यह उपन्यास भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य असम में स्थित सबसे बड़ी शक्तिपीठ कामाख्या की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। सन् 1921 से 1932 तक की घटनाओं के आधार पर इस उपन्यास की रचना की गयी है, लेकिन पिछली घटनाओं और ऐतिहासिक विवरणों के कारण कहीं-कहीं इसकी कथावस्तु अतीत की ओर भी चली गयी है। ऐसी मान्यता है कि इस शक्तिपीठ अर्थात् नीलाचल में देवी का योनिभाग गिरा था। शिव की पहली पत्नी दक्षराज की बेटी सती पिता के राजदरबार में अपने पति पर लगाये लांछन को सह न सकी और यक्ष के अग्निकुण्ड में कूदकर उसने आत्महत्या कर ली। शिव को जब यह खबर मिली तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और सती का मृत शरीर कन्धे पर लादकर पूरे ब्रह्माण्ड में संहार-नृत्य करने लगे। सभी देवताओं ने भगवान विष्णु से इसे रोकने का अनुरोध किया। विष्णु ने अपने सुदर्शनचक्र से सती की देह को खण्ड-खण्ड कर दिया। जिन स्थानों पर सती के अंग गिरे वे सभी स्थान शक्तिपीठ बने। असम के कामाख्या में देवी का योनिभाग गिरने के कारण इसे विशिष्ट माना जाता है।
इस उपन्यास में उस समय के असम पर शासन करनेवाले अँग्रेज शासकों का भी कुछ वर्णन है। एक अँग्रेज महिला ने किस तरह शक्तिपीठ के तान्त्रिक के साथ सम्बन्ध बनाये थे उसे मूल कहानी के रूप में लिया गया है। इस उपन्यास के प्रधान नायक छिन्नमस्ता के जटाधारी का परिचय अब भी रहस्य बना हुआ है। किसी को यह ठीक से नहीं मालूम कि वे कहाँ से आये थे। उपन्यास का मुख्य हिस्सा है-इस शक्तिपीठ में हर समय चलते रहनेवाले बलि-विधान की कहानी। कहते हैं कि पहले यहाँ नरबलि होती थी। अँग्रेज़ों के राज में इसे बन्द कर दिया गया। लेकिन अँग्रेज शासकों ने मन्दिर के अन्दरूनी नीति-नियमों में कभी दखल नहीं दिया। मन्दिर का सारा काम पुजारियों के हाथों में ही था, इसलिए आज भी इस मन्दिर में पक्षियों, बकरों आदि की बलि दी जाती है। इस शक्तिपीठ का आँगन हमेशा खून से रंगा रहता है।
इस उपन्यास के नायक का एक ही मक़सद था कि किस तरह खून की धाराओं को रोका जा सके। इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि आहोम राजा रुद्रसिंह द्वारा हर दुर्गा-अष्टमी के दिन दस हजार भैंसे बलि चढ़ाये जाते थे।
इस उपन्यास की रचना अनेक तथ्यों को संग्रह करने और मन्दिर में दीर्घकाल तक रहकर अनुभव प्राप्त करने के बाद की गयी है।
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