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समकालीन साहित्य बाजार और मीडिया- Contemporary Literature Market and Media

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Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Mayaprakash Pandey
Language: Hindi
Pages: 160
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 290 gm
Edition: 2014
ISBN: 9788188571871
HBO511
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Book Description

भूमिका

डॉ० मायाप्रकाश पाण्डेय की किताब 'समकालीन साहित्य, बाजार और मीडिया' कई दृष्टिकोणों से काफी उपयोगी है। शिक्षा के निजीकरण के कारण दूरवर्ती शिक्षा की व्याप्ति बढ़ती जा रही है। स्ववित्तपोशी संस्थाएँ मनमानी फीस ले रही है। इसलिए जिज्ञासु इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली या राज्य खुला या मुक्त विश्वविद्यालयों में शिक्षा ले रहे हैं। सरकारी नौकरियों में प्रारम्भिक, मुख्य एवं साक्षात्कार होने के कारण प्रतियोगी ओपन विश्वविद्यालयों की स्तरीय छपी सामग्री का खूब उपयोग कर रहे हैं। राज्य एवं केन्द्रीय विश्वविद्यालय विद्यार्थियों को छपी सामग्री प्रदान नहीं करते हैं। इसीलिए ओपन विश्वविद्यालयों की महत्ता परम्परागत विश्वविद्यालयों से ज्यादा बढ़ती जा रही है। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के ज्ञानदर्शन एक एवं दो चैनल सतत् कार्य करते हैं। जबकि यू. जी. सी. का व्यास चैनल भी घर बैठे दृश्य-श्रव्य माध्यम से स्तरीय सामग्री परोस रहा है। इसी तरह से राज्य सरकारों ने भी 'लाइव लेक्चर' की श्रृंखला चालू की है। इंटरनेट के माध्यम से सभी विषयों की स्तरीय सामग्री उपलब्ध है।

शिक्षा के बाजारीकरण के चलते नैतिकता एवं आदर्श को काफी धक्का लगा है। ऐसे समय में डॉ० माया प्रकाश पाण्डेय की 'समकालीन साहित्य, बाजार और मीडिया' किताब का प्रकाशित होना, सहृदयों की सजगता का सूचक है। इस किताब में दूरवर्ती शिक्षा पर दो लेख, मीडिया पर दो लेख, मन्नू भंडारी, नागार्जुन, दलित विमर्श, डॉ० अम्बेडकर, कवि युवराज, केदारनाथ अग्रवाल, उषा प्रियंवदा, प्रेमचंद, अष्टभुजा शुक्ल आदि के साहित्य पर सम्यक दृष्टि से लिखा है। बाजार, विज्ञापन और मीडिया, भारतीय साहित्य, समाज एवं संस्कृति को आमूलचूल परिवर्तित कर रहे हैं। इसीलिए इन्होंने इस किताब में गद्य-पद्य का विभाजन न करके मुकम्मिल रूप में समग्र साहित्य को देखने की कोशिश की है। बाजारीकरण के युग में साहित्यकारों के सामने तमाम चुनौतियाँ हैं । रचनाकारों ने वैश्वीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण की नब्ज को भली प्रकार पहचाना है। मानवीय रुचि-अरुचि का ध्यान रखते हुए चित्तवृति के निदर्शन को डॉ० पाण्डेय ने गहराई से पकड़ा है। नारी एवं दलित विमर्श के सकारात्मक पहलुओं ने भारतीय साहित्य की तमाम सीमाओं को रेखांकित किया है। डॉ० मायाप्रकाश पाण्डेय का लोकानुभव संवेदनात्मक स्तर पर आलोचना में झलकता है। इसलिए पुराने रचनाकारों पर उन्होंने नवीन दृष्टिकोण से बात रखी है। भावयित्री प्रतिभा के धनी पाण्डेय जी ने पहले रचनाकर्म एवं रचनाधर्म पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया है। इसलिए गद्य-पद्य के विभाजन में न पड़कर व्यापक परिप्रेक्ष्य में साहित्य को खंगालने की कोशिश की है। परंपरागत एवं मुक्त शिक्षा पर बात करते हुए उन्होंने भावयित्री एवं कारयित्री दोनों प्रतिभाओं का ध्यान रखा। डॉ० पाण्डेय एक गंभीर अध्येता इसलिए है क्योंकि वे कथनी एवं करनी में भेद नहीं करते।

