हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी एक-से लोग हैं। तब फिर उनके राष्ट्र १९४७ के बाद इतनी अलग-अलग दिशाओं में क्यों अग्रसर हुए हैं? हिन्दुस्तान का खयाल हिन्दुस्तानी से ज्यादा मजबूत है, लेकिन पाकिस्तान का विचार पाकिस्तानी से ज्यादा कमजोर साबित हुआ है। पाकिस्तान किसी नाश्ते की मेज पर नहीं पैदा हुआ था। वह उस तलाश का नतीजा था जिसे हम 'मुसलमानों की जगह' की खोज का नाम दे सकते हैं, जो मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही भविष्य के प्रति डर और अतीत के प्रति गर्व से परिचालित एक उत्तर भारतीय अभिजात वर्ग द्वारा शुरू हुई थी। शह और मात के उस्ताद मुहम्मद अली जिन्ना साररूप में एक मुस्लिम बहुल धर्म निरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे, ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुस्तान हिन्दू-बहुल धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है। पाकिस्तान के जनक को यह आभास नहीं हुआ कि जिस राष्ट्र को उन्होंने पैदा किया था, उसका एक और दावेदार भी था, जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक और पाकिस्तान के धर्मपिता मौलाना मौदूदी।
'चिंगारी : पाकिस्तान का अतीत और भविष्य' में एम० जे० अकबर एक विचार की यात्रा के रहस्य की पड़ताल पर और उन घटनाओं, लोगों, परिस्थितियों और मानसिक रवैयों की तफ़तीश पर निकलते हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान को विभाजित कर दिया। यह तफतीश हजार बरस को नापती है और चरित्रों की एक असाधारण शोभायात्रा हमारे सामने से गुजरती है-स्वप्नदर्शी, अवसरवादी, राजनीतिज्ञ, तानाशाह, लुटेरे, फ़ौजी जनरल और धर्म-शास्त्रियों की अनोखी क्रतार जो शाह वलीउल्लाह से शुरू होती है जिन्होंने हिन्दुओं और हिन्दुत्व से 'इस्लामी पहचान' को बचाने के लिए 'फ़ासले का सिद्धान्त' पैदा किया। अकबर इस पहेली को हल करने की कोशिश में शोध, निरीक्षण और विश्लेषण के पूरे विस्तार को प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल करते हैं-कहानी को प्रवहमान, रोचक शैली में पेश करते हुए वे एक मुश्किल विषय को नामालूम ढंग से आसान बना देते हैं। उपमहाद्वीप के अतीत की इससे बेहतर मार्गदर्शिका नहीं हो सकती थी, न उसके भविष्य में इससे बेहतर झाँकी।
एम० जे० अकबर का जन्म १९५१ हुआ और उन्होंने प्रेजिडेन्सी कॉलेज, कलकत्ता से अंग्रेजी (ऑनर्स) में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। १९७१ में वे प्रशिक्षु के रूप में 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' में शामिल हुए और फिर उस समय की सर्वाधिक बिकने वाली पत्रिका, 'इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया' में सह-सम्पादक और फीचर लेखक के रूप में चले गये। १९७३ में उन्होंने बम्बई में फ्री प्रेस जरनल ग्रुप के समाचार-पाक्षिक 'ऑनलुकर' के सम्पादक का पद संभाला।
१९७६ में अकबर हिन्दुस्तान के पहले सच्चे राजनैतिक साप्ताहिक 'सण्डे' के सम्पादक के रूप में कलकत्ता के आनन्द बाज़ार पत्रिका समूह में शामिल हुए। पत्रिका ने आपात काल के खिलाफ अडिग मुक़ाबला किया और समाचार-पत्रों की सेंसरशिप और तानाशाही का विरोध किया। 'सण्डे' ने न सिर्फ़ पत्रकारिता में प्रमुख प्रवृत्तियों स्थापित की, बल्कि देश में पत्रकारों की एक नयी पीढ़ी को जन्म दिया। १९८२ में अकबर ने जो हिन्दुस्तान का पहला आधुनिक अखबार कहा जाने वाला था- 'द टेलिग्राफ' - शुरू किया, जिसका गहरा असर हिन्दुस्तान में पत्रकारिता पर पड़ा।
१९८९ में उन्होंने थोड़ी-सी अवधि के लिए पत्रकारिता से अवकाश ले कर राजनीति में प्रवेश किया, और काँग्रेस के टिकट पर आम चुनाव में बिहार की किशनगंज सीट से खड़े हुए और जीते। १९९२ में उन्होंने सरकार से इस्तीफा दे दिया और पत्रकारिता और पूर्णकालिक लेखन की तरफ लौट आये। फ़रवरी १९९४ में उन्होंने दिल्ली, मुम्बई और लन्दन से निकलने वाले संस्करणों की पत्रिका 'द एशियन एज' शुरू की। इस अवधि में वे 'डेकन क्रॉनिकल' के मुख्य सम्पादक भी रहे।
सितम्बर २००५ में दो पवित्र मस्जिदों के संरक्षक, शाह अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अजीज अल सऊद ने उन्हें मक्का अल-मुकरमाह में आयोजित इस्लामी विद्वानों और बुद्धि जीवियों के मंच का सदस्य बनने और मुस्लिम राष्ट्रों के लिए अगले दशक का कार्यक्रम तैयार करने के लिए आमन्त्रित किया। २००६ में वे इस्लामी जगत के प्रति अमरीकी नीति पर 'बुकिंग्स परियोजना' में वॉशिंगटन स्थित 'बुकिंग्स संस्थान' में विज़िटिंग फ़ेलो के रूप में शामिल हुए।
मई २००८ में उन्होंने एक पाक्षिक राजनैतिक पत्रिका 'कोवर्ट' उसके अध्यक्ष और प्रकाशन के निदेशक के रूप में शुरू की। जनवरी २०१० में उन्होंने दिल्ली का पहला रविवारी समाचार-पत्र 'द सण्डे गार्डियन' शुरू किया। सितम्बर २०१० में वे सम्पादकीय निदेशक के रूप में 'इण्डिया टुडे' और 'हेडलाइन्स टुडे' में शामिल हो गये।
पत्रकारिता में पूरा समय देते हुए वे महत्वपूर्ण राजनैतिक पुस्तके भी लिखते रहे हैं जो पिछली, विचलित करने वाली सदी की टक्करों और चुनौतियों की जाँच-पड़ताल भी करती हैं। आलोचकों द्वारा प्रशंसित उनकी पुस्तकें हैं- 'इण्डिया द सीज विदिन,' 'चैलेंजेस टू अ नेशन्स यूनिटी', 'रायट आफ्टर रायट', 'नेहरूः द मेकिंग ऑफ इण्डिया,' 'कश्मीर: बोहाइण्ड द वेल,' 'द शेड ऑफ़ सोर्डस,' 'जिन्ना एण्ड द कॉनफ्लिक्ट बिटवीन इस्लाम ऐण्ड क्रिश्चिऐनिटी' और उपन्यास 'ब्लड ब्रदर्स।'
२००६ में वे हिन्दुस्तान के सबसे पुराने फुटबॉल क्लबों में से एक, 'मोहम्मडन स्पोटिंग' के अध्यक्ष भी चुने गये।
यह उन सुझावों में से एक था जो कराची में किसी प्यारे दोस्त के घर पर चल रही जोश-खरोश-भरी बातचीत के दौरान बिलकुल वाजिब और अक़्लमन्दी से भरे जान पड़ते हैं। एक साथी मेहमान ने, जो एक भूतपूर्व पदाधिकारी थे, मुझे बिनोरी मस्जिद और मदरसे पर ले चलने की दावत दी, जिसे १९४७ में आज़ादी के कुछ ही दिन बाद मौलाना यूसुफ बिनोरी ने क़ायम किया था, इस बात की भी कुछ अहमियत थी कि मेरे साथी मेहमान ने भी उसे नहीं देख रखा था। हम किसी स्थानीय ताजमहल को देखने की कल्पनाओं से प्रेरित नहीं थे, बल्कि बड़े पैमाने पर प्रचलित उस विश्वास से कि यही मस्जिद और मदरसा, सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानों के जिहाद और अमरीका के ख़िलाफ़ ओसामा बिन लादेन की जंग के ऐलान के बीच के बंजर बरसों के दौरान, ओसामा की पनाहगाह थी। १९९८ में बिनोरी के तत्कालीन आध्यात्मिक गुरु मुफ़्ती निजामुद्दीन शमज़ई ने एक फतवा जारी किया था कि अमरीकियों को हलाक़ कर देना जायज़ था। कुछ वक़्त बाद, लश्कर-ए-तैयबा ने भी, जो २६ नवम्बर २००८ को मुम्बई के हमलों की साज़िश करने के बाद अन्तर्राष्ट्रीय अछूत बना, ऐसा ही फ़रमान जारी किया था। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान बिनोरी से आने वाले किसी भी मुसाफ़िर को शाही मेहमान का-सा सम्मान देते थे।
