विश्वविद्यालय स्तर पर मानविकी तथा विज्ञान के विभिन्न विषयों का शिक्षण हिन्दी माध्यम से हो सके, इसके लिए हिन्दी भाषा में मानक ग्रंथों का उपलब्ध होना अनिवार्य है। ऐसे ग्रन्थों को उपलब्ध करवाने में यह अकादमी भी सतत अपना विनम्र योगदान कर रही है। प्रस्तुत ग्रन्थ "कर्ण-नासा-कण्ठ के सामान्य रोग" इस कड़ी में अकादमी का 100वाँ प्रकाशन है।
प्रस्तुत पुस्तक में कान-नाक एवं गले के सामान्य रोगों के कारण तथा उनके उपचार का वर्णन किया गया है। भारतीय आयुविज्ञान के प्राचीन ग्रंथ 'सुश्रुत संहिता' में वर्णित कणं एवं नासिका संबंधी समस्त रोगों का उल्लेख करते हुए लेखक ने अत्याधुनिक विधियों द्वारा उनकी फारगर चिकित्सा के उपायों पर प्रकाश डाला है। पुस्तक में मात्र दो अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में कान के प्रमुख एवं जन्मजात बोषों के कारणों एवं सहज उपायों पर प्रकाश डाला गया है। नासिका एवं कण्ठ बारे विस्तृत जानकारी दूसरे अध्याय में दी गई है। पुस्तक के लेखक डाँ० ओ० एस० परमार, साकेत चिकित्सालय, नई दिल्ली में कर्ण-नासा कण्ठ रोगों के विशेषज्ञ हैं।
प्रस्तुत पुस्तक की पाण्डुलिपि वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा तैयार करवायी गयी है. इसमें आयोग द्वारा तैयार की गयी शब्दावली को ही प्रयोग में लाया गया है ताकि देश भर में विज्ञान संबंधी हिन्दी शब्दावली की एकरूपता को बढ़ावा मिल सके ।
पुस्तक में विद्वान लेखक द्वारा विषय का प्रतिपादन चित्रों आदि की सहायता से सरल भाषा-शैली में रोचक ढंग से किया गया है। यह पुस्तक जन-सामान्य एवं आयुविज्ञान जगत् में कार्यरत शिक्षकों तथा छात्रों सभी के लिये उपयोगी सिद्ध होगी। पुस्तक विशेष रूप से पैरामेडिकल के छात्रों के लिये लिखी गयी है। आशा है पुस्तक का सर्वत स्वागत होगा।
हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने के लिये यह आवश्यक है कि इन भाषाओं में उच्चकोटि के प्रामाणिक ग्रन्थ अधिक से अधिक संख्या में तैयार करवाये जायें। इस संकल्प की पूति के लिये भारत सरकार की योजनाओं को क्रियान्वित करने का दायित्व वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग को सौंपा गया है। इन योजनाओं के अन्तर्गत अखिल भारतीय शब्दावली एवं परिभाषा कोशों के निर्माण पर कार्य चल रहा है। अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में लिखे गये प्रमाणिक ग्रंथों का अनुवाद करवाया जा रहा है तथा मौलिक ग्रंथ भी लिखवाये जा रहे हैं। आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में एक पत्रिका प्रकाशित की जा रही है और दक्षिण भारत में आम प्रयोग में आने वाले चिकित्सा संबंधी शब्दों और वाक्यांशों के संकलन का काम भी जारी है।
भारत सरकार ने ग्रंथ निर्माण का कार्य 1962-63 में राज्य सरकारों, विश्वविद्यालयों और प्रकाशकों की सहायता से शुरू किया था। सन् 1967 के अखिल भारतीय कुलपति सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया था कि भारतीय भाषाओं को स्नातक स्तर पर शिक्षा और परीक्षा का माध्यम बना देना चाहिए। सन् 1968 में संसद के दोनों सदनों द्वारा अपनायी गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के लिए शिक्षा मंत्रालय ने माध्यम परिवर्तन की आवश्यक तैयारी के तौर पर ग्रंथ निर्माण का एक व्यापक कार्यक्रम बनाया जिसके लिये चौथी पंचवर्षीय योजना में अठारह करोड़ रुपये का प्रबंध किया गया तथा प्रत्येक राज्य को अपनी प्रादेशिक भाषा में स्नातक स्तर की पुस्तकें तैयार करने के लिये एक-एक करोड़ की राशि देने की व्यवस्था की गई। इसी क्रम में भारत सरकार के शत-प्रतिशत अनुदान से हिन्दी भाषी राज्यों में 1969-70 में हिन्दी ग्रंथ अकादमियों के नाम से स्वायत्त शासी निकायों की स्थापना की गई। इसके अतिरिक्त दिल्ली, बनारस, हिसार और पंतनगर के विश्वविद्यालयों में हिन्दी प्रकाशन सैल भी स्थापित किये गये। ग्रंथ निर्माण कार्यक्रम के अंतर्गत विज्ञान, मानविकी तथा समाज विज्ञान से संबंधित महत्वपूर्ण विषयों की पांडुलिपियों के निर्माण और प्रकाशन का दायित्व इन निकायों को सौंपा गया। इन निकायों द्वारा किये जा रहे ग्रंथ निर्माण के कार्य का समन्वयन वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा किया जाता रहा है।
जहां तक तीन केन्द्रीय विषयों-आयुविज्ञान, कृषि तथा इंजीनियरी की पुस्तकों की पाण्डुलिपियों के निर्माण का संबंध है, यह कार्य वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के तत्वावधान में करवाया जा रहा है। इन विषयों की पुस्तकों का प्रकाशन विभिन्न हिन्दी ग्रंथ अकादमियों तथा हिन्दी प्रकाशन सैल के माध्यम से करवाया जा रहा है। अनूदित एवं मौलिक साहित्य में भारत सरकार द्वारा स्वीकृत शब्दावली का ही प्रयोग किया जा रहा है ताकि भारत की सभी शिक्षा संस्थाओं में एक जैसी शब्दावली के आधार पर शिक्षा प्रदान की जा सके ।
अब तक किये गये प्रयत्नों के फलस्वरूप 6255 मानक ग्रंथों का निर्माण किया जा चुका है। इन ग्रंथों के निर्माण से सभी भारतीय भाषाओं में विज्ञान, समाज विज्ञान तथा मानविकी के लगभग सभी विषयों में स्नातक स्तर की पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता काफी हद तक पूरी हो गई है। जब तक की व्यवसाय संबंधी पाठ्यक्रम में शिक्षा माध्यम पूर्णरूप से परिर्वार्तत नहीं हो जाता तब तक यह कार्यक्रम जारी रखा जायेगा ।
राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिये आयुविज्ञान के क्षेत्र में तथा इससे संबंधित दूसरे क्षेत्रों में प्रगति की बहुत आवश्यकता है। इन विषयों में विद्यार्थियों को उनकी अपनी भाषा में ययेष्ठ ज्ञान उपलब्ध कराने के लिये आयोग ने सबसे पहले शब्दावली निर्माण का कार्य अपने हाथ में लिया और इन विषयों के वरिष्ठ विशेषज्ञों के सतत परामर्श और सहयोग से स्नातक स्तर तक के लगभग पचास हजार शब्दों को अंतिम रूप देकर इन्हें 1974 में बृहत् पारिभाषिक शब्द संग्रह के रूप में प्रकाशित किया । इस शब्द संग्रह में आयुविज्ञान, भेषज विज्ञान तथा नृविज्ञान के तकनीकी शब्दों का समावेश किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक में कान, नाक एवं गले में होने वाले सामान्य रोगों की रोकथाम एवं चिकित्सा का वर्णन किया गया है। यह पुस्तक विशेषकर पैरामेडिकल पाठ्यक्रम के छात्रों के लिए लिखी गई है। इसकी भाषा काफी सरल है तथा इसका आकार भी छोटा है। अतः यह अन्य लोगों के लिए भी उपयोगी होगी। आशा की जाती है कि बायुविज्ञान जगत् में शिक्षक एवं छान सभी इसका स्वागत करेंगे ।
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