आज के युग में लोगों के पास समय नहीं है साहित्य पर विचार करने के लिए। डॉ० पाण्डेय समय निकालकर समकालीन साहित्य पर अपनी दो टूक बातें रखी हैं। तमाम समकालीन रचनाकारों पर उन्होंने लिखा, वे उनके लिए विशिष्ट हैं। आलोचक पाण्डेय की अपनी सोच कहीं न कहीं रचना एवं रचनाकार की खूबियों को उभारने में सक्षम हैं। वे व्यापक परिप्रेक्ष्य में सहृदय को रचना एवं रचनाकार से परिचित कराते हैं। उनकी आलोचना की पारदर्शिता एवं तटस्थता देखते बनती है। डॉ० मायाप्रकाश की इस आलोचनात्मक कृति का सहृदय निश्चित रूप से स्वागत करेंगे तथा उनसे अन्य रचनाकारों एवं कृतियों पर इसी तरह से लिखने की अपेक्षा रखेंगे। आलोचक किसी भी कृति को सहृदय तक पहुँचाने की कोशिश करता है। इनकी भाषा साफ-सुथरी, बोधगम्य एवं प्रभावशाली होने के साथ सम्प्रेषणीय है। कई आलोचक इस तरह की कठिन भाषा एवं पारिभाषिक शब्दावली का जान-बूझकर प्रयोग करते हैं। जिससे रचना एवं रचनाकार को समझने में काफी विक्षेप आता है। डॉ० मायाप्रकाश पाण्डेय सहृदय एवं रचना-रचनाकार की मनोभूमि का ध्यान रखते हुए आलोचना में प्रवृत्त हुए हैं। निश्चित रूप से सहृदय उनकी इस अद्यतन कृति से लाभान्वित होंगे। सहृदयों के सकारात्मक प्रतिभाव के कारण उन्होंने आर्थिक दबाव में भी रचनाकर्म पत्रिका का दस वर्षों तक कुशल सम्पादन किया था। उनकी किताब 'समकालीन साहित्य, बाजार और मीडिया' में संकलित सभी लेख उत्तम एवं उपयोगी हैं। उनके लेखों के शीर्षक से यह बात साफ हो जाती है कि आलोचक परम्परा एवं उत्तर आधुनिकता से भली प्रकार परिचित हैं। इसीलिए उन्होंने उत्तर आधुनिकता की शर्त परिधि से केन्द्र में लाने की कोशिश रचनाकारों के माध्यम से की है। बड़े से बड़े रचनाकार उपेक्षा के शिकार होते आये हैं। जिस बाजार, विज्ञापन एवं दूरवर्ती शिक्षा को लोग महत्व नहीं देते थे, वही लोग बाजार, विज्ञापन, दूरवर्ती शिक्षा, नारी एवं दलित विमर्श पर खुलकर लिख-पढ़ न सिर्फ रहे हैं। अपितु बड़े-बड़े परिसंवादों में वक्तव्य भी दे रहे हैं। इतिहास की क्रूरता जगजाहिर है जो रचनाकार अपने समय में काफी चर्चित रहते हैं। कालांतर में हाँसिए पर धकेल दिए जाते हैं। इसीलिए प्राध्यापकीय समायोजित आलोचना से हमें बचना होगा। आजकल हम लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया को नकार नहीं सकते। यूनीकोड के माध्यम से फोन्ट की असुविधा को भी दूर करना अनिवार्य होता जा रहा है। ई-ट्रांसलेशन के माध्यम से वैश्विक साहित्य को समझना अनिवार्य हो गया है।

उत्तर आधुनिकता की व्याप्ति जन-सामान्य के लिए अच्छी है परंतु जन-सामान्य उत्तर आधुनिकता की मृग मरीचिका को समझ नहीं पाए हैं या यों कह लीजिए कि केन्द्रीय, नवोदय, सैनिक, मिलिटरी, पब्लिक स्कूलों में अद्यतन सुविधा से मुक्त अंग्रेजी एवं हिन्दी में शिक्षा दी जाती है। राज्य सरकारों के २८ या २६ शिक्षा परिषद प्रादेशिक भाषा एवं अंग्रेजी में शिक्षा दे रहे हैं। इस भेदनीति को डॉ० पाण्डेय भली प्रकार समझते हैं। इस पुस्तक के सभी लेख स्वतंत्र होने के बावजूद साहित्य की अन्तर्वर्ती अनुभूति से अनुस्यूत हैं। साहित्यिक विधाओं का गड्डमगड्ड ने मानवीय अनुभूति को व्यापकता प्रदान की है। मानवीय चित्तवृत्तियों का निरूपण मीडिया के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचता है। इसलिए साधारणीकरण या सामान्यीकरण या सम्प्रेषणीकरण की प्रक्रिया बहुआयामी हुई है। मानवीय सम्प्रेषण की कोशिश बहुदेशीय मीडिया सतत् बढ़ती जा रही है। इसीलिए अछांदस या मुक्त छंद के कवियों में आंतरिक मानवीय उपलब्धि एवं कमजोरी दोनों को कवि लोग काव्यभाषा में ढाल रहे हैं। साहित्य, मीडिया एवं बाजार के केन्द्र में मनुष्य एवं प्रकृति का संरक्षण नितांत आवश्यक है। दूरवर्ती शिक्षा का सर्वोपरि सर्वप्रथम दृष्टांत एकलव्य है। परम्परागत शिक्षा की उपलब्धि एवं सीमा दोनों से हम सब भलीभाँति परिचित हैं। 'स्वाध्यायः परमं तपः' पर आधारित दूरवर्ती शिक्षा शिक्षा से वंचित नवयुवकों के लिए वरदान स्वरूप है। समकालीन शैक्षणिक परिदृश्य में दूरवर्ती शिक्षा जिज्ञासु के लिए संजीवनी बूटी है। आजकल अनुभव के साथ डिग्री अनिवार्य कर दी गयी है। इस दृष्टि से यह किताब बहुद्देशीय दृष्टिकोण से लिखी गयी है। इससे सहृदयों में सहज जिज्ञासा बनी रहती है कि अगले लेख में कुछ और नया होगा। इसलिए 'समकालीन साहित्य बाजार और मीडिया' किताब पढ़ते समय हमे बहुआयामी मानव संसाधनों के विकास का ध्यान आया। निश्चित रूप से इस किताब को पढ़ने के बाद सहृदयों के प्रतिभाव का इंतजार रहेगा। डॉ० माया प्रकाश पाण्डेय इसी तरह समकालीन विमशों पर लिखते, पढ़ते एवं छपते रहें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ।

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