कार का सफ़र रोमांचरहित था, मस्जिद शानदार नहीं, बल्कि लम्बी-चौड़ी और विशाल थी। हम सीढ़ियों चढ़ कर एक खुले, कुशादा आयताकार आँगन में दाखिल हुए जिसे चारो तरफ से कमरों ने घेर रखा था। कुछ तालिबे-इल्म मटरगश्ती कर रहे थे, क्योंकि यह वक़्त न तो पढ़ाई का था, न प्रार्थना का, उनकी पोशाक उपमहाद्वीप के किसी भी इस्लामी मदरसे जैसी ही थी टखनों से दो इंच ऊपर तक के सफ़ेद पाजामे, सफ़ेद कुर्ते, सिर पर चुस्त सफ़ेद टोपी। अपने जूतों के तस्मे खोलने के लिए झुकते समय, मैने बेचैनी की हल्की-सी लहर को खारिज कर दिया, यह कुबूल करने को राजी न होते हुए कि मैं डर महसूस कर रहा था। बहरहाल, यह महसूस न करना नामुमकिन था कि हम एक बिलकुल अलहदा दुनिया की दहलीज़ पर खड़े थे, जहाँ एक अलग कानून और एक अलग क़ायदा हावी था। कराची की पुलिस इस खयाल पर शायद क़हक़हे लगाती कि उन्हें उस मस्जिद में बन्धक बनाये गये किसी हिन्दुस्तानी के बारे में कुछ करने की जरूरत थी। बेवकूफों का यही हश्र होता है, वे इसी लायक़ होते हैं। फिर बिना एक लफ़्ज़ कहे, मेरे साथी ने सिर के झटके से इशारा किया कि इस नासमझी को खत्म करने का वक़्त आ गया था। हम घबरा कर भागने से बाल बराबर पहले ही तेज-तेज़ क़दम बढ़ाते, कार की तरफ लौट आये।
खयालों की जुगाली करने का वक्त बाद में आने वाला था। लेकिन यक़ीनन एक फौरी और जाहिर सवाल था जो जवाब की माँग कर रहा था। बरतानवी हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने १९४७ में एक अलग वतन के विकल्प को मंजूरी दी थी, एक धर्म-निरपेक्ष हिन्दुस्तान की सम्भावना को नष्ट करते हुए, जिसमे हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ रह सकेंगे, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वे पाकिस्तान नामक नये राष्ट्र में अपनी जान-माल के साथ महफूज रहेंगे और उनका मजहब सुरक्षित रहेगा। इसकी बजाय, साठ बरस के अन्दर पाकिस्तान दुनिया के सबसे हिंसक राष्ट्रों में से एक बन गया है, इसलिए नहीं कि हिन्दू मुसलमानों की जाने ले रहे है, बल्कि इसलिए कि मुसलमान मुसलमानों को मार रहे है।
कौमें नाश्ते की मेज़ पर नहीं पैदा हुआ करतीं। उनकी पैदाइश की अवधि निश्चय ही इतिहास के अध्ययन के निस्बतन ज़्यादा दिलचस्प अध्यायों में से एक है। शह-मात की बाजी के उस्ताद, मुहम्मद अली जिन्ना की निर्विवाद हैसियत और क़द ने इस धारणा को जन्म दिया है कि पाकिस्तान लाहौर में मार्च १९४० में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पारित किये गये एक प्रस्ताव से वजूद में आया था। असलियत कही अधिक पेचीदा है। पाकिस्तान भविष्य के प्रति भय और अतीत के प्रति गर्व की भावना से उपजा था, लेकिन यह भय अट्ठारहवीं सदी में मुगल सल्तनत के लम्बे अवसान के दौरान मुस्लिम शुरफा के बीच उद्विग्नता की मनःस्थिति के रूप में शुरू हुआ था। इस हमल का एक लम्बा और हलचल-भरा वजूद रहा था, खास तौर पर उन पीढ़ियों के दौरान जब उसने आकार नहीं ग्रहण किया था।
यह किताब एक विचार का इतिहास है- ज्यों-ज्यों वह विचार दुर्लभ जीवट से काम ले कर नाटकीय घटनाओं के बीच से बचता-बचाता, कूदता फाँदता अपनी राह तय करता रहा, कभी-कभी नज़र से ओझल होता हुआ, मगर हमेशा या तो अपने हिमायतियों के इरादे या विरोधियों की गलतियों के बल पर फिर-फिर जिन्दा किया जाता हुआ। उसकी शुरुआत हिचकिचाते क़दमों से, १७५० के दशक मे, गिरावट के काल की परछाई तले हुई, जब मुग़ल साम्राज्य के पतन और उसके नतीजे के तौर पर हिन्दुस्तान में कथित 'मुस्लिम हुकूमत' के विखण्डन को आगे के दौर में सफ़ाइयो, सिद्धान्तों या बचे रहने की उम्मीदों से छिपाना सम्भव न रहा।
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