम के देशो में कपड़े और मसाले आदि खाद्य पदार्थ ले जाते थे, यह व्यापारी अपने साथ संभवतः भांग भी ले गए होंगे, अपने गुणो के कारण भांग पश्चिमी सभ्यता में भय और भोग की वस्तु के रूप में उपयोग होती रही।
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